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२. कर्म व जीवगत कारणकार्य भाव विषयक
IV कारण ( कारण कार्य भाव समन्वय )
हेय इति भावार्थः। - यहाँ यद्यपि सिद्ध गतिमे कालादि लब्धि रूपसे काल द्रव्य बहिरंग सहकारीकारण होता है, तथापि निश्चयनयसे जो चार प्रकारकी आराधना है बही तहाँ उपादान कारण है काल नही । इसलिए वह ( काल ) हेय है, ऐसा भावार्थ है। २. कर्म व जीवगत कारणकार्य भाव विषयक
१. जीव यदि कर्म न करे तो कर्म मी उसे फल क्यों दे यो.मा.अ./३/११-१२ आत्मानं कुरुते कर्म यदि कर्म तथा कथम् । चेतनाय फलं दत्ते भुङ्क्ते वा चेतनः कथम् ।११। परेण विहितं कर्म परेण यदि भुज्यते । न कोऽपि सुखदुःखेभ्यस्तदानीं मुच्यते कथम् ।१२। -यदि कर्म स्वयं ही अपनेको कर्ता हो तो वह आत्माको क्यो फल देता है। वा आत्मा ही क्यों उसके फलको भोगता है ।।११। क्योकि यदि कर्म तो कोई अन्य करेगा और उसका फल कोई अन्य भोगेगा तो कोई भिन्न ही पुरुष क्यों न सुख-दुख से मुक्त हो सकेगा ।१२। यो सा. अ./५/२३-२७ विदधाति परो जीवः किंचित्कर्म शुभाशुभम् । पर्यायापेक्षया भुक्ते फलं तस्य पुन. पर' ।२३। य एव कुरुते कर्म किंचिज्जीवः शुभाशुभम् । स एव भुजते तस्य द्रव्यापेिक्षया फलम् ।२४। मनुष्यः कुरुते पुण्यं देवो वेदयते फलम् । आत्मा वा कुरुते पुण्यमात्मा वेदयते फलम् ।२५। चेतनः कुरुते भुक्ते भावैरौदयिकैरयम्। न विधत्ते न वा भुक्ते किचित्कर्म तदत्यये ।२७।= पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा दूसरा ही पुरुष कर्मको करता है और दूसरा ही उसको भोगता है, जैसे कि मनुष्य द्वारा किया पुण्य देव भोगता है। और द्रव्यार्थिक नयसे जो पुरुष कर्म करता है वही उसके फलको भोगता है, जैसे-मनुष्य भबमें भी जिस आत्माने कर्म किया था देवभवमे भी वही आत्मा उसे भोगता है ।२३-२५६ जिस समय इस आत्मामें औदयिक भावोंका उदय होता होता है उस समय उनके द्वारा यह शुभ अशुभ कर्मों को करता है और उनके फलको भोगता है। किन्तु औदयिकभाव नष्ट हो जानेपर यह न कोई कर्म करता है और न किसीके फलको भोगता है ।२७५ २. कर्म जीवको किस प्रकार फल देते हैं
पाया जाता है वह उसका कारण ब दूसरा कार्य होता है. ऐसा समस्त नैयायिक जनोंमे प्रसिद्ध है। इस प्रकार प्रदेशाग्रवेदनाके समान प्रकृतिवेदना भी योग प्रत्ययसे होती है, यह सिद्ध है। २. जो जिसके होनेपर ही होता है और जिसके नहीं होनेपर नहीं होता है वह उसका कारण होता है, ऐसा न्याय है। इस कारण ज्ञानावरणीय वेदना योग और कषायसे ही होती है, यह सिद्ध होता है। ४. वास्तवमें विमाव कर्ममें निमित्त नैमित्तिक भाव है,
जीव व कममें नहीं पं.ध./उ./१०७२ अन्तदृष्ट्या कषायाणां कर्मणां च परस्परम् । निमित्तनैमित्तिको भावः स्यान्न स्याज्जीवकर्मणोः ।१०७२= सूक्ष्म तत्त्वदृष्टिसे कषायों व कर्मोंका परस्परमें निमित्त नैमित्तिक भाव है किन्तु जीवद्रव्य तथा कर्मका नहीं। ५. समकालवर्ती इन दोनों में कारणकार्य भाव कैसे हो सकता है। ध.७/२,१,३४/८१/१० वेदाभावलद्धीणं एककालम्मि चेव उप्पज्जमाणीणं कधमाहाराहेयभावो, कज्जकारणभावो वा। ण समकालेणुप्पज्जमाणच्छायंकुराणं कज्जकारणभावदंसणादो, घडुप्पत्तीए कुसलाभावदसणादो च। -प्रश्न-वेद (कर्म) का अभाव और उस अभाव सम्बन्धी लब्धि / जीव का शुद्ध भाव) ये दोनों जब एक ही कालमें उत्पन्न होते हैं, तब उनमें आधार-आधेयभाव या कार्य-कारणभाव कैसे बन सकता है ? उत्तर--बन सकता है; क्योकि, समान कालमें उत्पन्न होने वाले छाया और अंकुरमें, सवादीपक व प्रकाशमें (छहढाला) कार्यकारणभाव देखा जाता है। तथा घट की उत्पत्ति में कुसुल का अभाव भी देखा जाता है। छ, कर्म व जीवके परस्पर निमित्सनैमित्तिकपनेसे इतरेत
