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जिनमुद्रा
जिनमुद्रा — दे० मुद्रा |
जिनयज्ञ कल्प दे० पूजा पाठ
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जिनरात्रि व्रत १४ वर्षपर्यन्त प्रत्येक वर्ष फाल्गुन कृ. १४ को उपवास करे। रात्रिको जागरण करे। पहर पहर में जिनदर्शन करे । नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे। (वर्द्धमान पुराण), (व्रतविधान संग्रह / पृ.११) ।
जिनरूपता क्रिया०क्रम/३ |
जिनवर वृषभ
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प्र. सा./ता.वृ/२०१/२०१ / ११ सासादनादिक्षीणकायान्ता एकदेश जिना उच्यन्ते, पोषाधानगारकेवसिनो जिनदरा भव्यन्ते तीर्थंकरपरमदेवाश्च जिनवरवृषभा ॥ सासादनादि क्षीणकषायपर्यन्त एकदेश जिन कहलाते है, शेष अनगार केवली अर्थात् सामान्य केली जिनवर तथा तीर्थंकर परमदेव जिनवर वृषभ कहलाते हैं । .सं./टी./१/५/१० एकदेशजिना असंयतसम्यग्दृष्टपादयस्तेषां नराः गणधर देवास्तेषां जिनवराणां वृषभ प्रधानो जिनवरवृषभस्तीथ कर परमदेवः । = असंयत सम्यग्दृष्टि आदि एकदेश जिन हैं। उनमें जो वर श्रेष्ठ हैं वे जिनवर यानी गणधरदेव हैं । उन जिनवरोंमें भी जो प्रधान हैं, वे जिनवरवृषभ अर्थात् तीर्थंकर परमदेव है।
जिनसंहिता - आ. देवसेन कृत दर्शनसारकी भाषा बच निका । जिन सहस्रनाम दे० म.पू./२५/१००-२१७ जिनसागर
देवेन्द्र कीति के शिष्य कृतियें जीवन्दर पुरान जिन कथा पद्यावती कथा आदि । वि. १७८१-१८०१ । (ती./३/४४६) । जिनसेन
१. पुन्नाटसंघकी गुर्वावली के अनुसार आप आ. भीमसेनके शिष्य तथा शान्तिसेनके गुरु थे। समय ई. श. ७ का अन्त - दे० इतिहास /७/०५ २. पुन्नाट संघकी गुर्वावली के अनुसार आप श्री कीर्तिषेणके शिष्य थे। कृति--हरिवंश पुराण । समय-ग्रन्थ का रचनाकाल शक सं० ७०५ (ई ७८३) । अत लगभग ई. ७४८-८१८ । (तो. / ३/३) । (दे० इतिहास / ७ / ८) ३. पंचस्तु स वीरसेन स्वामी के शिष्य आगर्भ दिगम्बर। कृतियें - अपने गुरु की २०००० श्लोक प्रमाण अधूरी जयधवला टीका को ४०००० श्लोक प्रमाण अपनी टीका द्वारा पूरा किया। इनकी स्वतन्त्र रचना है आदि पुराण जिसे इनके शिष्य गुणभद्र ने उत्तर पुराण रचकर पूरा किया। इसके अतिरिक्त पावभ्युदय तथा बर्द्धमान पुराण । समय- जयधवला का समाप्तिकाल शक सं, ७५६ । उत्तर पुराण का समाप्तिकाल शक सं. ८२० । अतः शक सं. ७४०-८०० (ई ८१८८७८) । (ती./ २ / ३३१-३४०) । (दे० इतिहास / ०/०) ४. भट्टारक महा कीर्ति के शिष्य कृतिनेमिनाथ रास । ग्रन्थ रचना काल बि. १५५८ (ई. १५०१) (ती./३/ ३८६) । ५. सेनसंघी सोमसेन भट्टारक के शिष्य । समय- शक १५७७ - १५८०, १५८१ में मुर्तियें प्रतिष्ठित कराई। अतः शक सं १५००-१५०५ (१० १४११-१६२८) (ती /३/३०६) (दे इति ०/६) जिनस्तुति शतक १. आ. समन्तभद्र (ई.स. २) कृत संस्कृत / छन्दबद्ध एक ललित स्तोत्र जिसमें १०० श्लोकों द्वारा जिनेन्द्र भगबाका स्तवन किया गया है । २. आ. वसुनन्दि (ई. १०४३ - १०५३) द्वारा भी एक 'जिन शतक' नामक स्तोत्रकी रचना हुई थी। जिनेंद्र बुद्धि
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बुद्धि - आ. पूज्यपादका अपर नाम - दे० !
