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नय
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I नय सामान्य
उनका प्रकर्ष से अर्थात् संशय आदि दोषो से रहित होकर निरूपण करनेवाला नय है । ( क. पा. १/१३-१४/ १७४/२१०/३)। पं.ध./पू./६६६ अयमर्थोऽथ विकल्पो ज्ञान किल लक्षणं स्वतस्तस्य ।
एकविकल्पो नयस्यादुभयविकल्प प्रमाणमिति बोध.६६६। तत्रोक्तं लक्षण मिह सर्वस्वग्राहकं प्रमाणमिति । विषयो वस्तुसमस्त निरंशदेशादिभूरुदाहरणम् १६७६। =ज्ञान अर्थाकार होता है। वही प्रमाण है। उसमें केवल सामान्यात्मक या केवल विशेषात्मक विकल्प नय कहलाता है और उभय विकल्पात्मक प्रमाण है ।६६६। वस्तुका सर्वस्व ग्रहण करना प्रमाणका लक्षण है। समस्त वस्तु उसका विषय है और निरंशदेश आदि 'भू' उसके उदाहरण है ।६७६।
नय कहलाता है और सम्यगनेकान्त प्रमाण। नय विवक्षा वस्तुके एक धर्मका निश्चय करानेवाली होनेसे एकान्त है और प्रमाण विवक्षा वस्तुके अनेक धर्मों की निश्चय स्वरूप होनेके कारण अनेकान्त है। (न. दी./३/२/१२६/१)। ( स. भ. त./७४/४ ) (पं.घ./उ./३३४) । ध.१/४,१.४५/१६३/५ किं च न प्रमाण नय' तस्यानेकान्तविषयत्वाद ।
न नयः प्रमाणम, तस्यैकान्तविषयत्वात् । न च ज्ञानमेकान्तविषयमस्ति, एकान्तस्य नीरूपत्वतोऽवस्तुनः कर्मरूपत्वाभावात् । न चानेकान्तविषयो नयोऽस्ति, अवस्तुनि वस्त्वर्पणाभावात् । -प्रमाण नय नहीं हो सकता, क्योंकि उसका विषय अनेक धर्मात्मक वस्तु है। न नय प्रमाण हो सकता है, क्योंकि. उसका एकान्त विषय है। और ज्ञान एकान्तको विषय करनेवाला है नहीं, क्योंकि, एकान्त नीरूप होनेसे अवस्तुस्वरूप है, अतः वह कर्म { ज्ञानका विषय ) नहीं हो । सकता। तथा नय अनेकान्तको विषय करनेवाला नहीं है, क्योंकि,
अवस्तुमें वस्तुका आरोप नहीं हो सकता। प्र. सा /त.प्र./परि०का अन्त-प्रत्येकमनन्तधर्मव्यापकानन्तनय निरूप्य
माणं ...अनन्तधर्माणां परस्परमतद्भावमात्रेणाशक्य विवेचनत्वादमेचकस्वभावैकधर्मव्यापकैकमित्वाद्यथोदितकान्तात्मात्मद्रव्यम् । युगपदनन्तधर्मव्यापकानन्तनयव्याख्याप्येकश्रुतज्ञानलक्षणप्रमाणेन निरूप्यमाणं तु . अनन्तधर्माणां वस्तुत्वेनाशक्य विवेचनत्वान्मेचकस्वभावानन्तधर्मव्याप्येकधर्मित्वात् यथोदितानेकान्तात्मात्मद्रव्यं । ० एक एक धर्म में एक एक नय, इस प्रकार अनन्त धर्मों में व्यापक अनन्त नयोंसे निरूपण किया जाय तो, अनन्तधौंको परस्पर अतद्भावमात्रसे पृथक करनेमें अशक्य होनेसे, आत्मद्रव्य अमेचकस्वभाववाला, एकधर्ममें व्याप्त होनेवाला, एक धर्मो होनेसे यथोक्त एकान्तात्मक है। परन्तु युगपत अनन्त धर्मों में व्यापक ऐसे अनन्त नयों में व्याप्त होनेवाला एक श्रुतज्ञानस्वरूप प्रमाणसे निरूपण किया जाय तो, अनन्तधर्मोको वस्तुरूपसे पृथक् करना अशक्य होनेसे आरमद्रव्य मेचकस्वभाववाला, अनन्त धमों में व्याप्त होनेवाला, एक धर्मी होनेसे यथोक्त अनेकान्तात्मक है।
७. प्रमाण सकलादेशी है और नय विकलादेशी स. सि./१/६/२०/८ में उद्धृत-सकलादेशः प्रमाणाधीनो विकलादेशो
नयाधीन इति । =सकलादेश प्रमाणका विषय है और विकलादेश नयका विषय है । (रा.वा./१/६/३/३३/8). (पं.का./ता.वृ./१४/३२/१९) (और भी दे. सप्तभंगी/२) (विशेष दे० सकलादेश व विकलादेश )।
९. प्रमाण सब धर्मोको युगपत् ग्रहण करता है तथा नय क्रमसे एक एकको घ.६/४,१,४५/१६३ किं च, न प्रमाणेन विधिमात्रमेव परिच्छिद्यते,
