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कर्ता
१. कर्ताकर्म सामान्य निर्देश
१ निश्चय कर्ताकारकका लक्षण व निर्देश |
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निय कर्मकारकका
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क्रिया सामान्यका
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कर्मकारक प्राप्य विकार्य आदि तीन भेदोंका
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२.
निश्चय कर्ता कर्म भाव निर्देश
१ निश्वपसे कर्ता कर्म व अधिकर हमें अमेद है।
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लक्षण व निर्देश
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आचार्यका कर्ता गुण।
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निश्चयसे कर्ताव करने मेद
-दे०प्रकुर्सी ।
निश्वपसे कर्ता कर्म व करवाने मेद है।
निश्चयसे वस्तुका परिणामी परिणाम सम्बन्ध ही उसका कर्ता कर्म भाव है ।
एक हो वस्तु कर्ता और कर्म दोनों बातें कैसे हो सकती हैं?
व्यवहार से भिन्न वस्तुओं में भी कर्ता कर्म व्यपदेश किया जाता है।
षट्- द्रव्योंमें परस्पर उपकार्य उपकारक भाव ।
१ वास्तबनें व्याप्यव्यापकरूप ही कर्ता कर्म भाव अध्यात्ममें रह है।
निवसे प्रत्येक पदार्थ अपने ही परिणामका कर्ता है दूसरेका नहीं ।
एक दूसरेके परिणामका कर्ता नहीं हो सकता निमित्त न दूसरेको अपने रूप परिचमन करा सकता है, न स्वय दूसरे रूपसे परियमन कर सकता है, न किसी में अनहोनी शक्ति उत्पन्न कर सकता है बल्कि निमित्त सद्भावमें उपादानस्य परियमन करता है । -दे० कारण II /१ 1 एक द्रव्य दूसरेको निमित्त हो सकता है पर कर्ता नहीं।
- दे० कारण / III १
- दे० द्रव्य /३१
षट् द्रव्यों में कर्ता कर्ता विभाग । मिश्रय व्यवहार कर्ताकर्मभावकी कथंचित् सत्यार्थता असत्यार्थता ।
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निमित्तनैमिचिक भाग ही कर्ताकर्म भाग है -३० कारण /11/९/४ निमित्त भी द्रम्यरूपले कर्ता है दो नहीं, पर्याय रूपसे हो तो हो ।
निमित्त किसीके परिणामोंके उत्पादक नहीं होते। स्वयं परिणामने वाले द्रव्यको निमित्त बेचारा क्या परिणमावे |
एकको दूसरेका कर्ता कहना उपचार वा व्यवहार है परमार्थ नहीं
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१. कर्ता व कर्म सामान्य निर्देश
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पकको दूसरेका कर्ता कहना लोकप्रसिद्ध रूढ़ि है । वास्तवमें एकको दूसरेका कर्ता कहना असत्य है । ११ एकको दूसरेका कर्ता माननेमें अनेक दोष भाते हैं। १२ २कको दूसरेका कर्ता माने सो महानी है।
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एकको दूसरेका कर्ता माने सो मिथ्यादृष्टि है । एकको दूसरेका कर्ता माने सो अन्यमती है। एकको दूसरेका कर्ता माने तो सर्व के मत से बाहर
है ।
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निश्चय व्यवहार कर्ता कर्मभावका समन्वय
१ व्यवहारसे ही निमित्तको कर्ता कहा जाता है निश्चय से नहीं ।
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व्यवहारसे ही कर्ता व कर्म भिन्न दिखते हैं, निश्चयसे दोनों अभिन्न हैं ।
निश्चयसे अपने परिणामोंका कर्ता है पर निमित्तकी अपेक्षा पर पदार्थोंका भी कहा जाता है।
भिन्न कर्ता कर्मभाव निषेधका कारण । भिन्न ककर्ममा निषेधका प्रयोजन।
भिन्न कर्ता कर्म व्यपदेशका कारण । भिन्न कर्ता कर्म व्यपदेशका प्रयोजन । कर्ता कर्मभाव निर्देशका नया व मतार्थ । जीव ज्ञान व कर्म चेतना के कारण ही अकर्ता या कर्ता होता है। -३० चेतना/३।
१. कर्ता व कर्म सामान्य निर्देश
= जो परिणमन करता है,
१. माय कर्ता कारक निर्देश स.सा./आ./८६/क.५१ य. परिणमति स कर्ता । वही अपने परिणमनका कर्ता होता है। प्र.सा.प्र./१८४ स्वतन्त्रः कुर्यास्तस्य कर्ताऽवश्यं स्वाद । = वह ( आत्मा ) उसको ( स्वभावको ) स्वतन्त्रतया करता हुआ उसका कर्ता अवश्य है । प्र.सा./ता.वृ./१६ अभिकारकचिदानन्दस्वभावेन स्वतन्त्रवाद भवति । - अभिन्नकारक भावको प्राप्त चिदानन्द रूप चैतन्य स्वस्वभावके द्वारा स्वतंत्र होनेसे अपने आनन्दका कर्ता होता है।
२. निश्चय कर्मकारक निर्देश
स.सि./६/१/३१८/४ कर्म क्रिया इत्यनर्थान्तरम् । कर्म और क्रिया ये एकार्थवाची नाम हैं।
रा.मा./६/९/४/०४/२६ कर्तुः क्रियया अल्युमितमं कर्मकर्ताको क्रिया द्वारा जो प्राप्त करने योग्य इष्ट होता है उसे कर्म कहते हैं । (स. सा./१रि/शक्ति नं. ४९) ।
भ आ./वि./२०/०९/२ कर्तु क्रियाया व्याप्यत्वेन विवक्षितमपि कर्म यथा कर्मणि द्वितीयेति तथा क्रिया वचनोऽपि अस्ति किं कर्म करोषि । at क्रियामित्यर्थः । इह क्रियावाची गृहीत कर्ताकी होनेवाली क्रिया के द्वारा जो व्याप्त होता है, उसको कर्मकारक कहते है। कर्म की व्याकरण शास्त्र में द्वितीया (विभक्ति) होती है । जैसे
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