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कायक्लेश
कायक्लेश
इत्यादि करना कायक्लेश है। (रा.वा/8/१६/१३/६१३/१५), (ध.१३/१४ ४,२६/५८/४), (चा.सा./१३६/२), (त.सा.७/१३) का.अ./मू./४५० दुस्सह-उवसग्गजई आतावण-सीय-वाय-खिण्णो वि।
जो णवि खेदं गच्छादि कायकिलेसो तवो तस्स। -दुःसह उपसर्गको जीतनेवाला जो मुनि आतापन, शीत, वात वगैरहसे पीड़ित होनेपर भी खेदको प्राप्त नहीं होता, उस मुनिके कायक्लेश नामका तप होता है। वसु.श्रा./३५१ आयंबिल णिबियडी एयठाणं छट्ठमाइखवणेहि। जं
कीरह तणुतावं कायकिलेसो मुणेयम्बो ३५१-आचाम्ल, निर्विकृति, एकस्थान, चतुर्भक्त, (उपवास), षष्ठ भक्त (बेला), अष्टम भक्त (तेला), आदिके द्वारा जो शरीरको कृश किया जाता है उसे कायक्लेश जानना चाहिए। भ.आ./वि./६/३२/१८ कायसुखाभिलाषत्यजनं कायक्लेशः। -शरीरको सुख मिले ऐसी भावनाको त्यागना कायक्लेश है।
पर मिल जायें वह समपर्यकासन है; उससे उलटा असमपर्वकासन है; गोको दुहनेकी भाँति बैठना गोदोहन है; ऊपरको संकुचित होकर बैठना उत्करिकासन है; मकरमुखवस् दोनों पैरोंको करके बैठना मकरमुखासन है; हाथीकी सुंडकी तरह हाथ या पाँवको फैलाकर नैठना हस्तिदंडासन है; गौके बैठनेकी भाँति बैठना गोशय्यासन है; अर्धपर्यकासन, दोनों जंघाओंको दूरवर्ती रखकर बैठना बीरासन है। दण्डेके समान सीधा बैठना दण्डासन है। इस प्रकार आसनके अनेक भेद हैं। शयन--शरीरको संकुचित करके सोना लगडशय्या है: ऊपरको मुख करके सोना उत्तानशय्या है; नीचेको मुख करके सोना अवाक्शय्या है। शवकी तरह निश्चेष्ट सोना शवशय्या है; किसी एक करवटसे सोना एकपार्श्वशय्या है; बाहर खुले आकाशमें सोना अभ्रावकाशशय्या है। इस प्रकार शयनके भी अनेक भेद हैं । अवग्रह-अनेक प्रकारको माधाओंको जीतना अवग्रह है। थूकने, खाँसने की बाधा; छींक व जंभाईको रोकमा; खाज होनेपर न खुजाना; काँटा आदि लग जानेपर खिन्न न होना; फोड़ा, फुसी आदि होने पर दुःखी न होना; पत्थर आदि लग जानेपर या ऊंची-नीची धरती आ जानेपर खेद न मानना; यथा समय केशलौच करना; रात्रिको भी न सोना; कभी स्नान न करना; कभी दाँतोंको न माँजना; इत्यादि अवग्रहके अनेक भेद हैं। योग-ग्रीष्म ऋतुमें पर्वतके शिखर पर सूर्यके सम्मुख खड़ा होना आतापन है; वर्षा ऋतुमें वृक्षके नीचे बैठना वृक्षमूल योग है; शीतकालमें चौराहे पर नदी किनारे ध्यान लगाना शीत योग है। इत्यादि अनेक प्रकार योग होता है। (अन. ध./७/३२/६८३ में उद्धृत)
२. कायक्लेशके भेद अन. ध./७/३२/६८३ ऊर्वार्काद्ययनैः शवादिशयनैीरासनाद्यासनैः, स्थान रेकपदाग्रगामिभिरनिष्ठीवाग्रमावग्रहैः । योगैश्चातपनादिभिः प्रशमिना संतापनं यत्तनोः, कायक्लेशमिदं तपोऽयुपमतौ सद्ध्यानसिद्ध्यै भजेत् ॥३२१ - यह शरीरके कदर्थ नरूप तप, अनेक उपायों द्वारा सिद्ध होता है। यहाँ छ. उपायौंका निर्देश किया है-अयन (सूर्यादिकी गति); शयन, आसन, स्थान, अवग्रह और योग । इनके भी अनेक उत्तर भेद होते हैं (देखो आगे इन भेदोंके लक्षण)।
४. कायक्लेश तपके अतिचार