परव्यावृत्तिमनादधानस्य तस्य प्रवृत्ते साङ्कर्यप्रसङ्गादप्रतिपत्तिसमानताप्रसङ्गो वा । न प्रतिषेधमात्रम, विधिमपरिछिदानस्य इदमस्माद् व्यावृत्तमिति गृहीतुमशक्यत्वात् । न च विधिप्रतिषेधौ मिथो भिन्नौ प्रतिभासेते, उभयदोषानुषङ्गात् । ततो विधिप्रतिषेधात्मक वस्तु प्रमाणसमधिगम्यमिति नास्त्येकान्तविषय विज्ञानम् ।। • प्रमाणपरिगृहीतवस्तुनि यो व्यवहार एकान्तरूप' नयनिबन्धनः । ततः सकलो व्यवहारो नयाधीन' -प्रमाण केवल विधि या केवल प्रतिषेधको नहीं जानता; क्योंकि, दूसरे पदार्थोकी व्यावृत्ति किये विना ज्ञानमें संकरताका या अज्ञानरूपताका प्रसंग आता है, और विधिको जाने बिना 'यह इससे भिन्न है' ऐसा ग्रहण करना अशक्य है। प्रमाणमें विधि व प्रतिषेध दोनों भिन्न-भिन्न भी भासित नहीं होते है, क्योंकि ऐसा होनेपर पूर्वोक्त दोनों दोषों का प्रसंग आता है। इस कारण विधि प्रतिषेधरूप वस्तु प्रमाणका विषय है। अतएव ज्ञान एकान्त (एक धर्म) को विषय करनेवाला नहीं है । -प्रमाणसे गृहीत वस्तुमें जो एकान्त रूप व्यवहार होता है वह नय निमित्तक है । ( नय/V/E/४ ) (पं.ध./पू./६६५)। न.च. वृ./७१ इत्थित्ताइसहावा सवा सम्भाविणो ससब्भावा। उहयं जुगवपमाणं गहइ णो गउणमुक्खभावेण १७१। -अस्तित्वादि जितने भी वस्तुके निज स्वभाव हैं, उन सबको अथवा विरोधी धर्मोको युगपत् ग्रहण करनेवाला प्रमाण है, और उन्हे गौण मुख्य भावसे ग्रहण करनेवाला नय है। न्या. दी./२/8 ८६/१२/१ अनियतानेकधर्मवद्वस्तुविषयत्वात्प्रमाणस्य, नियतकधर्मवद्वस्तुविषयत्वाच्च नयस्य। - अनियत अनेक धर्म विशिष्ट वस्तुको विषय करनेवाला प्रमाण है और नियत एक धर्म विशिष्ट वस्तुको विषय करनेवाला नय है। (पं.ध./पू./६८०)। (और भी दे०-अनेकान्त/३/१)। १०. प्रमाण स्यात्पद युक्त होनेसे सर्व नयारमक होता है स्व, स्तो./६५ नयास्तव स्यात्पदलान्छना इमे, रसोपविद्धा इव लोह
शतवः । भवन्त्यभिप्रेतफला यतस्ततो भवन्तमार्या. प्रणता हितेषिणः। -जिस प्रकार रसोंके संयोगसे लोहा अभीष्ट फलका देनेवाला बन जाता है, इसी तरह नयों में 'स्यात' शब्द लगानेसे भगवान्के द्वारा प्रतिपादित नय इष्ट फलको देते हैं। (स्या. म./२८/३२१/३ पर उदधृत)। रा.पा./१/७/५/३०/१५ तदुभयसंग्रहः प्रमाणम्। -द्रव्यार्थिक व पर्याया
र्थिक दोनों नयों का संग्रह प्रमाण है। (प.सं./पू./६६५) । स्या. म./२८/३२१/१ प्रमाणं तु सम्यगर्थ निर्णयलक्षणं सर्वनयात्मकम् । स्याच्छब्दलाञ्छितानी नयानामेव प्रमाणव्यपदेशभाक्त्वात् । तथा
6.प्रमाण सकल वस्तुग्राहक है और नय तदंशग्राहक न. च. वृ./२४७ इदि तं पमाणविसयं सत्तारूवं खुजं हवे दव्वं । णयविसयं तस्संसं सियभणितं तपि पुन्वुत्तं ।२४७) - केवल सत्तारूप द्रव्य अर्थात सम्पूर्ण धौंकी निर्विकल्प अखण्ड सत्ता प्रमाणका विषय है और जो उसके अंश अर्थात अनेकों धर्म कहे गये हैं वे नयके विषय हैं । ( विशेष दे./नय/I/१/१/३)। आ. /सकलवस्तुग्राहकं प्रमाणं । सकल वस्तु अर्थात् अखण्ड वस्तु
ग्राहक प्रमाण है। ध.१/४,१,४५/१६६/१ प्रकर्षण मानं प्रमाणम् , सकलादेशीत्यर्थः । तेन प्रकाशिताना प्रमाणपरिगृहीतानामित्यर्थः । तेषामर्थानामस्तित्वनास्तित्व-नित्यवानित्यत्वाद्यननन्तात्मकानां जीवादीनां ये विशेषाः पर्यायाः तेषां प्रकर्षेण रूपकः प्ररूपकः निरुद्धदोषानुषङ्गद्वारेणेत्यर्थः । -प्रकर्षसे अर्थात संशयादिसे रहित वस्तुका ज्ञान प्रमाण है। अभिप्राय यह है कि जो समस्त धौंको विषय करनेवाला हो वह प्रमाण है, उससे प्रकाशित उन अस्तित्वादि व नित्यत्व अनित्यत्वादि अनन्त धर्मात्मक जीवादिक पदार्थों के जो विशेष अर्थात पर्यायें हैं.
जैनेन्द्र सिमान्तकोश
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