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काय
२०५) (पं.सं./ प्रा./१/७५), (ध. १/१,१,४/८६/१३६), (गो.
जी./मू./१८१/४१४), (द्र. सं./टी./१३/३७/६)। २. अकाय मागणाका लक्षण 4.सं./प्रा./१/८७ जह कंचणमग्गियं मुच्चइ क्?िण कलियाराय । तह
कायबंधमुका अकाट्टया माणजोएण 1८७१ - जिस प्रकार अग्निमें दिया गया सुवर्ण किट्टिका ( बहिरंगमल ) और कालिमा ( अन्तरग मल) इन दोनों प्रकारके मलोसे रहित हो जाता है उसी प्रकार ध्यानके योगसे शुद्ध हुए और कायके बन्धनसे मुक्त हुए जीव अकायिक जानना चाहिए। (ध. १/१,१,३६/ १४४/२६६); (गो, जी./५/२०३/४४६)। ३. बहप्रदेशी भी सिद्ध जीव अकाय कैसे हैं घ./१/१,१.४६/२७७/६ जीवप्रदेशप्रचयात्मकरवारिसद्धा अपि सकाया इति चेन्न, तेषामनादिबन्धनबद्धजीवप्रदेशात्मकत्वात् । अनादिप्रचयोऽपि काय' किन्न स्यादिति चेन्न, मूर्तानां पुद्गलानां कर्मनोकर्मपर्यायपरिणतानां सादिसान्तप्रचयस्य कायस्वाभ्युपगमाद । -प्रश्न-जीव प्रदेशोंके प्रचयरूप होनेके कारण सिद्ध जीव भी सकाय है, फिर उन्हें अकाय क्यों कहा ! उत्तर-नहीं, क्योंकि सिद्ध जीव अनादिकालीन स्वाभाविक बन्धनसे बद्ध जीव प्रदेशस्वरूप हैं, इसलिए उसकी अपेक्षा यहाँ कायपना नहीं लिया गया है। प्रश्न- अनादि कालीन आत्मप्रदेशों के प्रचयको काय क्यों नहीं कहा। उत्तर-नहीं, क्योकि, यहाँपर कर्म और नोकर्म रूप पर्यायसे परिणत मूर्त पुद्गलोके सादि और सान्त प्रदेश प्रचयको ही कायरूपसे स्वीकार किया गया है। (किसी अपेक्षा उनको कायपना है भी।
यथा-) प्र. सं./टी./२४/७०/१ कायत्वं कथ्यते-बहुप्रदेशप्रचयं दृष्ट्वा यथा शरोरं कायो भण्यते तथानन्तज्ञानादिगुणाधारभूतानी लोकाकाशप्रमितासंख्येयशुद्धप्रदेशानां प्रचयं समूह संघात मेलापकं दृष्ट्वा मुक्तात्मनि कायत्वं भण्यते। --अब इन (मुक्तात्माओं )में कायपना कहते हैं-बहुतसे प्रदेशो में व्याप्त होकर रहनेको देखकर जैसे शरीरको काय कहते हैं, अर्थात् जैसे शरीरमें अधिक प्रदेश होनेके कारण शरीर को काय कहते हैं उसी प्रकार अनन्तज्ञानादि गुणों के आधारभूत जो लोकाकाशके बराबर असंख्यात शुद्ध प्रदेश है उनके समूह, संघात अथवा मेलको देखकर मुक्त जीवमें भी कायस्व कहा जाता है।
२. षट्काय जीव व मार्गणा निर्देश व शंकाएँ संक्षिपञ्चेन्द्रियत्रसकायपर्याप्त एव । असंयते उभयः, संदेशयते पर्याप्त एव । प्रमत्ते पर्याप्तः । साहारकधिस्तुभयः। अप्रमत्तादिक्षीणकषायान्तेषु पर्याप्त एव । सयोगे पर्याप्तः । समुद्धाते तूभयः। अयोगे पर्याप्त एव । - "णहि सासणो..." इस वचनतै पृथिवी अप प्रत्येक वनस्पति विर्षे ही सासादन मर उपजै है ( अतः तहाँ अपर्याप्तावस्था विषै दो गुणस्थान संभवै मिथ्यादृष्टि व सासादन) तहाँ मिथ्यादृष्टिविषै तौ छहो (कायवाले ) पर्याप्त वा अपर्याप्त हैं। सासादनविर्ष बादर पृथिवी, अप व वनस्पति ए-स्थावर अर उस विष बेदी तेंद्री चौद्री असैनी पंचेंद्री ए तो अपर्याप्त ही हैं और सैनी त्रसकाय पर्याप्त अपर्याप्त दोऊ हैं। आगें संज्ञी पंचेंदी त्रसकाय ही है। तहाँ मिश्र विष पर्याप्त ही है। अविरत विषै दोऊ है। देश संयत विर्षे पर्याप्त ही है। प्रमत्त विषै पर्याप्त है। आहारक ( समुद्गघात) सहित दोऊ हैं । अप्रमत्तादि क्षीणकषाय पर्यन्त पर्याप्त ही है। सयोगी विषै पर्याप्त हैं। समुद्धात सहित दोऊ हैं। अयोगी विष पर्याप्त ही है। (गो.
