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कांबोज
काम तत्त्व
२. काण्डकोत्करण काल ल. सा./जी.प्र./०६/११४ एकस्थितिखण्डोत्करण स्थितिबन्धापसरणकालस्य संख्यातकभागमात्रोऽनुभागवण्डोत्करणकाल इत्यर्थः । अनेनानुभागकाण्डकोत्करणकालप्रमाणमुक्तम्।-जाकरि एक बार स्थिति घटाइये सो स्थिति काण्डकोत्करणकाल अर जाकरि एक बार स्थिति बन्ध घटाहये सो स्थिति बन्धापसरण काल ए दोऊ समान हैं, अन्तर्मुहूर्त मात्र हैं। बहुरि तिस एक विधें जाकरि अनुभाग सत्त्व घटाइये ऐसा अनुभाग खण्डोत्करण काल संख्यात हजार हो है, जात तिसकालै अनुभाग खण्डोरकरणका यहु काल संख्यातवें भागमात्र है।
कान्यकुब्ज-कुरुक्षेत्र देश में स्थित वर्तमान कन्नौज-(म.पु./प्र.४४
पं. पन्नालाल) कापिष्ठ-आठवाँ कल्पस्वर्ग-दे० स्वर्ग/१२। कापोत-अशुभलेश्या-दे० लेश्या। काम-1. काम व काम तत्त्वके लक्षण न्या.द./४-१/३ में न्यायवार्तिकसे उद्धृत/पृ.२३० कामः स्त्रीगतोऽभि
लाषः । = स्त्री-पुरुषके परस्पर संयोगकी अभिलाषा काम है। ज्ञा./२१/१६/२२७/१५ क्षोभणादिमुद्राविशेषशाली सकलजगद्वशीकरणसमर्थः-इति चिन्त्यते तदायमात्मैव कामोक्तिविषयतामनुभवतीति कामतत्त्वम् । =क्षोभण कहिए चित्तके चलने आदि मुद्राविशेषोमें शाली कहिए चतुर है, अर्थात समस्त जगतके चित्तको चलायमान करनेवाले आकारों को प्रगट करनेवाला है। इस प्रकार समस्त जगत्को वशीभूत करनेवाले कामकी कल्पना करके अन्यमती जो ध्यान करते हैं, सो यह आत्मा ही कामकी उक्ति कहिये नाम व संज्ञाको धारण करनेवाला है । (ध्यानके प्रकरणमें यह कामतत्त्वका वर्णन है)। स सा./ता.वृ/४ कामशब्देन स्पर्शरसनेन्द्रियद्वयं । = काम शब्दसे स्पर्शन व रसना इन दो इन्द्रियोंके विषय जानना ।
२. काम व भोगमें अन्तर
मू.आ./मू./११३८ कामा दुवे तऊ भोग ईदयस्था विद्रहि पण्णत्ता। कामो रसो य फासो सेसा भोगेति आहीया ११३८ =दो इन्द्रियोके विषय काम हैं, तीन इन्द्रियों के विषय भोग हैं, ऐसा विद्वानों ने कहा है। रस और स्पर्श तो काम हैं और गन्ध, रूप व शब्द ये तीन भोग है, ऐसा कहा है । ( स. सा./ता. वृ./११३८)
३. अन्य सम्बन्धित विषय * निर्वर्गणा काण्डक-दे० करण/४ । * आबाधा काण्डक-दे० आबाधा। * स्थिति व अनुमाग काण्डक-दे० अपकर्षण/४। ४. क्रोध, मान आदिके काण्डक क्ष. सा./भाषा/४७४/५५८/१६ क्रोधद्विक अवशेष कहिए क्रोधके स्पर्ध
कनिका प्रमाणको मानके स्पर्धकनिका प्रमाणविष घटाएँ जो अवशेष रहै ताका भाग क्रोधकै स्पर्धकनिका प्रमाणको दीए जो प्रमाण आवै ताका नाम क्रोध काण्डक है। बहुरि मानत्रिक विषै एक एक अधिक है। सो क्रोध काण्डकतै एक अधिकका नाम मान काण्डक है । यातै एक अधिकका नाम माया काण्डक है। यात एक अधिकका नाम लोभ काण्डक है। अंकसं दृष्टिकरि जैसे क्रोधके स्पर्धक १८, ते मानके २१ स्पर्धकनि विषै घटाएँ अवशेष ३, ताका भाग क्रोधके १८ स्पर्धकनिको दीएँ क्रोध कांडकका प्रमाण छह । यात एक एक अधिक मान, माया, लोभके काण्डकनिका प्रमाण क्रमते ७, ८, ९ रूप जानने । कांबोज-१, भरत क्षेत्र उत्तर आर्य खण्डका एक देश-दे० मनुष्य/
