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सहन नहीं कर सकता और स्वादिष्ट भोजन मिलनेके निमित्त अपनी
महिमाका स्वयं बखान करता है, उसे सम्यक्त्वरहित जानो। कुरल काव्य/१६/२ शुभादशुभसंसक्तो नूनं निन्द्यस्ततोऽधिक । पुर' प्रियंवद' किंतु पृष्ठे निन्दापरायण ।। -सत्कर्मसे विमुख हो जाना
और कुकर्म करना निस्सन्देह बुरा है। परन्तु किसीके मुख पर तो हँसकर बोलना और पीठ-पीछे उसकी निन्दा करना उससे भी
बुरा है। त. सू./६/२५ परात्मनिन्दाप्रशंसे सदसद्गुणोच्छादनोद्भावने च नीचै
गोत्रस्य ।२३॥ = परनिन्दा, आत्मप्रशंसा, सद्गुणोका आच्छादन या ढंकना और असद्गुणोंका प्रगट करना ये मीच गोत्रके आस्रव हैं। स. सि./६/२२/३३७/४ एतदुभयमशुभनामकर्मासबकारण वेदितव्यं ।
च शब्देन...परनिन्दात्मप्रशंसादिः समुच्चीयते। = ये दोनों (योगवक्रता और विसंबाद) अशुभ नामकर्मके आस्रवके कारण जानने चाहिए। सूत्र में आये हुए 'च' पदसे दूसरेकी निन्दा और अपनी प्रशंसा करने आदिका समुच्चय होता है। अर्थात् इनसे भी अशुभ नामकर्म का आस्रव होता है । (रा.वा./६/२२/१/५२८/२१)। आ.अनु./२४६ स्वान् दोषान् हन्तुमुद्य क्तस्तपोभिरतिदुर्धरै. । तानेव पोषयत्यज्ञ' परदोषकथाशनैः १२४६। =जो साधु अतिशय दुष्कर तपोंके द्वारा अपने निज दोषोंके नष्ट करने में उद्यत है, बह अज्ञानतावश दूसरोंके दोषोंके कथनरूप भोजनोके द्वारा उन्हीं दोषोको पुष्ट
करता है। दे० कषाय/१/७ (परनिन्दा व आत्मप्रशसा करना तीन कषायीके चिह्न हैं।)
कम्मम्मि रया ते चत्ता मोक्खमग्गम्मि ७६। -जो अडज, रोमज आदि पाँच प्रकारके वस्त्रोमें आसक्त है, अर्थात उनमे से किसी प्रकारका वस्त्र ग्रहण करते हैं और परिग्रहके ग्रहण करने वाले है ( अर्थात श्वेताम्बर साधु), जो याचनाशील है, और अध' कर्मयुक्त
आहार करते हैं वे मोक्षमार्गसेच्युत है। आप्त. मी /७ त्वन्मतामृतबाह्यानां सर्वथैकान्तबादिनाम् । आप्ताभिमानदग्धाना स्वेष्टं दृष्टेन बाध्यते। आपके अनेकान्तमत रूप अमृतसे बाह्य सर्वथा एकान्तवादी तथा आप्तपनेके अभिमानसे दग्ध हुए (सांख्यादि मत ) अन्य मतावलम्बियोके द्वारा मान्य तत्त्व प्रत्यक्षप्रमाणसे बाधित है। द, पा./टी/२/३/१२ मिथ्यादृष्टयः किल बदन्ति व्रतः कि प्रयोजनं,...
मयूरपिच्छं किल रुचिर न भवति, सूत्रपिच्छं रुचिरं,.शासनदेवता न पूजनीयाः.. इत्यादि ये उत्सूत्रं मन्यते मिथ्यादृष्टयश्चार्वाका नास्तिकास्ते । यदि कदाग्रहं न मुञ्चन्ति तदा समर्थैरास्तिरुपानद्भिः थलिप्ताभिर्मुखे ताडनीयाः...तत्र पापं नास्ति। भा. पा./टी./१४१/२८७/३ लौंकास्तु पापिष्ठा मिथ्यादृष्टयो जिनस्नपनपूजनप्रतिबन्धकत्वात तेषां संभाषणं न कर्तव्यं तत्संभाषणं महापापमुत्पद्यते । मो. पा./टी./२/३०५/१२ ये गृहस्था अपि सन्तो मनागारमभावनामासाद्य वयं ध्यानिन इति ब्रवते ते जिनधर्म विराधका मिथ्यादृष्टयो ज्ञातव्याः ।"ते लोकाः, तन्नामग्रहणं तन्मुखदर्शनं प्रभातकाले न कर्तव्यं इष्टवस्तुभोजनादिविघ्नहेतुत्वात् । -१. मिथ्यादृष्टि (श्वेताम्बर व स्थानकवासी) ऐसा कहते हैं कि-व्रतोंसे क्या प्रयोजन, आत्मा ही साध्य है । मयूरपिच्छी रखना ठीक नहीं, सूतकी पिच्छी ही ठीक है, शासनदेवता पूजनीय नहीं है, आत्मा ही देव है। इत्यादि सूत्रविरुद्ध कहते हैं। वे मिध्याहृष्टि तथा चार्वाक मतावलम्बी नास्तिक हैं। यदि समझानेपर भी वे अपने कदाग्रहको न छोडे' तो समर्थ जो आस्तिक जन है वे विष्ठासे लिप्त जूता उनके मुख पर