जी./मू.व.जी. प्र./६७८ ) (विशेष दे० जन्म/४) ५. तैजस आदि कायिकोंका लोकमें अवस्थान व तद्गत
शंका समाधान घ.७/२,७,७१/४०१/३ कम्मभूमिपडिभागसयंभूरमणदीवद्धे चैव किर
तेउकाइया होंति, ण अण्णत्थेत्ति के वि आइरिया भणं ति ।...अण्णे के वि आइरिया सव्वेसु दीवसमुद्दे सु तेउकाझ्यवादरपज्जत्ता संभवंति त्ति भणं ति। कुदो। सयंभूरमणदीवसमुहप्पण्णाण भादरते उपज्जत्ताणं वारण हिरिज्जमाणाणं कीडणसीलदेवपरतताणं वा सव्वदीवसमुस सविउब्वणाणं गमणसंभवादो। केइमाइरिया तिरियलोगादो संखेज्जगुणो फासिदो त्ति भणं ति। कुदो। सव्यपुढवीसु बादरतेउपज्जत्ताणं संभवादो। तिस वि उवदेसेसु को एत्थ गेज्झो। तइज्जो घेत्तव्यो जुत्तीए अणुग्गहित्तादो। ण च सुत्तं त्तिण्हमेवकस्स वि मुक्ककंठ होऊण परूवयमस्थि । पहिल्ली उचएसो बक्खाणे इरियेहि य संमदो त्ति एत्थ सो चेव णिहिट्ठो। -१. कर्मभूमिके प्रतिभागरूप अर्ध स्वयम्भूरमण द्वीपमें ही तैजस कायिक जीव होते हैं, अन्यत्र नहीं ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं। २. अन्य कितने ही आचार्य 'सर्व द्वीपसमुद्रोंमें तेजसकायिक मादर पर्याप्त जीव संभव हैं। ऐसा कहते हैं, क्योंकि स्वयम्भूरमणद्वीप व समुद्र में उत्पन्न भादर तेजस्कायिक पर्याप्त जीवोंका वायुसे ले जाये जानेके कारण अथवा क्रीडनशील देवोंके परतन्त्र होनेसे सर्व द्वीप समुद्रों में विक्रिया युक्त होकर गमन सम्भव है। ३. कितने आचार्योंका कहना है कि उक्त जीवोंके द्वारा वैक्रियकसमुद्धातकी अपेक्षा तिर्यग्लोकसे संख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है, क्योंकि ( उस प्रकार ) सब द्वीप समुद्रोंमें बादर तेजसकायिक पर्याप्त जीवोंकी सम्भावना है। उपर्युक्त तीनों उपदेशोंमें-से तीसरा उपदेश यहाँ ग्रहण करने योग्य है क्योंकि वह युक्तिसे अनुगृहीत है। दूसरी बात यह है कि सूत्र इन तीन उपदेशों में से एकका भी मुक्तकण्ठ होकर प्ररूपक नहीं है। पहिला उपदेश व्याख्यानों और व्याख्यानाचार्योंसे संमत है। इसलिए यहाँ उसीका निर्देश किया गया है। ध./७/२,६,३५/३३२/६ तेउ-आउ-रुक्रवाणं कधं तत्थ संभवो । ण इंदिएहि
अगेज्माणं सुट्ठुसण्हाणं पुढविजोगियाणमस्थित्तस्स विरोहाभावादो। ध./७/२,७,७८/४०५/५ "तहं जलता णिरयपुढवीसु अग्गिणो महंतीओ
णईओ च णरिथ त्ति जदि अभावो बुच्चदे, तंपि ॥ घडदे--'षष्ठ ___ सप्तमयोः शीतं शीतोष्णं पञ्चमे स्मृतम् । चतुर्वयुष्णमुद्दिष्टस्ता
सामेव महीगुणाः ।। इदि तत्थ वि आउ तेऊणं संभवादो। कथं पुढवीणं हेवा पत्तेयसरीराण संभवो। ण, सीएण वि सम्मुच्छिज्जमाणपगण-कुहुणादीणमुवलंभादो। कधमुण्हम्हि संभवो । ण, अच्चुण्हे वि समुप्पज्जमाणजवासपाईणमुवलंभादो।" -(पर्याप्त व अपर्याप्त
४. काय मार्गणामें गुणस्थानोंका स्वामित्व प. ख./१/१,१/४३-४६ पुढविकाझ्या आउकाइया तेउकाइया बाउकाइया वणप्फइकाइया एक्कम्मि चेय मिच्छइट्ठिट्ठाणे ४३। तसकाइया बोइंदिय-प्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ४४। बादरकाइया बादरे
दियप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ।४५॥ तेण परमकाइया चेदि ।४६ =पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक
और वनस्पत्तिकायिक जीव मिथ्यादृष्टि नामक प्रथम गुणस्थानमें ही होते हैं ।४३। द्वीन्द्रियसे लेकर अयोगिकेवलोतक त्रस जीव होते हैं ।४४। बादर एकेन्द्रिय जीवोंसे लेकर अयोगिकेवली पर्यन्त जीव मादरकायिक होते हैं ।४५। स्थावर और बादरकायसे परे कायरहित
अकायिक जीव होते हैं ।४६ (विशेष -दे० जन्म/४)। गी. क./जी.प्र./३०६/४३८/८ गुणस्थानद्वय। कुतः। “णहि सासणो अपुण्णे साहारणसुहमगेयतेउदुगे।' इति पारिशेष्यात पृथ्व्यपप्रत्येकबनस्पतिषु सासादनस्योत्पत्तेः।" गो. जी./जी. प्र./७०३/१४ ते मिथ्यादृष्टौ पर्याप्तापर्याप्ताश्च । सासादने मादरपृथ्व्यब्वनस्पतिस्थावरकायाः द्वित्रिचतुरिन्द्रियासंज्ञित्रसकायायापर्याप्ताः संज्ञित्रसकायः उभयश्चेति षड्जीव निकायः। मिश्रे
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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