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IV कारण कार्यभाव समन्वय
१. उपादान निमित्त सामान्य विषयक
प्रत्येतव्यः। -जैसे अनन्त पुदगल सम्बन्धियोंकी अपेक्षा एक ही प्रदेशिनी अंगुली अनेक भेदोंको प्राप्त होती है, उसी प्रकार जीव भी कर्म और नोकर्म विषय उपकरणोके सम्बन्धसे जीवस्थान, गुणस्थान, मार्गणास्थान, दंडी, कुण्डली आदि अनेक पर्यायौंको धारण करता है । प्रदेशिनी अँगुलोमें मध्यमाकी अपेक्षा जो भिन्नता है वही अनामिकाकी अपेक्षा नहीं है, प्रत्येक पर रूपका भेद जुदा-जुदा है। मध्यमाने प्रदेशिनीमें ह्रस्वत्व उत्पन्न नहीं किया, अन्यथा शशविषाणमें भी उत्पन्न हो जाना चाहिए था, और न स्वतः ही उसमें ह्रस्वत्व था, अन्यथा मध्यमाके अभावमें भी उसकी प्रतीति हो जानी चाहिए थी। तात्पर्य यह कि अनन्त परिणामी द्रव्य हो तत्तसहकारी कारणोंकी अपेक्षा उन-उन रूपसे व्यवहारमें आता है। (यहाँ द्रव्यकी विभिन्नतामें सहकारी कारणताका स्थान दशति हुए कहा गया है कि वह न स्वतः है न परतः। इसी प्रकार क्षेत्र. काल व भावमे भी लागू कर लेना चाहिए ) २. प्रत्येक कार्य अन्तरंग व बाह्य दोनों कारणों के सम्मेल से होता है
कारी होता है, यह भी असिद्ध नहीं है ।२०११ जैसे जो मत्यादिक ज्ञान ज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशमसे होता है वैसे ही वह बीर्यान्तराय कर्मके क्षयोपशमसे भी होता है ।२०२। ६. कर्मके उदयमें तदनुसार जीवके परिणाम अवश्य होते हैं रा.वा/७/२१/२३/५४६/२७ यद्यभ्यन्तरसंयमघातिकर्मोदयोऽस्ति तदुदयेनावश्यमनिवृत्तपरिणामेन भवितव्यं ततश्च महावतत्वमस्य नोपपद्यत इति मतमः तन्न; किं कारणम्, उपचारात् राजकुले सर्वगतचैत्रवत् । -प्रश्न-(छठे गुणस्थानवर्ती संयतको) यदि संयमघाती कर्मका उदय है तो अवश्य हो उसे अविरतिके परिणाम होने चाहिए। और ऐसा होने पर उसके महाबतत्वपना घटित नहीं होता (अत. संज्वलनके उदयके सद्भावमें छठे गुणस्थानवर्ती साधुको महाव्रती कहना उचित नहीं है)। उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि राजकुलमें चैत्र या खोजे पुरुषको सर्वगत कहनेकी भॉति यहाँ उपचारसे उसे महावती कहा जाता है। ध./१२/४,२,१३,२५४/४५७/६ ण च मुहुमसांपराश्य मोहणीय भावो
अत्थि, भावेण विणा दबकम्मस्स अस्थित्तविरोहादो महुससापराइयसण्णाणुबत्तीदो वा। -सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानमें मोहनीयका भाव नहीं हो, ऐसा सम्भव नहीं है, क्योकि भावके बिना द्रव्यकर्म के रहनेका विरोध है, अथवा वहाँ भावके न मानने पर 'सूक्ष्मसांपरायिक' यह संज्ञा ही नहीं बनती है। नोट-( यद्यपि मूल सूत्र नं. २५४ "तस्स मोहणीयवेयणाभावदो णत्थि" के अनुसार यहॉ मोहनीयका भाव नहीं है। परन्तु यह कथन नय विवक्षासे आचार्य वीरसेन स्वामीने समन्वित किया है। तहाँ द्रव्यार्थिक नयको विवक्षासे सत्का ही विनाश होनेके कारण उस गुणस्थानके अन्तिम समयमें मोहनीयके भावका भी विनाश हो जाता है
और पर्यायार्थिक नय असत अवस्थामें ही अभाव या विनाश स्वीकार करता होनेके कारण उसकी अपेक्षा वह मोहनीयका भाव उस गुणस्थानके अन्तिम समयमे है और उपशान्तकषाय या क्षीणकषायके प्रथम समय में विनष्ट होता है। विशेष-देखो उत्पाद/२/9) ल. सा/जी.प्र./३०४/३८४/१६ द्रव्यकर्मोदये सति संक्लेशपरिणामलक्षणभावकर्मणः संभवेन तयो. कार्यकारणभावप्रसिधेः। =(उपशान्त कषाय गुणस्थानका काल अन्तर्मुहूर्त मात्र है। तदुपरान्त अवश्य ही मोहकर्मका उदय आता है जिसके कारण वह नीचे गिर जाता है।) नियमकर द्रव्यकर्मके उदयके निमित्ततै संक्लेशरूप भाव कर्म प्रगट हो है । इसलिए दोनोंमें कार्यकारणभाव सिद्ध है।
