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कषाय पाहुड
कांडक
का. अ./टी./१७६/११५/१६ तीवकषायोदयान्मूलशरीरमत्यक्त्वा परस्य घातार्थमात्मप्रदेशाना बहिनिर्गमनं संग्रामे सुभटाना रक्तलोचनादिभि' प्रत्यक्षदृश्यमानमिति कषायसमुद्घातः । =तीव कषायके उदयसे मूलशरीरको न छोड़कर परस्परमें एक दूसरेका घात करनेके लिए आत्मप्रदेशोंके बाहर निकलनेको कषाय-समुद्धात कहते हैं। संग्राममें योद्धा लोग क्रोधमें आकर लाल लाल आँखें करके अपने शत्रुको ताकते है' यह प्रत्यक्ष देखा जाता है । यही कषायसमुइघातका रूप है। कषाय पाहड-यह ग्रन्थ मूल सिद्धान्त ग्रन्थ है जिसे आ० गुणधर (वि०पू००१) ने ज्ञान विच्छेदके भयसे पहले केवल १८० गाथाओं में निबद्ध किया था। आचार्य परम्परासे उसके ज्ञानको प्राप्त करके आचार्य आर्यमंच व नागहस्तिने ई०१३-१६२ में पीछे इसे २१५ गाथा प्रमाण कर दिया। उनके सान्निध्य में ही ज्ञान प्राप्त करके यतिवृषभाचार्यने ई० १५०-१८० में इसको १५ अधिकारोंमें विभाजित करके इसपर ६००० चूर्ण सूत्रों की रचना की। इन्हीं चूर्णसूत्रों के आधारसर उच्चारणाचार्य ने विस्तृत उच्चारणा लिखी। इसी उच्चारणाके आधारपर आ० बप्पदेवने ई० २०५५ में एक और भी सक्षिप्त उच्चारणा लिखी। इन्हीं आचार्य बप्पदेवसे सिद्धान्तज्ञान प्राप्त करके पीछे ई ई० ८१६ में आ० वीरसेन स्वामीने इसपर २०,००० श्लोक प्रमाण जयधवला नामकी अधूरी टीका लिखी, जिसे उनके पश्चात उनके शिष्य श्री जिनसेनाचार्य ने ई० ८३७ में १०,००० श्लोक प्रमाण और भी रचना करके पूरी की। इस ग्रन्थपर उपरोक्त प्रकार अनेकों टीकाएँ लिखी गयीं। आचार्य नागहस्ती द्वारा रची गयी ३५ गाथाओंके सम्बन्धमें आचार्योंकाकुछ मतभेद है यथा
२.३५ गाथाओंके रचयिता सम्बन्धी दृष्टि भेद क. पा. १/१,१३/१४७-१४८/१८३/२ संकमम्मि वृत्तपणतीसवित्ति- गाहाओ बंधगत्थायिारपडिबद्धालो त्ति असीदिसदगाहासु पवेसिय किण्ण पइज्जा कदा । वुच्चदे, एदाओ पणतीसगाहाओ तीहि गाहाहि परूविदपंचसु अत्थाहियारेसु तत्थ बंधगोत्थि अत्थाहियारे पडि मद्धाओ। अहवा अत्थावत्तिलभाओ त्ति ण तत्थ एदाओ पवेसिय बुत्ताओ। असीदि-सदगाहाओ मोत्तूण अवसेससंबंधद्धापरिमाणणिदेस-संकमणगाहाओ जेण णागहत्थि आइरियकयाओ तेण 'गाहासदे असीदे' त्ति भणिदूण णागहत्थि आइरिएण पइज्जा कदा इदि के वि वक्रवाणाइरिया भणं ति; तण्ण धडदे; संबंधगाहाहि अद्धापरिमाणणि सगाहाहि संकमगाहाहि य विणा असीदिसदगाहाओ चेव भणं तस्स गुणहरभडारयस्स अयाणत्तप्पसंगादो। तम्हा पुठवुत्थो चैव घेत्तव्यो । प्रश्न-संक्रमण में कही गयीं पैंतीस वृत्तिगाथाएँ बन्धक नामक अधिकारसे प्रतिबद्ध हैं, इसलिए इन्हें १८० गाथाओं में सम्मिलित करके प्रतिज्ञा क्यों नहीं की ! अदि १८० के स्थानपर २१५ गाथाओंकी प्रतिज्ञा क्यों नहीं की। उत्तर-ये पैंतीस गाथाएँ तीन गाथाओके द्वारा प्ररूपित किये गये पाँच अर्थाधिकारों में से बन्धक नामके ही अर्थाधिकार में प्रतिबद्ध हैं, इसलिए इन 34 गाथाओं को १८० गाथाओमें सम्मिलित नहीं किया, क्योंकि तीन गाथाओंके द्वारा प्ररूपित अर्थाधिकारोंमें से एक अर्थाधिकारमें ही वे ३५ गाभाएँ प्रतिबद्ध हैं। अथवा यह बात अर्थापत्तिसे ज्ञात हो जाती है कि ये ३५ गाथाएँ बन्धक अधिकारमें प्रतिबद्ध हैं। ___ 'चूं कि १८० गाथाओंको छोडकर सम्बन्ध अद्धापरिमाण और संक्रमणको निर्देश करनेवाली शेष गाथाएँ नागहस्ति आचार्यने रची हैं। इसलिए गाहासदे असीदे' ऐसा कहकर नागहस्ति आचार्यने १८० गाथाओंकी प्रतिज्ञा को है, ऐसा कुछ व्याख्यानाचार्य कहते हैं, परन्तु उनका ऐसा कहना घटित नहीं होता है, क्योंकि सम्बन्ध गाथाओं, अद्धापरिमाणका निर्देश करनेवाली गाथाओं और संक्रम गाथाओके
