________________
कारण ज्ञान
--
प्रमितकर्म स्थितिरूपेण तथेन ततादारस्थानीयरूपेण च कर्म स जातेऽपि सत्ययं जीम आगमभाषया अथ प्रवृत्तिकरणापूर्व कारणानिवृ त्तिकरण संज्ञामध्यात्मभाषया स्वशुद्धात्माभिमुखपरिणतिरूपां कर्म हनमबुद्धि कापि काले न करिष्यतीति तदभव्ययस्यैव लक्षणं ज्ञातव्यमिति । प्रश्न - संसारी जीवोंके निरन्तर कर्मोका बन्ध व उदय पाया जाता है। अत: उनके शुद्धात्म ध्यानका प्रसंग भी नहीं है। तब मोक्ष कैसे होता है उत्तर-जैसे कोई बुद्धिमान शत्रुकी निर्बल अवस्था देखकर 'यह समय शत्रुको मारनेका है' ऐसा विचारकर उद्यम करता है वह अपने शत्रुको मारता है। इसी प्रकार - कर्मों की भी सदा एकरूप अवस्था नहीं रहती । स्थिति बन्ध और अनुभाग बन्दकी न्यूनता (कालसन्धि) होनेपर जब धर्म लघु व क्षीण होते है, उस समय कोई भव्य जीव अवसर विचारकर आगमकथित पंचलब्धि अथवा अध्यात्म कथित निजशुद्धात्म सम्मुख परिनाम नामक निर्मल भावना विशेषरूप से पौरुष करके कर्मश को नष्ट करता है और जो उपरोक्त कावधि हो आनेपर भी अधकरण आदि त्रिकरण अथवा आत्म सम्मुख परिणाम रूप बुद्धि किसी भी समय न करेगा तो यह अभव्यत्व गुणका लक्षण जानना चाहिए।
८. कर्म व जीवके निमित्तनैमित्तिकपने में कारण व प्रयोजन
१.प्र./टी./१/६६ अत्र मोदरान सदानन्दे कपासर्व प्रकारोपादेयतारपरमा
मनो शुभाशुभकर्मयं राधेयमिति भावार्थः। (यहाँ जो जीवको कर्मो के सामने पंगु बताया गया है ) उसका भावार्थ ऐसा है। कि वीतराग सदा एक आनन्दरूप तथा सर्व प्रकार से उपादेयभूत जो यह परमात्म तत्त्व है, उससे भिन्न जो शुभ और अशुभ ये दोनो कर्म हैं. वे हेय हैं।
कारण ज्ञान दे० उपयोग/१/९/५
कारण चतुष्ट्रय — दे० चतुष्टय | कारण जीव दे० जीव । १ ।
कारण परमाणु-दे० परमाणु / १ ।
कारण परमात्मा दे० परमात्मा / १ । कारण विपर्यय
कारण विरुद्ध व अविरुद्ध उपलब्धि दे० हेतु/१। कारण समयसार - दे० समयसार । कारित-स./६/८/२२२/५ कारिताभिधानं पप्रयोग
- कार्य में दूसरे के प्रयोगकी अपेक्षा दिखलाने के लिए 'कारित' शब्द रखा है। (रा.बा.६/९/८/५१४/१); (चा.सा./८/५) कारुण्य
दे० 'करुणा' ।
कार्तिकेय - १. भगवान् वीरके तीर्थ में अनुत्तरोपपादक हुए-दे० अनुत्तरोपपादक; २. राजा क्रौचके उपसर्ग द्वारा स्वर्ग सिधारे थे । समय - अनुमानत: ई. श. एका प्रारम्भ ( का.अ./प्र, ६६ । A. N. up) २ कार्तिकेयानुप्रेक्षाके कर्ता स्वामीकुमारका दूसरा नाम था । दे० कुमार स्वामी ।
www
कार्तिकेयानुप्रेक्षा-आ० कुमार कार्तिकेय ई००२ मध्य) द्वारा
रचित वैराग्य भावनाओंका प्रतिपादक प्राकृत गाथा मद्ध ग्रन्थ । इसमें ४६९ गाथाएँ हैं। इसपर आ० शुभचन्द्र (ई. १५१६-१५६६) ने संस्कृत टीका लिखी है। तथा पं० जयचन्द छाबड़ा (ई. १८०१ ) ने भाषा टीका लिखी है ।
७५
Jain Education International
कार्मण
कार्मण जीवके प्रदेशोंके साथ मन्ये अट कर्मकि सूक्ष्म पुगल स्कन्धके संग्रहका नाम कार्माण शरीर है। बाहरी स्थूल शरीरकी मृत्यु हो जानेपर भी इसकी मृत्यु नही होती। विग्रहगतिमे जीवों के मात्र कार्माण शरीरका सद्भाव होनेके कारण कार्माण काययोग माना जाता है, और उस अवस्था में नोर्मवगंगाओका ग्रहण न होनेके कारण व अनाहारक रहता है।
१. कार्मण शरीर निर्देश
कार्मण शरीरका लक्षण
9.
