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नय
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I नय सामान्य
सर्व शक्तिमय एक ज्ञानमात्र अनुभव करता है। ऐसा ही वस्तुका स्वरूप है, इसमे कोई विरोध नहीं है। (विशेष दे० अनेकान्त/५), (पं. ध./पू /५१० )।
३. नय केवल ज्ञेय है पर उपादेय नहीं स.सा./मू./१४३ दोण्हविणयाण भणियं जाणइ णवरं तु समयपडिबद्धा।
ण दु णयपक्वं गिण्हदि किंचिवि णयपक्वपरिहीणो। -नयपक्षसे रहित जीव समयसे प्रतिबद्ध होता हुआ, दोनों ही नयों के कथनको मात्र जानता ही है, किन्तु नयपक्षको किंचितमात्र भी ग्रहण नहीं करता।
च श्रीविमलनाथस्तवे श्रीसमन्तभद्र' । सम्यक प्रकारसे अर्थ के निर्णय करने को प्रमाण कहते हैं। प्रमाण सर्वनय रूप होता है। क्यों कि नयवाक्योंमे 'स्यात्' शब्द लगाकर बोलनेको प्रमाण कहते हैं। श्रीसमन्त स्वामीने भी यही बात स्वयभू स्तोत्रमें विमलनाथ स्वामीकी स्तुति करते हुए कही है। (दे० ऊपर प्रमाण नं.१)।
११. प्रमाण व नयके उदाहरण पं.घ./पू./७४७-७६७ तत्त्वमनिर्वचनीयं शुद्धद्रव्यार्थिकस्य मतम् ।
गुणपर्ययवद्रव्यं पर्यायाथिकनयस्य पक्षोऽयम् ।७४७। यदिदमनिर्वचनीयं गुणपर्ययवत्तदेव नास्त्यन्यत् । गुणपर्ययवद्यदिदं तदेव तत्त्व तथा प्रमाणमिति ७४८१ == 'तत्त्व अनिर्वचनीय है' यह शुद्ध द्रव्यार्थिक नयका पक्ष है और 'द्रव्य गुण पर्यायवान है' यह पर्यायार्थिक नयका पक्ष है 1७४७१ जो यह अनिर्वचनीय है वही गुणपर्यायवान है, कोई अन्य नहीं, और जो यह गुणपर्यायवान है वही तत्त्व है, ऐसा प्रमाणका पक्ष है 1७४८॥
१२. नयके एकान्तग्राही होने में शका घ.६/४,१,४७/२३६/५ एयंतो अवस्थू कधं ववहारकारणं । एयतो अबस्थूण संवबहारकारणं किंतु तक्कारणमणेयंतो पमाणविस ईकओ, वत्थत्तादो। कधं पुण णओ सव्वसंववहाराणं कारणमिदि । वुच्चदे--को एवं भणदि णओ सयसंववहाराणं कारण मिदि । पमाणं पमाणविसईकयट्ठा च सयलसंववहाराणकारण । किंतु सब्बो संववहारो पमाणणिअंधणो णयसरूवो त्ति परूवेमो, सव्यसंक्वहारेसु गुण-पहाणभाषोवलंभादो। प्रश्न-जब कि एकान्त अवस्तुस्वरूप है, तब वह व्यवहारका कारण कैसे हो सकता है। उत्तर--अवस्तुस्वरूप एकान्त संव्यवहारका कारण नहीं है, किन्तु उसका कारण प्रमाणसे विषय किया गया अनेकान्त है, क्योंकि वह वस्तुस्वरूप है। प्रश्नयदि ऐसा है तो फिर सब संव्यवहारोका कारण नय कसे हो सकता है। उत्तर-इसका उत्तर कहते हैं-कौन ऐसा कहता है कि नय सब संव्यवहारोका कारण है, या प्रमाण तथा प्रमाणसे विषय किये गये पदार्थ भी समस्त संव्यवहारोके कारण है। किन्तु प्रमाणनिमित्तक सब संव्यबहार नय स्वरूप है, ऐसा हम कहते है, क्योंकि सब संव्यवहारोमें गौणता प्रधानता पायी जाती है। विशेष-दे० नय/II/२
४. नय पक्षको हेय कहनेका कारण व प्रयोजन स. सा./आ./१४४/क. १३-६५ आक्रामन्न विकल्पभावमचलं पक्षनयानां विना, सारो य' समयस्य भाति निभृतैरास्वाद्यमान स्वयम् । विज्ञानै करसः स एष भगवान्पुण्यः पुराण' पुमान, ज्ञानं दर्शनमप्ययं किम. थवा यत्किचन कोऽप्ययम् 1३) दूरं भूरिविकल्पजालगहने भ्राम्यनिजौघाच्च्युतो, दूरादेव विवके निम्नगमनानीतो निजौघं बलात् । विज्ञान करसस्तदेकरसिनामात्मानमात्मा हरन्, आत्मन्येव सदा गतानुगततामायात्यय तोयवत् ।१४। विकल्पकः परं कर्ता विकल्पः कर्म केवलम् । न जातु कतृ मत्व सविकल्पस्य नश्यति ।