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१. उपादान निमित्त सामान्य विषयक
IV कारण (कारण कार्य भाव समन्वय )
प्रकार भी सिद्ध नहीं होता। हाँ एक द्रव्यके अनेक परिणामोंको एक सन्तानपना अवश्य सिद्ध है। ) तहाँ द्रव्य नामक प्रत्यासत्तिको ही तिस प्रकार होनेवाले एक सन्तानपनेकी कारणता सिद्ध होती है। एक व्यके केवल परिणामों की एक सन्तान करनेमें उपादान उपादेयभाव सिद्ध नहीं होता।
७. उपादानको परतन्त्र कहनेका कारण व प्रयोजन स.सि./२/१६/१७७/३ लोके इन्द्रियाणां पारतन्त्र्यविवक्षा दृश्यते ।
अनेनाक्ष्णा सुष्ठ पश्यामि, अनेन कर्णेन मुष्ठु शृणोमीति । ततः पारतन्न्यात्स्पर्शनादीनां करणत्वम् । - लोकमें इन्द्रियों की पारतन्य विवक्षा देखी जाती है। जैसे इस आँखसे मैं अच्छा देखता हूँ, इस कानसे मैं अच्छा सुनता हूँ। अतः पारतन्त्र्य विवक्षामें स्पर्शन आदि इन्द्रियोंका करणपना (साधकतमपना) मन जाता है (तात्पर्य यह कि लोक व्यवहार में सर्वत्र व्यवहार नयका आश्रय होनेके कारण उपादानकी परिणतिको निमित्तके आधारपर बताया जाता है। (विशेष दे० नय/v/8) (रा वा./२/११/१/१३१/८)। स.सा./ता वृ./१६ भेदविज्ञानरहितः शुद्धबुद्ध कस्वभावमात्मानमपि च पर स्वस्वरूपाद्भिन्नं करोति रागादिषु योजयतीत्यर्थ। केन, अज्ञानभावेनेति !-भेद विज्ञानसे रहित व्यक्ति शुद्ध बुद्ध एक स्वभावी आत्माको अपने स्वरूपसे भिन्न पर पदार्थ रूप करता है (अर्थात पर पदार्थोके अटूट विकल्पके प्रवाहमें बहता हुआ) अपनेको रागादिकों के साथ युक्त कर लेता है। यह सब उसका अज्ञान है। (ऐसा बताकर स्वरूपके प्रति सावधान कराना ही परतन्त्रता बतानेका प्रयोजन है।)
८. निमित्तको प्रधान कहनेका कारण प्रयोजन
पं.का./त.प्र/८८ स्वतः गमन करनेवाले जीव पुदगलोंकी गति में धर्मास्ति
काय बाह्य सहकारीकारण है। (द्र.सं./टी/१७) (और भी दे० निमित्त)। ४. व्यवहारनयसे निमित्त वस्तुभूत है पर निश्चयसे कल्पना मात्र है श्लो.वा.२/१/७/१३/५६१/१ व्यवहारनयसमाश्रयणे कार्यकारणभावो द्विष्ठः संबन्ध संयोगसमवायादिवत्प्रतीतिसिद्धत्वात् पारमार्थिक एवं न पुन. कल्पनारोपित' सर्वथाप्यनवद्यत्वात् । संग्रहजुसूत्रनयाश्रयणे तु न कस्यचिरकश्चित्संबन्धोऽन्यत्र कल्पनामात्रत्वात् इति सर्वमविरुद्ध।
व्यवहार नयका आश्रय लेनेपर संयोग व समवाय आदि सम्बन्धोके समान दोमें ठहरनेवाला कार्यकारण भाव प्रतीतियोंसे सिद्ध होनेके कारण वस्तुभूत ही है, काल्पनिक नहीं। (क्योकि तहाँ व्यवहारनय भेवग्राही होनेके कारण असदभूत व्यवहार भेदोपचारको ग्रहण करके संयोग सम्बन्धको सत्य घोषित करता है और सद्भूत व्यवहार नय अभेदोपचारको ग्रहण करके समवाय सम्बन्धको स्वीकार करता है) परन्तु संग्रह नय और ऋजुसूत्र नयका आश्रय करनेपर कोई भी किसी का किसीके साथ सम्बन्ध नहीं है। कोरी कल्पनाएँ है। सब अपनेअपने स्वभावोंमें लीन हैं । यही निश्चय नय कहता है। । संग्रहनय मात्र अद्वैत एक महा सत् पाही होनेके कारण और ऋजुमुत्रनय मात्र अन्तिम अवान्तर सत्तारूप एकत्वग्राही होनेके कारण, दोनो ही द्विष्ठ नहीं देखते। तब वे कारणकार्यके द्वैतको कैसे अंगीकार कर सकते है । विशेष देखो 'नय')! ५. निमित्त स्वीकार करनेपर भी वस्तु स्वतन्त्रता बाधित नहीं होती रा.