बिना १८० गाथाएँ ही गुणधर भट्टारकने कही हैं। यदि ऐसा माना जाय तो गुणधर भट्टारकको अज्ञपनेका प्रसंग प्राप्त होता है। इसलिए पूर्वोक्त अर्थ ही ग्रहण करना चाहिए। (विशेष दे० परिशिष्ट २) कषायपाहुड चूर्णि-दे० परिशिष्ट/१॥ कहाण छप्पय-आ. विनयचन्द्र (ई० श० १३) की एक प्राकृत
छन्दबद्ध रचना। कांक्षा-दे० निकाक्षित। कांचनकूट-१.रुचक पर्वतका एक कूट-दे० लोक५/१३२.मेरु पर्वत
के सौमनस बनमें स्थित एक कूट-दे० लोक/४ ३. शिखरी पर्वतका एक कूट-दे० लोक/५१४ कांचन गिरि-विदेहके उत्तरकुरु व देवकुरुमें सीता व सीतोदा
नदीके दोनों तटोंपर पचास-पचास अथवा नदीके भीतर स्थित दसदस द्रहोंके दोनों ओर पाँच-पाँच करके, कंचन वर्णवाले कुटाकार सौ-सौ पर्वत हैं। अर्थात देवकुरु व उत्तरकुरुमें पृथक्-पृथक् सौ-सौ है।-दे० लोक/३/८। कांचन देव-शिखरी पर्वतके कांचनकूटका रक्षक देव । दे० लोक//Y कांचन द्वीप--मध्यलोकके अन्तमें नवमद्वीप-दे० लोक/१/१। कांचनपुर-१. विजया की उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर।
२. कलिंग देशका एक नगर-दे० मनुष्य/४। कांचन सागर-मध्य लोकका नवम सागर-दे० लोका। कांचीपुर-वर्तमान कांजीवरम् (यु. अनु०/प्र. ३६/पं. जुगल
किशोर)। कांजी-आहार-केवल भात व जल मिलाकर पीना, अथवा केवल
चावलोंकी मांड़ पीना। (व्रत विधान संग्रह/पृ. २६ ) । कांजी बारस व्रत-प्रतिवर्ष भाद्रपद शु. १२ को उपवास करना ।
नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप्य । कांडक-१. काण्डक काण्डकायाम व फालिके लक्षण क. पा.५/४,२२/१५७१/३३४/४ "किं कडयं णाम। सचिअंगूलस्स असंखे० भागो। तस्स को पडिभागो । तप्पाओग्गअसंखरूवाणि।" -प्रश्न-काण्डक किसे कहते हैं। उत्तर-सच्यंगुलके असंख्यातवें भागको काण्डक कहते है। प्रश्न-उसका प्रतिभाग क्या है ? उत्तरउसके योग्य असंख्यात उसका प्रतिभाग है। (तात्पर्य यह कि अनुभाग वृद्धियोंमें अनन्त भाग वृद्धिके इतने स्थान ऊपर जाकर असंख्यात भाग वृद्धि होने लग जाती है।) ल सा./भाषा/८९/११६/१६ इहाँ ( अनुभाग काण्डकघातके प्रकरणमें )
समय समय प्रति जो द्रव्य ग्रह्या ताका तो नाम फालि है । ऐसे अन्तमहर्तकरि जो कार्य कीया ताका नाम काण्डक है। तिस काण्डक करि जिन स्पर्धकनिका अभाव कीया सो काण्डकायाम है । ( अर्थात अन्तर्मुहर्त पर्यंत जितनी फालियोंका घात किया उनका समूह एक काण्डक कहलाता है। इसी प्रकार दूसरे अन्तर्मुहूर्त में जितनी फालियोंका धात कीया उनका समूह द्वितीय काण्डक कहलाता है। इस प्रकार आगे भी, घात क्रमके अन्त पर्यन्त तीसरा आदि काण्डक जानने।) ल सा /भाषा/१३३/१८३/८ स्थितिकाण्डकायाम मात्र निषेकनिका जो द्रव्य ताकौ काण्डक द्रव्य कहिये, ताकौं इहाँ अध,प्रवृत्त (संक्रमणके भागाहार ) का भाग दिये जो प्रमाण आया ताका नाम फालि है (विशेष देखी अपकर्षण/४/१)
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
भा० २-६
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