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नय
पं.
निर्विकल्प समाधिमे स्थित पुरुषों द्वारा आत्मा देखा जाता है, इस लिए वह केवलदर्शन ज्ञान संज्ञाको प्राप्त होता है, बद्ध या अचद्ध आदि व्यपदेशको प्राप्त नही होता । ( स. सा./ता. वृ/१३/३२/७ ) 1 ६. प. पू. ५०६ यदि पानपो नयो विकल्पोऽस्ति सोऽप्यपर मार्यः । नयतो ज्ञान गुण इति शुद्ध ज्ञेयं च किंतु तद्योगात् ५०६॥ अथवा ज्ञानके विकल्पका नाम नय है और वह विकल्प भी परमार्थभूत नहीं है, क्योंकि वह ज्ञानके विकल्परूप नय न तो शुद्ध ज्ञानगुण ही है और न शुद्ध ज्ञेय हो, परन्तु ज्ञेयके सम्बन्धसे होनेवाला ज्ञानका विकल्प मात्र है । स.सा.पं. जयचन्द / १२ / ६ का भाषार्थ-यदि सर्वथा नयाँका पक्षपात हुआ करे तो मिथ्यात्व ही है ।
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५. परमार्थते निश्चय व व्यवहार दोनों ही का पक्ष विकल्परूप होनेस हेब है
स. सा. बा. ९४२ यावी व कर्मेति यति स जीवेऽ बद्र कर्मेति एक पक्षमतिकामपि किमतिकामति । यस्तु tased' कर्मेति विकल्पयति सोऽपि जीवे बद्धं कर्मेत्येकं पक्षमतिक्रामन्नपि न विकल्पमतिक्रामति । यः पुनर्जीवे बद्धमबद्ध च कर्मेति विकल्पयति स तु तं द्वितयमपि पक्षमनतिक्रामन्न विकल्पमतिक्रामति । ततो य एवं समस्तनमतिक्रामति स एव समस्तं विकल्पमतिक्रामति । य एव समस्तं विकल्पमतिक्रामति स एव समयसारं विन्दति ॥८॥ = 'जीव में कर्म बन्धा है' जो ऐसा एक विकल्प करता है, वह यद्यपि 'जीव में कर्म नहीं बन्धा है' ऐसे एक पक्षको छोड देता है, परन्तु विकल्पको नही छोड़ता । जो 'जीवमे कर्म नहीं बन्धा है' ऐसा विकल्प करता है, वह पहले 'जीव में कर्म बन्धा है' इस पक्षको यद्यपि छोड देता है, परन्तु विकल्पको नहीं छोड़ता । जो 'जीनमें कर्म कचिदबा है और कचित् नहीं भी ब है ऐसा उभयरूप विकल्प करता है, वह तो दोनो ही पक्षोंको नहीं छोड़नेके कारण विकल्पको नहीं छोड़ता है । ( अर्थात् व्यवहार या निश्चय इन दोनोंमेसे किसी एक नयका अथवा उभय नयका विकल्प करनेवाला यद्यपि उस समय अन्य नयका पक्ष नहीं करता पर विकल्प तो करता ही है ), समस्त नयपक्षका छोड़नेवाला ही विकल्पोको छोड़ता है और वही समयसारका अनुभव करता है ।
घ. पू. ६४५-६४ मनु चै परसमय का स निश्चयायसम्ब स्यात् । अविशेषादपि स यथा व्यवहारनयावलम्बी य' । ६४५ | प्रश्नव्यवहार नयावलम्बी जैसे सामान्यरूपसे भी परसमय होता है, वैसे ही निश्चयनयावलम्बी परसमय कैसे हो सकता है । ६४५। उत्तर-( उपरोक्त प्रकार यहाँ भी दोनो नयोंको विकल्पात्मक कहकर समाधान किया है) । ६४६ - ६४८१ )
६. प्रत्यक्षानुभूतिके समय निश्चयव्यवहारके विकल्प नहीं रहते
न. च.वृ./२६६ तच्चाणेसणकाले समयं बज्झेहि जुत्तिमग्गेण । णो बाराहणसमये पश्चक्त्रो खण्ड ओ जम्हा रामान्वेषणकालमे ही युक्तिमार्ग से अर्थात् निश्चय व्यवहार नयों द्वारा आत्मा जाना जाता है, परन्तु आत्माकी आराधना समय ये विकल्प नहीं होते, खोंकि उस समय तो आत्मा स्वयं प्रत्यक्ष ही है।
न. च / श्रुत / ३२ एवमात्मा यावद्व्यवहार निश्चयाभ्यां तत्त्वानुभूतिः तारपरोक्षानुभूतिः। प्रत्यक्षानुभूतिः नयपक्षातीस आत्मा जबतक व्यवहार व निश्चयके द्वारा तत्त्वका अनुभव करता है तबतक उसे परोक्ष अनुभूति होती है, प्रत्यक्षानुभूति तो नय पक्ष अतीत है।
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I नय सामान्य