प.सं. १४/५.६/२४१/१२८ सव्वकम्मा परुणुपाद मुदुक्ला बीजमिदि कम्मइयं । २४१ | = सब कर्मोका प्ररोहण अर्थात् आधार, उत्पादक और सुख-दुखका भीज है इसलिए कामणि शरीर है। स.सि /२/३६/१६१/६ कर्मणां कार्यं कार्मणम् । सर्वेषां कर्मनिमित्तत्वेऽपि रूढिवाद्विशिष्टवृत्तिरवसेयाकर्मका कार्य कामण शरीर है। यद्यपि सर्व शरीर कर्मके निमित्तसे होते हैं तो भी रूि विशिष्ट शरीरको कामण शरीर कहा है (रा.मा./२/२६/२/१३०/4 (रा.वा./२/२६/१/१४६/१३) (रा.वा./२/४६/८/१२३/१८ )
1=
१/१.१.५० / १६६/२६४ कम्मेव च कम्म-धर्म कम्मयं से....... १९६६-ज्ञानावरणादि आठ प्रकारके ही कर्म स्कन्धको कामण वशरीर कहते है, अथवा जो कार्माण शरीर नामकर्मके उदयसे उत्पन्न होता है उसे कार्माण शरीर कहते है (ध. १/१.१.५७/२१५/१) (गो. जी./मू./२४१)
1
।
घ. १४/५.६.९४२/३२८/११ कर्माणि प्ररोहन्ति अस्मिन्निति प्ररोहण कार्मणशरीरम् । सकलकर्माधार रारा एवं सुप दुखानां सह बीजमपि एतेन नामकर्मावयवस्य कार्मणशरीरस्य प्ररूपणा कृता । साम्प्रतमष्टकर्म कलापस्य कार्माणशरीरस्य लक्षणप्रतिपादकत्वेन सूत्रमिदं व्याख्यायते । तद्यथा - भविष्यत्सर्व कर्मणां प्ररोहणमुत्पाद कं त्रिकागोचरा सुख-दुखानां मी चेति कर्मका कार्मणशरीरम् कर्मणि] [भ] या कार्मण कर्मय मा कार्मणमिति कार्मण शब्दव्युत्पत्तेः कर्म] इसमें पगते हैं इसलिए कार्मण शरीर प्ररोहण कहलाता है सर्वकमका आधार हे सुख और दुखोंका बीज भी है...इसके द्वारा नामकर्मके अवयव रूप कार्मण शरीरकी प्ररूपणा की है। अब आठ कर्मोके कलाप रूप कार्माण शरीरके लक्षणके प्रतिपादकपनेकी अपेक्षा इस सूत्रका व्याख्यान करते हैं । यथा - आगामी सर्व कर्मो का प्ररोहण, उत्पादक और त्रिकाल विषयक समस्त सुखदुखका बीज है. इसलिए आठ कर्मोंका समुदाय कार्मणशरीर है, क्योकि कर्ममे हुआ इसलिए फार्म है, अथवा धर्म ही कार्मण है, इस प्रकार यह कार्मण शक्ति है।
•
२. कार्मण शरीरके अस्तित्व सम्बन्धी शंका समाधान रा.वा./२/३६/१०-१५/१४६ / १६ सर्वेषां कार्मणत्वप्रसङ्ग इति चेत्...
दारिकशरीरनागादीनि हि प्रतिनियतानि कर्माणि सन्ति दय भेदाभेदो भवति । तत्कृतत्वेऽप्यन्यत्वदर्शनाद् घटादिवत्... अतः कार्यकारणभेदाच सर्वेषां कार्मणस्य ... कार्म नेऽप्योदारिकादीनां वैश्खसिकोपचमेनावस्थानमिति मानावं सिद्धम् कार्मणमसत् निमि साभावादिति चेन्न कि कारणं तस्यैव 1 प्रदीप मिध्यादर्शनादिनिमित्तत्वाच
निमित्तिप्रश्न
भावात्
1
( कर्मों का समुदाय कार्माण शरीर है ) ऐसा लक्षण करनेसे औदारिकादि सम ही शरीरोंको कार्मणपने का प्रसंग जा जायेगा। उत्तरऔदारिकादि शरीर प्रतिनियत नामकर्मके उदयसे होते हैं, यद्यपि औदारिकादि शरीर कर्मकृत है, तथा मिट्टी से उत्पन्न होनेवाले घट पटी आदिकी भाँति फिर भी उसमें संज्ञा, लक्षण, आकार और निमित्त आदिकी दृष्टिसे भिता है। कारण कार्यको अपेक्षा भी
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
For Private & Personal Use Only
-
www.jainelibrary.org