६।। -नयों के पक्षोंसे रहित अचल निर्विकल्प भाव को प्राप्त होता हुआ, जो समयका सार प्रकाशित करता है, वह यह समयसार, जो कि आत्मलीन पुरुषो के द्वारा स्वयं आस्वाद्यमान है, वह विज्ञान ही जिसका एक रस है ऐसा भगवान है, पवित्र पुराण पुरुष है । उसे चाहे ज्ञान कहो या दर्शन बह तो ग्रही ( प्रत्यक्ष ) ही है, अधिक क्या कहे ' जो कुछ है, सो यह एक ही है।३। जैसे पानी अपने समूहसे च्युत होता हुआ दूर गहन वनमें बह रहा हो, उसे दूरसे ही ढालवाले मार्ग के द्वारा अपने समूहकी ओर बल पूर्वक मोड दिया जाये, तो फिर वह पानी, पानीको पानेके लिए समूहकी ओर खेचता हुआ प्रवाह-रूप होकर अपने समूह मे आ मिलता है। इसी प्रकार यह आत्मा अपने विज्ञानघनस्वभावसे च्युत होकर प्रचुर विकल्पजालों के गहन वनमें दूर परिभ्रमण कर रहा था। उसे दूर से ही विवेकरूपी ढालवाले मार्ग द्वारा अपने विज्ञानघनस्वभावकी ओर बलपूर्वक मोड दिया गया। इसलिए केवल विज्ञानघनके ही रसिक पुरुषो को जो एक विज्ञान रसवाला ही अनुभवमें आता है ऐसा वह आत्मा, आत्माको आत्मामें खींचता हुआ, सदा विज्ञानघनस्वभावमे आ मिलता है।६४। ( स. सा./आ/१४४)। विकल्प करनेवाला ही केवल कर्ता है, और विकल्प ही केवल कर्म हैं, जो जीव विकल्प सहित है, उसका कर्ताकर्मपना कभी नष्ट नहीं होता ।६५॥ नि. सा/ता. वृ./४८/क.७२ शुद्धाशुद्धविकल्पना भवति सा मिथ्याशि प्रत्यहं, शुद्ध कारण कार्यतत्वयुगलं सम्यग्दृशि प्रत्यहं । इत्थं यः परमागमार्थमतुलं जानाति सदृक् स्वयं, सारासारविचारचारुधिषणा वन्दामहे तं वयम् ॥७२।-शुद्ध अशुद्धकी जो विकल्पना वह मिथ्यादृष्टि को सदैव होती है। सम्यग्दृष्टिको तो सदा कारणतत्त्व और कार्यतत्त्व दोनों शुद्ध है। इस प्रकार परमागमके अतुल अर्थको, सारासारके विचारवाली सुन्दर बुद्धि द्वारा, जो सम्यग्दृष्टि स्वयं जानता है, उसे हम वन्दन करते है। स. सा./ता. वृ./१४४/२०२/१३ समस्तमतिज्ञानविकल्परहितः सन् बद्धाबद्धादिनयपक्षपातरहित. समयसारमनुभवन्नेव निर्विकल्पसमाधिस्थैः पुरुषै दृश्यते ज्ञायते च यत आत्मा तत. कारणात नवरि केवलं सकलविमलकेवलदर्शनज्ञानरूपव्यपदेशसंज्ञा लभते। न च बद्धाबद्धादिव्यपदेशाविति । समस्त मतिज्ञानके विकल्पोसे रहित होकर वद्धाबद्ध आदि नयपक्षपातसे रहित समयसारका अनुभव करके ही, क्योंकि,
३. नयको कथंचित् हेयोपादेयता
१. तत्व नय पक्षोंसे अतीत है स.सा./मू./१४२ कम्मं बद्धमबद्धे जीवे एव तु जाण णयपक्वं । पक्रवातिक्कतो पुण भण्णदि जो सो समयसारो ।१४२ - जीवमे कर्म बद्ध है अथवा अबर है इस प्रकार तो नयपक्ष जानो, किन्तु जो पक्षातिकान्त कहलाता है वह समयसार है । (न.च./श्रुत/२६/१) । न.च./श्रुत/३२-प्रत्यक्षानुभूतिर्नयपक्षातीतः । = प्रत्यक्षानुभूति ही नय पक्षातीत है।
२. नय पक्ष कथंचित् हेय है स, सा./आ /परि/क,२७० चित्रात्मशक्तिसमुदायमथोऽयमात्मा, सद्यः प्रणश्यति नयेक्षणरवण्ड्यमानः । तस्मादरवण्डमनिराकृतरवण्डमेकमेकान्तशान्तमचलं चिदहं महोस्मि ।२७०।-आत्मामे अनेक शक्तियाँ हैं, और एक-एक शक्तिका ग्राहक एक-एक नय है, 'इसलिए यदि नयोकी एकान्त दृष्टिसे देखा जाये तो आत्माका रखण्ड-खण्ड होकर उसका नाश हो जाये। ऐसा होनेसे स्याद्वादी, नयोंका विरोध दूर करके चैतन्यमात्र वस्तुको अनेकशक्तिसमूहरूप सामान्यविशेषरूप
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