स्व.स्तो./मू /३३ १६.६० अलध्यशक्तिर्भवितव्यतेयं, हेतुद्वयाविष्कृतकार्यलिङ्गा ।३३। यद्वस्तु बाह्यं गुणदोषसूतेनिमित्तमभ्यन्तरमूलहेतो। अध्यात्मवृत्तस्य तदङ्गभूतमभ्यन्तरं केवलमप्यलं न ५॥ बाह्येतरोपाधिसमग्रतेयं, कार्येषु ते द्रव्यगतः स्वभावः । नैवान्यथा मोक्षविधिश्च सां, तेनाभिवन्यस्त्वमृषिर्बुधानाम् ।६० - अन्तरंग व बाह्य इन दोनों हेतुओके अनिवार्य संयोग द्वारा उत्पन्न होनेवाला कार्य ही जिसका ज्ञापक है, ऐसी यह भवितव्यता अलंघ्यशक्ति है ।३३। जो बाह्य वस्तु गुण दोष अर्थात पुण्य पापको उत्पत्तिका निमित्त होती है वह अन्तरं गमें वर्तनेवाले गुणदोषोकी उत्पत्तिके आभ्यन्तर मूलहेतुकी अंगभूत है। केवल अभ्यन्तर कारण ही गुणदोषकी उत्पत्ति में समर्थ नहीं है ।११। कार्यो में बाह्य और अभ्यंतर दोनों कारणोकी जो यह पूर्णता है वह आपके मतमें द्रव्यगत स्वभाव है। अन्यथापुरुषोंके मोक्षकी विधि भी नहीं बनती। इसीसे हे परमर्षि! आप बन्धुजनोंके वन्द्य है ।६० स सि./५/३०/३००/५ उभयनिमित्तवशाद् भावान्तरावाप्तिरुत्पादनमुत्पादः
भृत्पिण्डस्य घटपर्यायवत् । अन्तरंग और बहिरंग निमित्तके वशसे प्रतिसमय जो नवीन अवस्थाकी प्राप्ति होती है, उसे उत्पाद कहते हैं।
जैसे मिट्टीके पिण्डकी घटपर्याय । (प्र.सा/त प्र./६५,१०२) ति.प./४/२८१-२८२ सव्वाणं पयत्थाणं णियमा परिणामपदिवित्तीयो। बहिर तरंगहेदुहि सव्वन्भेदेसु वति ।२८१२ माहिरहेदू कहिदो णिच्छयकालो त्ति सव्वदरसीहि । अभंतर णिमित्तं णियणियदठवेमु चेठेदि ।२८२।- सर्व पदार्थों के समस्त भेदोंमे नियमसे बाह्य और अभ्यन्तर निमित्तोंके द्वारा परिणामादिक (परिणाम, क्रिया, परत्वापरत्व ) वृत्तियाँ प्रवर्तती हैं ।२८१। सर्वज्ञदेवने सर्व पदार्थोंके प्रवर्तनेका बाह्य निमित्त निश्चयकाल कहा है। अभ्यन्तर निमित्त अपने-अपने द्रव्योंमें स्थित है ।२२
IV. कारण कार्य भाव समन्वय १. उपादान निमित्त सामान्य विषयक
१. कार्य न सर्वथा स्वत: होता है न सर्वथा परतः रा. बा 1/४२/9/२५१/७ पुद्गलानामानन्त्यात्तत्तवपुद्गलद्रव्यमपेक्ष्य एकपुद्गलस्थस्य तस्यैकस्यैव पर्यायस्यान्यत्वभावाद । यथा प्रदेशिन्या' मध्यमाभेदाद यदन्यत्वं न तदेव अनामिकाभेदात् । मा भूत मध्यमानामिकयोरेकत्व मध्यमाप्रदेशिन्यन्यत्वहेतुत्वेनाविशेषादिति । न तत्परावधिकमेवार्थसत्त्वम् । यदि मध्यमासामर्थ्याद प्रदेशिन्याः ह्रस्वत्वं जायते शशविषाणेऽपि स्याच्छक्रयष्टौ वा । नापि स्वत एव, परापेक्षाभावे तदव्यक्त्यभावात । तस्मात्तस्यानन्तपरिणामस्य द्रव्यस्य तत्तत्सहकारिकारणं प्रतीत्य तत्तद्रूपं वक्ष्यते । न तव स्वत एव नापि परकृतमेव । एवं जीवोऽपि कर्मनोकर्म विषयवस्तुपकरणसंबन्धभेटादाविर्भूतजीवस्थानगुणस्थानविकल्पानन्तपर्यायरूप.
३. अन्तरंग व बहिरंग कारणोंसे होनेके उदाहरण स.सा./मू /२७८-२७६ जैसे स्फटिकमणि तमालपत्रके संयोगसे परिणमती है वैसे ही जीव भी अन्य द्रव्योके संयोगसे रागादि रूप परिणमन करता है। स सा /मू /२८३-२८५ द्रव्य व भाव दोनों प्रतिक्रमण परस्पर सापेक्ष है। रावा./२/१/१४/१०१/२३ बाहरमें मनुष्य तिर्यचादिक औदयिक भाव
और अन्तरंगमे चैतन्यादि पारिणामिक भाव ही जीवके परिचायक हैं।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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