वा //९/२७/४३४/२६ ननु च बाह्यद्रव्यादिनिमित्तवशात् परिणामिनां परिणाम उपलभ्यते, स च स्वातन्त्र्ये सति विरुध्यत इति: नैष दोष': बाह्यस्य निमित्तमात्रत्वात् । न हि गत्यादिपरिणामिनो जीवपुद्गला गन्याद्य पग्रहे धर्मादीनां प्रेरकाः । = (धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकायकी यहाँ यह स्वतन्त्रता है कि ये स्वयं गति और स्थितिरूपसे परिणत जीव और पुद्गलोंकी गतिमें स्वयं निमित्त होते है।) प्रश्न-बाह्य द्रव्यादिके निमित्तसे परिणामियों के परिणाम उपलब्ध होते है और स्वातन्त्र्य स्वीकार कर लेनेपर यह बात विरोधको प्राप्त हो जाती है। उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि बाह्य द्रव्य निमित्तमात्र होते है। (यहाँ प्रकृतमें ) गति आदि रूप परिणमन करनेवाले जीव व पुद्गल गति आदि उपकार करनेके प्रति धर्म आदि द्रव्योके प्रेरक नहीं है। गति आदि करानेके लिए उन्हे उकसाते नहीं हैं।
६. उपादान उपादेय भावका कारण प्रयोजन रावा./२/३६/१८/१४७/७ यथा घटादिकार्योपलब्धैः परमाण्वनुमानं
तथौदारिकादिकार्योपलब्धे. कार्मणानुमानम् "कार्य लिग हि कारणम्" (आप्त मी. श्लो,६८)। जैसे घट आदि कार्योकी उपलब्धि होनेसे परमाणु रूप उपादान कारणका अनुमान किया जाता है, इसी प्रकार औदारिक शरीर आदि कार्यों की उपलब्धि होनेसे कर्मों रूप उपादान कारणका अनुमान किया जाता है, क्योंकि कारणको कार्यलिगवासा कहा गया है। श्लो. वा. २/१/५/६६/२७१/३० सिद्धमेकद्रव्यात्मकचित्तविशेषाणामेकसंतानत्वं द्रव्यप्रत्यासत्तेरेव । -(सर्वथा अनित्य पक्षके पोषक बौद्ध लोग किसी भी अन्ययी कारणसे निरपेक्ष एक सन्ताननामा तत्त्वको स्वीकार करके जिस किस प्रकार सर्वथा पृथक-पृथक् कार्योमे कारणकार्य भाव घटित करनेका असफल प्रयास करते हैं, पर वह किसी
रा.वा./१/१/१७/११/१५ तत एवोत्पत्त्यनन्तरं निरन्वयविनाशाभ्युपगमाव परस्परसंश्लेषाभावे निमित्तनै मित्तिकव्यवहारापह्नवाद'अविद्या प्रत्ययाः संस्कारा.' इत्येवमादि विरुध्यते। -जिस (बौद्ध) मतमें सभी संस्कार क्षणिक है उसके यहाँ ज्ञानादिकी उत्पत्तिके बाद ही तुरन्त नाश हो जानेपर निमित्त नैमित्तिक आदि सम्बन्ध नहीं बनेगे और समस्त अनुभव सिद्ध लोकव्यवहारोंका लोप हो जायेगा। अविद्याके प्रत्ययरूप सन्तान मानना भी विरुद्ध हो जायेगा । (इसी प्रकार सर्वथा अद्वैत नित्यपक्षवालों के प्रति भी समझना। इसीलिए निमित्त नैमित्तिक द्वैतका यथा योग्यरूपसे स्वीकार करना आवश्यक है।) ध./१२/४,२,८,४/२८१/२ एवं विहववहारो किमळं करिदे। सुहेण णाणावरणीयपच्चयबोहणट्ठ कज्जपडिसेहदुवारेण कारणपडिसेहद च ।
प्रश्न-इस प्रकारका व्यवहार किस लिए किया जाता है। उत्तरसुख पूर्वक ज्ञानावरणीयके प्रत्ययों का प्रतिबोध करानेके लिए तथा कार्यके प्रतिषेध द्वारा कारणका प्रतिषेध करनेके लिए उपयुक्त व्यवहार किया जाता है। प्र.सा./ता.कृ./१३३-१३४/१८६/११ अयमत्रार्थः यद्यपि पञ्चद्रव्याणि
जीवस्योपकारं कुर्वन्ति, तथापि तानि दुःख कारणान्येवेति ज्ञात्वा। यदि वाक्षयानन्तसुखादिकारणं विशुद्धज्ञानदर्शनोपयोगस्वभाव परमात्मद्रव्यं तदेव मनसा ध्येयं वचसा वक्तव्यं कायेन तत्साधकमनुष्ठानं च कर्त्तव्यमिति । यहाँ यह तात्पर्य है कि यद्यपि पाँच द्रव्य जीवका उपकार करते हैं, तथापि वे सब दु.खके कारण हैं, ऐसा जानकर; जो यह अक्षय अनन्त सुखादिका कारण विशुद्ध ज्ञानदर्शन उपयोग स्वभावी परमात्म द्रव्य है, वह ही मनके द्वारा ध्येय
है, वचनके द्वारा वक्तव्य है और कायके द्वारा उसके साधक अनुष्ठान ___ ही कर्तव्य है। प्रसा./ता. /१४३/२०३/१७ अत्र यद्यपि.. सिद्धगते: काललब्धिरूपेण
बहिरङ्गसहकारी भवति कालस्तथापि निश्चयनयेन. ज्या तु निश्चयचतुर्विधाराधना सैव तत्रोपादानकारणं न च कालस्तेन कारणेन स
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
भा०२-१०
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