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न्यायकणिका
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न्योन दशमी व्रत
न्याय चूलिका-श्री अकलंक भट्ट ( ई० ६४०-६८०) द्वारा संस्कृतं
गद्यमें रचा गया एक न्याय विषयक ग्रन्थ । न्याय दीपिका-आ.धर्मभ्रषण (ई० १३६०) द्वारा संस्कृत भाषामें
रचित तीन परिच्छेद प्रमाण न्याय विषयक ग्रन्थ । समय-ई.१३६०१४१८ । (तो /३/३५७) । न्याय भागमत समुच्चय-चन्द्रप्रभ काव्यके द्वितीय सर्गपर पं0 जयचन्द छाबड़ा (ई०१७६३-१८२६) द्वारा भाषामें रचित एक न्याय विषयक ग्रन्थ ।
न्याय विनिश्चय-आ. अकलंक भट्ट (ई०६२०-६८०) कृत यह न्यायविषयक ग्रन्थ है। आचार्य श्री ने इसे तीन प्रस्तावोंमें ४८० संस्कृत श्लोकों द्वारा रचकर स्वयं ही संस्कृतमे इसपर एक वृत्ति भी लिख दी है। इसके तीन प्रस्तावों में प्रत्यक्ष, अनुमान व प्रवचन ये तीन विषय निबद्ध है । इस ग्रन्थपर आ, वादिराज सूरि ( ई०१०१०१०६३) ने संस्कृत भाषामें एक विशद विवरण लिखा है।( सि.वि./प्र. ५८/५० महेन्द्र) (ती०/२/३०६) ।
द्वारा माना गया असाधनांग वचन और अदोषोभावन दोनोंका निग्रहस्थान कहना युक्त नहीं है। और इसी प्रकार नैयायिको द्वारा माने गये प्रतिज्ञाहानि आदिक निग्रहस्थानोंका उठाया जाना भी
समुचित नहीं है। न्या. वि./ /२/२१२/२४२/६ तत्र च्च सौगतोक्तं निग्रहस्थानम् । नापि नैयायिकपरिकल्पितं प्रतिज्ञाहान्यादिकमः तस्यासदूषणत्वात् । मा बौद्धों द्वारा मान्य निग्रहस्थान नहीं है। और न इसी प्रकार नैयायिकोंके द्वारा कल्पित प्रतिज्ञा-हानि आदि कोई निग्रहस्थान है। क्योंकि, वे सब असत् दूषण हैं। ५. स्व पक्षकी सिद्धि करनेपर ही स्व-परपक्षके गुणदोष कहना उचित है न्या. वि./वृ./२/२०८/पृ. २३५ पर उद्धृत-वादिनो गुणदोषाभ्यां स्याता जयपराजयौ । यदि साध्यप्रसिद्धौ च व्यपार्था. साधनादयः । रुिद्ध' हेतुमुद्भाव्य वादिनं जयतीतरः। आभासान्तरमुद्भाव्य पक्षसिद्धिमपेक्षते। =गुण और दोषसे वादोकी जय और पराजय होती है। यदि साध्यकी सिद्धि न हो तो साधन आदि व्यर्थ हैं। प्रतिवादी हेतुमें विरुद्धताका उद्भावन करके वादीको जीत लेता है किन्तु अन्य हेत्वाभासोका उद्भावन करके भो पक्षसिद्धिकी अपेक्षा करता है।
६. स्वपक्ष सिद्धि ही अन्यका निग्रहस्थान है न्या.वि././२/१३/२४३ पर उद्धृत-स्वपक्षसिद्धिरेकस्य निग्रहोऽन्यस्य वादिनः । एक की स्वपक्षकी सिद्धि ही अन्य वादीका निग्रहस्थान है। सि वि./मू./१/२०/३५४ पक्षं साधितवन्तं चेद्दोषमुभावयन्नपि । वैतण्डि
को निगृहीयान् वादन्यायो महानयम् ।२० = यदि न्यायवादी अपने पक्षको 'सिद्ध करता है और स्वपक्षकी स्थापना भी न करनेवाला वितण्डावादी दोषोंको उद्भावना करके उसका निग्रह करता है तो यह महान् वादन्याय है अर्थात् यह वादन्याय नहीं है वितण्डा है। * वस्तुकी सिद्धि स्याद्वाद द्वारा हो सम्मव है
-दे० स्याद्वाद न्यायाणका-श्वेताम्बर उपाध्याय श्री विनयविजय (ई०१६७७)
द्वारा संस्कृत भाषामें रचित एक ग्रन्थ । न्यायकूमूद चान्द्रका-श्री अकलंक भट्ट कृत लघो यस्त्रयपर
आ. प्रभाचन्द्र (ई०१५०-१०२०) द्वारा रचित टीका । इसमें ७ परिच्छेद हैं। (ती०/२/३०६)
न्यास-दे० निक्षेप।
न्यासापहार-स. सि./७/२६/३६६/१० हिरण्यादेद्रव्यस्य निक्षेप्तुविस्मृतसंख्यस्याल्पसंख्येयमाददानस्यैवमित्यनुज्ञावचनं न्यासापहारः। -धरोहरमें चॉदी आदिको रखनेवाला कोई उसकी संख्या भूलकर यदि उसे कमती देने लगा तो 'ठीक है' इस प्रकार स्वीकार करना न्यासापहार है । (रा. वा./७/२६/४/५५३/३३) (इसमें मायाचारीका दोष भी है) दे० माया/२ ।
न्यून-१. न्या. सू./मू./४/२/१२/३१५ हीनमन्यतमेनाप्यषयोन
न्यूनम् ।१२। -प्रतिज्ञा आदि पाँच अवयवोंमेंसे किसी एक अवयम्की होन वाक्य कहना न्यून नामक निग्रहस्थान है। (श्लो. वा. ४/१/३४ न्या./२२०/३६६/११ में इसका निराकरण किया गया है) २. गणितको व्यकलन विधिमें मूलराशिको ऋण राशिकर न्यून कहा जाता है
दे० गणित/II/१/४ । न्योन दशमी व्रत-न्योन दशमि दश दशमि कराय, नये नये दश पात्र जिमाय। (यह व्रत श्वेताम्बर व स्थानकवासी आम्नायमें प्रचलित है।) (वत विधान संग्रह/पृ. १३१)
इति द्वितीयो खण्डः
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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