स.सा / आ / १४३ तथा किल यः व्यवहारनिश्चयनयपक्षयों परपरिग्रहप्रतिनिवृत्तीत्कदा स्वरूपमेव केवलं जानाति न तु चिन्मयसमयप्रतिबद्धता दारये स्वयमेव विज्ञानघनभूतत्वाद समस्तनय
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परमात्कथंचनापि नयपक्ष परिगृह्णाति स खलु निखिल विकल्पेभ्य परमात्मा ज्ञानात्मा प्रत्यग्ज्योतिरात्मख्यातिरूपोऽनुभूतिमात्रः समयसारः । =जो श्रुतज्ञानी, परका ग्रहण करने के प्रति उत्साह निवृत्त हुआ होनेसे, व्यवहार व निश्चय नयपक्षोके स्वरूपको केवल जानता ही है, परन्तु चिन्मय समय से प्रतिबद्धता के द्वारा अनुभव के समय स्वयं ही विज्ञानघन हुआ होनेसे, तथा समस्त नयपक्ष के ग्रहणसे दूर हुआ होनेसे किसी भी नयपक्षको ग्रहण नहीं करता, वह वास्तवमे समस्त विकल्पोसे पर परमात्मा, ज्ञानामा प्रज्योति आत्मख्यातिरूप अनुभृतिमात्र समयसार है। पु. सि. उ. / ८ व्यवहार निश्चयौ य प्रबुध्य तत्त्वेन भवति मध्यस्थ' | प्राप्नोति देशनायाः स एव फलमविकलं शिष्य' ।' जो जीव व्यवहार और निश्रचय नयके द्वारा वस्तुस्वरूपको यथार्थ रूप जानकर मध्यस्थ होता है अर्थात उभय नयके पक्षसे अतिक्रान्त होता है, वही शिष्य उपदेशके सकल फलको प्राप्त होता है ।
स.सा./ता.वृ / १४२ का अन्तिम वाक्य / १६६ / ११ समयाख्यानकाले या बुद्धिर्नामा वर्तते तत्त्वस्य सा स्वस्थस्य निवर्तते, हे पादेयतस्तु विनिश्चित्य नयायामुपादेयेऽवस्थान साधुसम्मतं । तय के स्वास्यानकाल मे जो बुद्धि निश्चय य हार इन दोनों रूप होती है, वही बुद्धि स्वमें स्थित उस पुरुषको नहीं रहती जिसने वास्तविक तत्त्वका बोध प्राप्त कर लिया होता है; क्योंकि दोनो नयों से हेय व उपादेय तत्त्वका निर्णय करके हेयको छोड उपादेयमे अवस्थान पाना ही साधुसम्मत है ।
७. परन्तु तत्त्व निर्णवार्य नय कार्यकारी है
स. सु.//६ प्रमाणनरक्षिनम -प्रमाण और नय पदार्थका ज्ञान होता है ।
ध. १/१,१.१/गा. १०/१६ प्रमाणनयनिक्षेपैर्योऽर्थो नाभिसमीक्ष्यते । युक्तं चायुक्तवद्भाति तस्यायुक्तं च युक्तवत् ११० - जिस पदार्थ का प्रत्यक्षादि प्रमाणोंके द्वारा नयोके द्वारा या निक्षेपोंके द्वारा सूक्ष्म दृष्टिसे विचार नही किया जाता है, वह पदार्थ कभी युक्त होते हुए भी अयुक्त और कभी अयुक्त होते हुए भी युक्तकी तरह प्रतीत होता है | १० (प.२/१,२.१५/६१/१२६) (वि./१/२) ध.१/१.१.१/गा. (८-६६/११ गति पएहि विनं सुतं अत्यो का जिगर मदम्हि । तो णयवादे णिउणा मुणिणो सिद्धंतिया होंति । ६८| तुम्हा अहिंगय शुत्तेण अत्मसंपायहि अन्य गई निय यादहीना दुरहियम्मा ६६। जिनेन्द्र भगवान् के मतने नयवाद बिना सूत्र और अर्थ कुछ भी नहीं कहा गया है । इसलिए जो मुनि नयवादमें निपुण होते है वे सच्चे सिद्धान्तके ज्ञाता सम
ने चाहिए। अत जिसने सूत्र अर्थात् परमागमको भले प्रकार जान लिया है, उसे ही अर्थ संपादनमे अर्थात् नय और प्रमाणके द्वारा पदार्थका परिज्ञान करनेमें, प्रयत्न करना चाहिए, क्योंकि पार्थीका परिज्ञान भी नमवादरूपी जंगलमै अन्तर्निहित है अतएव दुरधिगम्य है |६|
क. पा. १/१३-१४/३१०६.८२/२११ स एष याधारम्योपलब्धिनिमियाभावनां श्रेयोऽपदेश | यह नय, पदार्थोंका जैसा स्वरूप है उस रूपसे उनके ग्रहण करनेमे निमित्त होनेसे मोक्षका कारण है । (ध. ६/४,१.४५/१६६ / ६)
ध.१/१,१,१/- ३ // नयैर्विना लोकव्यवहारानुपपत्तेर्न या उच्यन्ते । =नयोके बिना लोक व्यवहार नही चल सकता है। इसलिए यहॉपर नयोंका वर्णन करते हैं ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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