३. अयनादि कायक्केशोंके भेद व लक्षण भ.आ./मू./२२२-२२७ अणुसुरी पडिसूरी पउड्ढसूरी य तिरियसूरी य । उन्भागमेण य गमणं पडिआगमणं च गंतूणं ।२२२। साधारणं सवीचार सणिरुद्ध तहेब वोस । समपादमेगपादं गिद्धोलोणं च ठाणाणि ।२२३। समपलियंक णिसेज्जा समपदगोदो हिया य उक्कुडिया। मगरमुह हत्यिसंडी गोणणिसेज्जद्धपलियंका ।२२४॥ वीरासण च दंडा य उड्ढसाई य लगडसाई य। उत्ताणो मच्छिय एगपाससाई य मडयसाई य २२५॥ अभावगाससयणं अणिरठवणा अकंडग चेव । तणफलयसिलाभूमी सेजा तह केसलोचे य २२६। अन्भुणं च रादो अण्हाणमदंतधोवर्ण चेव । कायकिलेसो एसो सीदुण्हादावणादी य ।२२७॥ अयन-कडी धूपवाले दिन पूर्व से पश्चिमकी ओर चलना अनुसूर्य है-पश्चिमसे पूर्व की ओर चलना प्रतिसूर्य है-सूर्य जब मस्तक पर चढ़ता है ऐसे समयमें गमन करना ऊर्ध्व सूर्य है, सूर्यको तिर्यक् ( अर्थात् दायें-वायें ) करके गमन करना तिर्यसूर्य है--स्वयं ठहरे हुए ग्रामसे दूसरे गाँवको विश्रान्ति न लेकर गमन करना और स्वस्थानको लौट आना या तीर्थादि स्थानको जाकर लगे हाथ लौट आना गमनागमन है। इस तरह अयनके अनेक भेद होते हैं । स्थानकायोत्सर्ग करना स्थान कहलाता है। जिसमें स्तम्भादिका आश्रय लेना पड़े उसे साधार; जिसमें संक्रमण पाया जाये उसको सविचार; जो निश्चलरूपसे धारण किया जाय उसको ससन्निरोध, जिसमें सम्पूर्ण शरीर ढीला छोड़ दिया जाय उसको विसृष्टांग; जिसमें दोनों पैर समान रखे जायें उसको समपाद; एक पैरसे खड़ा होना एकपाद, दोनों बाहू ऊपर करके खड़े होना प्रसारितमाहू। इस तरह स्थान के भी अनेक भेद हैं। आसन--जिसमें पिंडलियाँ और स्फिक मरा
भ.आ./वि./४८७/७०७/११ कायवलेशस्यातापनस्यातिचारः उष्णदितस्य
शीतलद्रव्यसमागमेच्छा, संतापापायो मम कथ स्यादिति चिन्ता, पूर्वानुभूतशीतलद्रव्यप्रदेशानां स्मरणं, कठोरातपस्य द्वेषः, शीतलादेशादकृतगात्रप्रमार्जनस्य आतपप्रवेशः । आतपसंतप्तशरीरस्य वा अप्रमृष्टगात्रस्य छायानुप्रवेशः इत्यादिकः । वृक्षस्य मूलमुगतस्यापि हस्तेन, पादेन, शरीरेण वाप्कायानां पीडा। कथं । शरीरावलग्नजलकणप्रमार्जनं, हस्तेन पादेन वा शिलाफलकादिगतोदकापनयन । मृत्तिकाायां भूमौ शयनं । निम्नेन जलप्रवाहागमनदेशे वा अवस्थानम् । अवग्राहे वर्षापातः कदा स्यादिति चिन्ता । वर्ष ति देवे कदास्योपरमः स्यादिति वा। छत्रकटकादिधारणं वर्षानिवारणायेत्यादिकः।-तथा अभावकाशस्थातिचारः । सचित्तायां भूमौ त्रससहितहरितसमुत्थिताय विवरवत्या शयनं । अकृतभूमिशरीरप्रमाजनस्य हस्तपादसंकोचप्रसारणं पार्वान्तरसंचरणं, कण्डूयनं वा । हिमसमीरणाभ्यां हतस्य कदै तदुपशमो भवतीति चिन्ता, वंशदलादिभिरुपरिनिपतितहिमापकर्षण, अवश्यायघट्टना वा। प्रचुरवातापातदेशोऽयमिति संक्लेशः । अग्निप्रावरणादीनां स्मरणमित्यादिकः । -आतापन योगके अतिचार--ऊष्णसे पीड़ित होनेपर ठंडे पदार्थोंके संयोगकी इच्छा करना, 'यह मेरा संताप कैसे नष्ट होगा' ऐसी चिन्ता करना, पूर्व में अनुभव किये गये शीतल पदार्थोंका स्मरण होना, कठोर धूपसे द्वेष करना, शरीरको बिना झाड़े ही शीतलता से एकदम गर्मी में प्रवेश करना तथा शरीरको पिच्छीसे न स्पर्श करके ही धूपसे शरीर संताप होनेपर छायामें प्रवेश करना इत्यादि अतिचार आतापन योगके हैं। वृक्षमूल योगके अतिचार-इस योगको धारण करनेपर भी अपने हाथ से, पाँवसे और
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