४ । २. वर्तमान बलोचिस्तान (म. पु./प्र.५०/पं. पन्नालाल) काकतालीय न्यायद्र.सं./टी./३/१४४/१ परं परं दुर्लभेषु कथंचित्काकतालीयन्यायेन लब्धेष्वपि...परमसमाधिदुर्लभः । - एकेन्द्रियादिसे लेकर अधिक अधिक दुर्लभ बातोंको काकताली न्यायसे अर्थात् बिना पुरुषार्थ के स्वत. ही प्राप्त कर भी ले तो भी परम समाधि अत्यन्त दुर्लभ है। मो.मा.प्र./३/८०/१५ बहुरि काकतानीय न्यायकरि भवितव्य ऐसा ही
होय और तातै कार्यकी सिद्धि भी हो जाय।। काकावलोकन-कायोत्सर्गका अतिचार-दे० व्युत्सर्ग/१। काकिणी-चक्रवर्तीके चौदह रत्नों में से एक -दे० शलाका पुरुष/२। कास्थ चारित्र-आ. वादिराज (ई. १०००-१०४०) द्वारा रचित
संस्कृत छन्दबद्ध ग्रन्थ । काक्षी-भरतक्षेत्र पश्चिम आर्य खण्डका एक देश -दे० मनुष्य/४। कागंधुनी-भरतक्षेत्र आर्यरखण्डकी एक नदी-दे० मनुष्य/४ । काणोविद्ध-एक क्रियावादी। काह-महायान सम्प्रदायका एक गूढवादी बौद्र समय-डॉ. शाही
दुल्लाके अनुसार ई. ७००; और डॉ० एस. के. चटर्जी के अनुसार ई.
श. १२ का अन्त । (प.प्र./प्र.१०३/A.N.up.) कानना-रुचक पर्वत निवासिनी एक दिक्कुमारी देवी -दे०
लोक/९/१३ ।
३. कामके दस विकार भ.आ./मू./८६३-८६५ पढमे सोयदि वेगे दटतं इच्छदे विदियवेगे। णिस्सदि तदियवेगे आरोहदि जरो चउत्थम्मि ।३। उज्झदि पंचमवेगे अंग छठे ण रोचदे भत्तं । मुच्छिज्जदि सत्तमए उम्मत्तो होइ अट्ठमए १८६४। णवमे ण किंचि जाणदि दसमे पाणेहि मुच्चदि मदंधो। संकप्पब सेण पुणो वेग्ग तिव्वा व मंदा वा १ = कामके उद्दीप्त होनेपर प्रथम चिन्ता होती है; २. तत्पश्चात् खीको देखनेकी इच्छा; और इसी प्रकार क्रमसे ३. दीर्घ नि.श्वास, ४, ज्वर,.. शरीरका दग्ध होने लगना; ६. भोजन न रुचना; ७. महामूच्छी; ८, उन्मत्तवत चेष्टा; ६ प्राणों में सन्देह; १०. अन्तमें मरण । इस प्रकार कामके ये दश वेग होते हैं। इनसे व्याप्त हुआ जीव यथार्थ तत्त्वको नहीं देखता । (ज्ञा./११/२६-३१), (भा.पा /टी./६८/२४६/पर उधृत), (अन.ध/४/६६/३६३ पर उद्धृ त), (ला.सं./२/११४-१२७) काम तत्त्वज्ञा./२१/१६ सकलजगच्चमत्कारिकार्मुकास्पदनिवेशितमण्डलीकृतरसेक्षुकाण्डस्वरसहितकुसुमसायकविधिलक्ष्यीकृत.. स्फुरन्मकरके तुः। कमनीयसकलललनावृन्दवन्दितसौन्दर्यरतिकेलिकलापदुर्ललितचेताश्चतुरश्चेष्टितभ्रूभङ्गमात्रवशीकृतजगत्त्रयस्त्रैणसाधने .. स्त्रीपुरुषभेद भिन्नसमस्तसत्त्वपरस्परमन संघटनसूत्रधारः। ...संगीतकप्रियेण.. स्वर्गापवर्गद्वारसंविघटनवज्रार्गल'।...क्षोभणादिमुद्राविशेषशाली। सकलजगद्वशीकरणसमर्थ' इति...कामतत्त्वम् । =सकल जगत् चमत्कारी, खींचकर कुण्डलाकार किये हुए इक्षुकाण्डके धनुष व उन्मादन, मोहन, संतापन, शोषण और मारणरूप पाँच बाणोसे निशाना बाँध रखा है जिसने, स्फुरायमान मकरकी ध्वजावाला, कमनीय स्त्रियों के समूह द्वारा बन्दित है सुन्दरता जिसकी ऐसी रति नामा स्वीके साथ केलि करता हुआ, चतुरोंकी चेष्टारूप भूभंगमात्रसे वशीकृत क्यिा स्त्रियों
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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