राश्रय दोष भी नहीं आ सकता प्र.सा./त प्र./१२१ यो हि नाम संसारनामायमात्मनस्तथाविधः परिणामः
स एव द्रव्यकर्मश्लेषहेतु' । अथ तथाविधपरिणामस्यापि को हेतुः । द्रव्यकर्म हेतुः तस्य, द्रव्यकर्मसंयुक्तत्वेनैवोपलम्भाव। एवं सतीतरेतराश्रयदोषः । न हि अनादिप्रसिद्धद्रव्यकर्माभिसंबन्धस्यात्मन' प्राक्तनद्रव्यकर्मणस्तत्र हेतुत्वेनोपादानात। -'संसार' नामक जो यह आत्माका तथाविध परिणाम है वही द्रव्यकर्म के चिपकनेका हेतु है। प्रश्न-उस तथाविध परिणामका हेतु कौन है। उत्तर-द्रव्यकर्म उसका हेतु है, क्योंकि द्रव्यकर्मकी संयुक्ततासे ही वह देखा जाता है। प्रश्न-ऐसा होनेसे इतरेतराश्रय दोष आयेगा । उत्तर-नहीं आयेगा, क्योंकि अनादि सिद्ध द्रव्यकर्म के साथ सम्बद्ध आत्माका जो पूर्वका द्रव्यकर्म है उसका वहाँ हेतु रूपसे ग्रहण किया गया है (और नवीनबद्ध कर्म का कार्य रूपसे ग्रहण किया गया है)। ७. कर्मोदयका अनुसरण करते हुए भी जीवको मोक्ष सम्मव है
यो.सा./३/१३ जीवस्याच्छादकं कर्म निर्मलस्य मलीमसम् । जायते भास्वरस्येव शुद्धस्य घनमण्डलम् ।१३। -जिस प्रकार ज्वलंत प्रभाके धारक भी सूर्यको मेघ मण्डल ढंक लेता है, उसी प्रकार अतिशय विमल भी आत्माके स्वरूपको मलिन कर्म लॅक देते है।
३. कर्म व जीवके निमित्त नैमित्तिकपनेमें हेतु रू.पा.१११-१/६४२/६०/१ तं च कम्मं सहेअं, अण्णहा णिव्यावाराण पि बंधप्पसंगादो। कम्मस्स कारणं किं मिच्छत्तासंजमकसाया होति, आहो सम्मत्तसंजद विरायदादो। = जीवसे सम्बद्ध कर्मको सहेतुक ही मानना चाहिए, अन्यथा निर्व्यापार अर्थात् अयोगियोके भी कर्मबन्धका प्रसंग प्राप्त हो जायेगा। उस कमके कारण मिथ्यात्व असंयम और कषाय हैं, सम्यक्त्व, संयम व वीतरागता नही। (आप्त. प./ २/५/८) ध.१२/४,२,८,१२/२८८/६ ण, जोगेण विणा णाणावरणीयपयडीए पाद
भावादसणादो। जेण विणा जं णियमेण णोवलन्भदे तं तस्स कज्ज इयरं च कारणमिदि सयलणयाइयाश्यअजणपसिद्ध। तम्हा पदेसगगवेयणा व पयडिवेयणा वि जोग पच्चएण त्ति सिद्ध। ध./१२/४,२.८,१३/२८६/४ यद्यस्मिन् सत्येव भवति नासति तत्तस्य कारणमिति न्यायात् । तम्हा णाणावरणीयवेयणा जोगकसाएहि चेव होदि त्ति सिद्ध। -१. योगके बिना ज्ञानावरणीयकी प्रकृतिवेदनाका प्रादुर्भाव देखा नहीं जाता। जिसके विना जो नियमसे नहीं
द्र.सं./टी./३०/१५५/१० अत्राह शिष्यः-संसारिणां निरन्तर कर्मबन्धोऽस्ति, तथै वोदयोऽस्ति, शुद्धात्मभावनाप्रस्तावो नास्ति, कथं मोक्षी भवतीति । तत्र प्रत्युत्तरं । यथा शत्रोः क्षीणावस्थां दृष्ट्वा कोऽपि धीमान् पर्यालोचयत्ययं मम हनने प्रस्तावस्ततः पौरुषं कृत्वा शत्रु हन्ति तथा कर्मणामप्येकरूपावस्था नास्ति । हीयमानस्थित्यनुभागत्वेन कृत्वा यदा लधुत्वं क्षीणत्वं भवति तदा धीमान् भव्य आगमभाषया निजशुद्धात्माभिमुखपरिणामसंज्ञेन च निर्मलभावनाविशेषखड्गेन पौरुषं कृत्वा कर्मशत्रु हन्तीति । यत्पुनरन्तःकोटाकोटी
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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