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पूज्यपाद
३३०
जीव
जिवानी -जलको छानकर उसके गालितशेषको तिस ही जलाशय में पहुँचाना। विशेष दे० जलगालन / २ ।
जिह्वा-१. दूसरे नरकका ज्यों पट ३० मर/५/११/२, रसना
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इन्द्रिय- दे० रसना ।
जिह्निक-१.
१. दूसरे नरकका टवॉ पटल- दे० नरक / ५ /११ / २. गंगा नदीका वृषभाकार कूट- दे० वृषभ । जीत-शास्त्रार्थमे जीत-हार सम्बन्धी ० न्याय/२ जीरापल्ली पार्श्वनाथ स्तोत्र --- दे. जरापल्ली । जीवंधर (म.पु./०३/पलो. नं.) राजा सत्यन्धरका पुत्र था। हम
ज्ञानमें जन्म हुआ था, गन्धोत्कट सेठ अपने मृत पुत्रको छोडकर वहाँ से इनको उठा लाया । आ. आर्यवर्मासे शिक्षा प्राप्त की । अनेकों कन्याओको स्वयंवरोंमें जीता २२८ ॥ पिताके घातक मन्त्री काष्ठांगारको मारकर राज्य प्राप्त किया । ६६६। अन्तमे दीक्षाधार (६७६६०२) मोक्ष सिधारे (४०-१००) पूर्व भय नं. २ में आप पुण्डरीकिणी नगरीके राजा जयन्धरके 'जयद्रथ' नामके पुत्र थे। इन्होने एक हंसके बच्चेको आकाशसे पकड़ लिया था तथा उसके पिता ( हंस ) को मार दिया था। उसीके फलस्वरूप इस भवमे जन्मते ही इनका पिता मारा गया, तथा १६ वर्ष तक माता से पृथक् रहना पड़ा । ५३४२४२३- तहाँसे चयकर पूर्वभव नं. १ मे महार स्वर्गदेन हुए १५४२-२४४। और वर्तमान भवने जीवेन्धर हुए ।
जीवंधर चंपू उपरो जीवन्धर स्वामी के चरित्रको वर्णन करने वाले कई प्रन्थ है आ.वादीमसिंह सूरि नं. २ (ई.७७०-६०) द्वारा रचित गणचूड़ामणि तथा छत्रचूडामणिके आधारपर कवि हरिचन्द ( ई. श १० का मध्य ) ने जीवन्धर चम्पूकी रचना की। इसमें संस्कृतका काव्य सौन्दर्य कूट-कूटकर भरा हुआ है। इसमे ११ आश्वास है तथा ८०४ श्लोक प्रमाण हैं । इतना ही गद्यभाग भी है । (ती०/४/२० ) ।
जीवंधर चरित्र- १. कवि रश्धू (ई. १४३६) कृत अपभ्र श काव्य ग्रन्थ । २. आ. शुभचन्द्र (ई. १५४६ ) कृत संस्कृत छन्द - बद्ध ग्रन्थ । (ती /४/३६७) ।
जीवंधर पुराण -आ. जिनसागर (ई. १७३० ) की एक रचना । जीवंधर शतपदी - आ. कोटेश्वर (ई. १५००) की एक रचना । जीव-संसार या मोक्ष दोनोंमें जीव प्रधान तत्त्व है । यद्यपि ज्ञानदर्शन स्वभावी होनेके कारण वह आत्मा ही है फिर भी संसारी दशामें प्राण धारण करनेसे जीव कहलाता है। वह अनन्तगुणों का स्वामी एक प्रकाशात्मक अमूर्तीक सत्ताधारी पदार्थ है, कल्पना मात्र नहीं है, न ही पंचोंके मिश्रण उत्पन्न होनेवाला कोई संयोगी पदार्थ है संसारी दशा में शरीरमें रहते हुए भी शरीरसे पृथक लौकिक विषयोंको करता व भोगता हुआ भी वह उनका केवल ज्ञाता है। वह यद्यपि लोकप्रमाण असंख्यात प्रदेशी है परन्तु संकोपविस्तार शक्तिके कारण शरीरप्रमाण होकर रहता है। कोई एक ही सर्वव्यापक जीव हो ऐसा जैन दर्शन नहीं मानता। वे अनन्तानन्त हैं । उनमें से जो भी साधना विशेषके द्वारा कर्मों व संस्कारों का क्षय कर देता है वह सदा अतीन्द्रिय आनन्दका भोक्ता परमात्मा बन जाता है । तब वह विकल्पोंसे सर्वथा शून्य हो केवल ज्ञाता द्रष्टाभाव में स्थिति पाता है। जैनदर्शनमें उसीको ईश्वर या भगवान् स्वीकार किया है उससे पृथक किसी एक ईश्वरको वह नहीं
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मानता ।
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