देकर मारें। इसमें उनको कोई भी पापका दोष नहीं है । २. लौका अर्थात् स्थानकवासी पापिष्ठ मिथ्यादृष्टि है, क्योंकि जिनेन्द्र भगवान के अभिषेक व पूजनका निषेध करते है। उनके साथ सम्भाषण करना योग्य नहीं है। क्योंकि उनके साथ संभाषण करनेसे महापाप उत्पन्न होता है। ३. जो गृहस्थ अर्थात् गृहस्थवत् वखादि धारी होते हुए भी किचित् मात्र आत्मभावनाको प्राप्त करके 'हम ध्यानी हैं' ऐसा कहते हैं, उन्हें जिनधर्मविराधक मिथ्यादृष्टि जानना चाहिए। वे स्थानकवासी या ढं ढियापंथी हैं। सवेरे-सवेरे उनका नाम लेना तथा उनका मुँह देखना नहीं चाहिए, क्योंकि ऐसा करनेसे इष्ट वस्तु भोजन आदिकी भी प्राप्तिमें विघ्न पड़ जाता है।
३. स्वनिन्दा और परप्रशंसाकी इष्टता त. सू./६/२६ तद्विपर्ययो नीचैवृत्त्यनुत्सेको चोत्तरस्य ।२६॥ स. सि./६/२६/३४०१७ का पुनरसौ विपर्ययः । आत्मनिन्दा परप्रशंसा सद्गुणोद्भावनमसद्गुणोच्छादन च । -उनका विपर्यय अर्थात परप्रशंसा आत्मनिन्दा सद्गुणोका उद्भावन और असद्गुणोंका उच्छादन तथा नम्रवृत्ति और अनुत्सेक ये उच्चगोत्रके आस्रव हैं। (रा.वा./६/
२६/२/५३१/१७)। का.अ./मू./११२ अप्पाणं जो णिदइ गुणवंताणं रेइ बहुमाणं । मण इंदियाण विजई स सरूवपरायणो होउ ३११२१ =जो मुनि अपने स्वरूपमें तत्पर होकर मन और इन्द्रियोंको वशमें करता है, अपनी निन्दा करता है और सम्यक्त्व वतादि गुणवन्तों की प्रशंसा करता है, उसके बहुत निर्जरा होती है। भा, पा./टी./48/२१३ पर उद्धृत-मा भवतु तस्य पापं परहितनिरतस्य पुरुषसिंहस्य । यस्य परदोषकथने जिह्वा मौनव्रत चरति । जो परहितमें निरत है और परके दोष कहने में जिसकी जिह्वा मौन व्रतका आचरण करती है, उस पुरुष सिंहके पाप नहीं होता। दे० उपगृहन ( अन्यके दोषोंका ढॉकना सम्यग्दर्शनका अंग है।) * सम्यग्दृष्टि सदा अपनी निन्दा गर्दा करता है
–दे० सम्यग्दृष्टि/५। ४. अन्य मतावलम्बियोंका घृणास्पद अपमान द. पा./म./१२ जे दंसणेसु भट्टा पाए पाडंति दसणधराण । ते होति
लल्लमूआ बोहि पुण दुल्लहा तेसि ।१२। -स्वयं दर्शन भ्रष्ट होकर भी जो अन्य दर्शनधारियों को अपने पॉवमे पडाते है अर्थात उनसे नमस्कारादि कराते हैं, ते परभवविष लुले व गंगे होते है अर्थात एकेन्द्रिय पर्यायको प्राप्त होते हैं । तिनको रत्नत्रयरूप बोधि दुर्लभ है। मो. पा./मू./७३ जे पंचचेलसत्ता ग्रंथग्गाही य जायणासीला । आधा-
५. अन्यमत मान्य देवी देवताओंकी निन्दा अ.ग.श्रा./४/६६-७६ हिंसादिबादकत्वेन न वेदो धर्मकाक्षिभिः। वृकोपदेशवन्नूनं प्रमाणीक्रियते बुधैः । न विरागा न सर्वज्ञा ब्रह्मविष्णुमहेश्वरा। रागद्वेषमदक्रोधलोभमोहादियोगत ७१। आश्लिष्टास्ते ऽखिलैर्दोषै। कामकोपभयादिभि । आयुधप्रमदाभूषाकमण्डत्वादियोगत ७३. =धर्मके वांछक पण्डितोंको, खारपटके उपदेशके समान, हिंसादिका उपदेश देनेवाले वेदको प्रमाण नहीं करना चाहिए।६। ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर न विरागी है और न सर्वज्ञ, क्योंकि वे राग-द्वेष, मद, क्रोध, लोभ, मोह इत्यादि सहित हैं ।७१। ब्रह्मादि देव काम क्रोध भय इत्यादि समस्त दोषोसे युक्त हैं, क्योंकि उनके पास आयुध स्त्री आभूषण कमण्डलु इत्यादि पाये जाते हैं ७३॥ दे० विनय/४ ( कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्रकी पूजा भक्ति आदिका निषेध । )
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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