SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 54
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ काय बादर ) प्रश्न- जसकाविक जनकायिक, और वनस्पतिकायिक जीवोंकी वहाँ (भवनवासियों के विभागों व अधोलोककी आठपृथिवियोंमें सम्भावना कैसे है पर नहीं, क्योंकि, इन्द्रियोंसे अग्राह्य व अतिशय सूक्ष्म पृथिवी सम्बद्ध उन जीवोंके अस्तित्वका कोई विरोध नहीं है। प्रश्न-नरक पृथिवियोंमें जलती हुई अग्नियों और बहती हुई नदियाँ नहीं हैं ? उत्तर- इस कारण यदि उनका अभाव कहते हो, तो वह भी घटित नहीं होता, क्योंकि छठी और सातवीं पृथिवीमें शोत, तथा पाँचवीं में शीत व उष्ण दोनों माने गये हैं। शेष चार पृथिवियोंमें अत्यन्त उष्णता है। ये उनके ही पृथिवी गुण हैं ॥१॥ इस प्रकार उन नरक पृथिवियोंमें अप्कायिक व तेजसकायिक जीवोंकी सम्भावना है। प्रश्न- पृथिवियोंके नीचे प्रत्येक शरीर जीवोंकी सम्भावना कैसे है ? उत्तर - नहीं; क्योंकि शीतसे भी उत्पन्न होनेवाले पगण और कुडुण आदि वनस्पति विशेष पाये जाते हैं। प्रश्न-उष्णता प्रत्येक शरीर जीवोंका उत्पन्न होना कैसे सम्भव है ? उत्तर--नहीं, क्योंकि, अत्यन्त उष्णता में भी उत्पन्न होनेवाले जवासप आदि बनस्पति विशेष पाये जाते हैं। विशेष देखो जन्म / ४ -- ( सासादन सम्बन्धी दृष्टि भेद ) ३. काय योग निर्देश व शंका समाधान १. काय योगका लक्षण स.सि./६/१/६१६/० वीर्यान्तरायक्षयोपशमसद्भावे सति ओदारिकादिविधवाणान्यतमासम्बनापेक्ष आत्मप्रदेशपरिस्पन्दः काय योगः । वीर्यान्तराय कर्मके क्षयोपशमके होनेपर औदारिकादि सप्तप्रकारकी कायवर्गाने से किसी एक प्रकारकी वर्गणाओंके आसमनसे होनेवाला आरमप्रदेश परिस्पन्द काययोग कहलाता है (रा. मा./६/१/१०/६०६/१०) 1 ६. १/१.१.६५/३०८/६ सप्तानो कायानो सामान्य काय तेन जनितेन मोर्येण जीरप्रदेशपरिस्पन्दन योगः काययोग सात प्रकारके कार्यों में जो अन्वयरूपसे रहता है उसे सामान्य काय कहते हैं । उस कायसे उत्पन्न हुए आत्मप्रदेशपरिस्पन्द लक्षण वीर्यके द्वारा जो योग होता है उसे काययोग कहते हैं। घ.७/२.१.३३/०६/१ चढव्हिसरीराणि अवलं मिय जीवपदेसार्ण संकोचविकोचो सो कायजोगो णाम । जो चतुर्विध शरीरोंके अवलम्बनसे जीवप्रदेशका संकोच विकोष होता है, वह काययोग है। घ. १०/४,२,४,१७५/४३७/११ वातपित्त संभादीहि जणिदपरिस्समेण जाव जीवपरिष्कंदो कायजोगो णाम । वात, पित्त व कफ आदिके द्वारा उत्पन्न परिश्रमले जो जीन प्रदेशोंका परिस्पन्द होता है वह काययोग कहा जाता है । ४६ - २. काययोगके भेद ब. सं. १/१,१९ / सू. ५६/२८६ कायजोगो सत्तविहो ओरालियकायजोगो ओरातियमिस्साजोगी उव्यियकायजोगो वेडव्नियमिवायजोगी आहारकायजोगो आहार मिस्सकायजोगो कम्मयका जोगो चेदि १५६ | काय योग सात प्रकारका है- औदारिककाययोग, औदारिकमिश्र काययोग, वैक्रियिककाययोग, वै क्रियिकमिश्रकापयोग, आहारककाययोग, आहारकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग । ( रा. वा/१/७/१४/३६/२२) (ध.८/३,६/२१/७ ) (द्र.सं./टी./१३/३७/८) Jain Education International २. शुभ-अशुभ काययोग के लक्षण मा.अ./१३,२४ घणछेदणमारणकिरिया सा अमुहकायेति ॥५३॥ जिनदेवादि पूजा काति म हवे पैट्ठा ॥५२॥ बन्धने छेदने और कायक्लेश मारनेकी क्रियाओंको अशुभका कहते हैं ॥ ५३॥ जिनदेव, जिनगुरु, तथा जिनशास्त्रोंकी पूजारूप कायकी चेष्टाको शुभकाय कहते हैं । रा. वा/६/३/१-२/५०६-५०७ प्राणातिपातादत्तादानमैथुन प्रयोगादिरशुभः काययोगः |२| ततोऽनन्त विकल्पादन्यः शुभः | ३ | .. तद्यथा अहिंसास्वमचर्यादिः शुभः काययोगः हिंसा, चोरी और मैथुनप्रयो गादि अनन्त विकल्परूप अशुभकाय योग है |२| तथा उससे अन्य जो अहिंसा, अस्तेय ब्रह्मचर्यादि अनन्त विकल्प वे शुभ काययोग हैं। (स.सि./६/३/३१/१०) 1 = ४. जीव वा शरीरके चलनेको काययोग क्यों नहीं कहते ध.५/१,७,४८/२२६/२ ण सरीरणामकम्मोदयजणिदो वि, पोग्गलविवाहया जीवपरिफद्दणहे उत्तविरोहा । योग शरीरनामकर्मोदय-जनित भी नहीं है, क्योंकि, पुद्गलविपाको प्रकृतियोंके जीयपरिस्पन्दनका कारण होने में विरोध है। 1 २.०/२.१.३१/०७/३ न जीवे चलते जीवपदेशार्ण संकोचविकोचयिमो, सिमंतपदमसमए तो सोनं गच्म्म जीवपदेसाणं संकोचविकीचावतंभा -चलते समय जीवप्रदेशों के संकोच निकोचका नियम नहीं है, क्योंकि, सिद्ध होनेके प्रथम समयमें जब जीव यहाँसे अर्थात् मध्यलोकसे, लोकके अग्रभागको जाता है, तब उसके प्रदेशों में संकोच विकोच नहीं पाया जाता। ५. पर्याप्तावस्थामै कार्माणकायके सद्भावमें भी मिश्रयोग क्यों नहीं कहते ध.१/१.१,०६/३१६/४ पर्याप्तावस्थायां कार्मणशरीरस्य समासत्राप्युभयनिबन्धनात्मप्रदेशपरिस्पन्द इति औदारिकमिप्रकाययोगः किमु न स्वादिति चेन्न तत्र तस्य संतोऽपि जीमप्रदेशपरिस्पन्दस्याहेतुला । न पारम्पर्यकृत तज्ञधेतुत्वं तस्योपचारिकत्वात् न तदध्यविवक्षित त्वात् । प्रश्न- पर्याप्त अवस्थामें कार्मणशरीरका सद्भाव होनेके कारण वहाँपर भी कार्मण और औदारिकशरीर के स्कन्धोंके निमित्तसे आत्मा के प्रदेशों में परिस्पन्द होता है, इसलिए वहाँपर भी जीदारिकमिश्रकाययोग क्यों नहीं कहा जाता ? उत्तर--नहीं, क्योंकि, पर्याप्त अवस्था में यद्यपि कार्मण शरीर विद्यमान है फिर भी वह जीव प्रदेशों के परिस्पन्दनका कारण नहीं है। यदि पर्याप्त अवस्थामें कार्मणशरीर परम्परा से जीन प्रदेशोंके परिस्पन्दका कारण कहा जाये, सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि, कार्मणशरीरको परम्परासे निमित्त मानना उपचार है। यदि कहें कि उपचारका भी यहाँ पर ग्रहण कर लिया जावे, सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि, उपचारसे परम्परारूप निमित्तके ग्रहण करनेकी यहाँ विवक्षा नहीं है। कायक्लेश-शरीरको wagent कठिन तपस्याकी अग्निमें झोंकना कायक्लेश कहलाता है। यह सर्वथा निरर्थक नहीं है। सम्यग्दर्शन सहित किया गया यह तप अन्तरंग मलकी वृद्धि, कर्मोंकी अनन्ती निर्जरा व मोक्षका साक्षात् कारण है । १. कायक्लेश तपका लक्षण घू.आ./मू./१५६ ठाणरायणासह य विविहेहि नहिं महुरोहि 'अविचिपरिताओं कायकिलेसो हवदि एसो खड़ा रहना, एक पार्श्व मृतकी तरह सोना, वीरासनादिसे बैठना इत्यादि अनेक तरहके कारणोंगे शाखके अनुसार आतापन आदि योगोंकरि शरीरको क्लेश देना वह कायक्लेश राप है। स.सि./१/१२/४३०/११ तस्थानं वृक्षमूलनिवासी निरावरण मन बहुविधप्रतिमास्थानमित्येवमादिः कायपले. आतापनयोग, वृक्षगुलमे निवास, निरावरण शयन और नानाप्रकारके प्रतिमास्थान जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy