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दान
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दिग्नाग
कथा।
७. ग्रहण व संक्रान्ति आदिके कारण दान देना योग्य नहीं मैहिकं । = गृहस्थ अपने कमाये हुए धनके चार भाग करे, उसमेंसे अमि, श्रा./६०-६१ यः संक्रान्तौ ग्रहणे वारे वित्तं ददाति मूढमति ।
एक भाग तो जमा रखे, दूसरे भागसे बर्तन वस्त्रादि धरकी चीजें सम्यक्त्ववन छित्त्वा मिथ्यात्ववनं वपत्येषः।६। ये ददते मृततृप्त्यै
खरीदे, तीसरे भागसे धर्मकार्य और अपने भोग उपभोगमें खर्च करे बहुधादानानि नूनमस्तधियः । पल्लवयितं तरु' ते भस्मीभूतं निषि
और चौथे भागसे अपने कुटुम्बका पालन करे। अथवा अपने कमाये वन्ति ।६१ =जो मूढबुद्धि पुरुष संक्रान्तिविर्षे आदित्यवारादि (ग्रण)
हुए धनका आधा अथवा कुछ अधिक धर्मकार्यमें खर्च करें और बचे धार विर्षे धनको देय है सो सम्यक्त्व वनको छेदिकै मिथ्यात्व वनको
हुए द्रव्यसे यत्नपूर्वक कुटुम्ब आदिका पालन पोषण करें। बोवै है ।६०। जे निर्बुद्धि पुरुष मरे जीवकी तृप्तिके अर्थ बहुत प्रकार दानकथा-कवि भारामल ( ई० १७५६ ) द्वारा हिन्दी भाषामें रचित दान देय है ते निश्चयकरि अग्निकरि भस्मरूप वृक्षकों पत्र सहित करनेकौ सींचे है।६१३
दानांतराय कर्म-दे० अन्तराय/११ सा. घ.//३ हिसार्थत्वान्न भूगेह-लोहगोऽश्वादिनैष्ठिकः । न दद्याद्
दामनन्दिनन्दि संघके देशीयगण-गुणनन्दि शाखा के अनुसार ग्रहसंक्रान्ति-श्राद्धादौ वा सुदृग्गुहि ॥५३॥ =नैष्ठिक श्रावक प्राणियोंकी हिंसामें निमित्त होनेसे भूमि आदि को दान नहीं देवे। और
आप सर्वचन्द्र के शिष्य और वीरनन्दिके गुरु थे। समय-वि.१०००जिनको पर्व माननेसे सम्यक्त्वका घात होता है ऐसे ग्रहण, संक्रान्ति,
१०३० ई० ६४३-६७३ । २. इसी संघ की नयकीर्ति शाखा के अनुसार तथा श्राद्ध वगैरहमें अपने द्रव्यका दान नहीं देवे।।३।
आप रविचन्द्र के शिष्य व श्रीधरदेव के गुरु थे।-दे०इतिहास/७/५.१
दायक-१. आहारका एक दोष । दे० आहार/I1/४, २. वस्तिकाका ६. दानार्थ धन संग्रहका विधि निषेध
एक दोष । दे० वस्तिका ।
दारवेणी-आर्य खण्डकी एक नदी-दे० मनुष्य/४ । १. दानके लिए धनकी इच्छा अज्ञान है
दासी-दासी पत्नी । दे० स्त्री। इ. उ./मू./१६ त्यागाय श्रेयसे वित्तमवित्त. संचिनोति यः । स्वशरीरं स
दिक-१, दिशाएँ-दे. दिशा। २. लवण समुद्र में स्थित एक पर्वत पड्केन स्नास्यामीति विलिम्पति।१६। = जो निर्धन मनुष्य पात्रदान,
दे० लोक/५/६ । देवपूजा आदि प्रशस्त कार्योंके लिए अपूर्व पुण्य प्राप्ति और पाप विनाशकी आशासे सेवा, कृषि और वाणिज्य आदि कार्योंके द्वारा
दिककुमार-१. भवनवासी देवोंका एक-भेद-दे० भवन/१/४ २. धन उपार्जन करता है वह मनुष्य अपने निर्मल शरीरमे 'नहा लूगा'
दिककुमार भवनवासी देवोंका अवस्थान-दे० भवन/४/१। इस आशासे कीचड़ लपेटता है ।१६।
विककुमारी-१. आठ दिक्कुमारी देवियाँ नदंन वनमें स्थित आठ
कूटोंपर रहती हैं-सुमेधा, मेघमालिनी, तोयंधरा, विचित्रा, मणि२. दान देनेकी अपेक्षा धनका ग्रहण हीन करे
मालिनी, (पुष्पमाला) आनन्दिता, मेघकरी।-० लोका३/६४व; आ. अनु./१०२ अर्थिभ्यस्तृणवद्विचिन्त्य विषयाच कश्चिच्छ्रियं दत्तवान् लोक/७४४। दिक्कुमारी देवियाँ रुचक पर्वतके कूटोंपर निवास करती पापं तामवितर्पिणी, विगणयन्नादाद परस्त्यक्तवान् । प्रागेत्र कुशला हैं। जो गर्भके समय भगवानकी माताको सेवा करती है।-दे० विमृश्य सुभगोऽप्यन्यो न पर्यग्रहीत एते ते विदितोत्तरोत्तरवरा' लोक/४/७। कुछ अन्य देवियों के नाम निर्देश-जया, सर्वोत्तमास्त्यागिनः ।१०२= कोई विद्वान मनुष्य विषयोंको तृणके विजया, अजिता, अपराजिता, जम्भा, मोहा, स्तम्भा, स्तम्भिनी। समान तुच्छ समझकर लक्ष्मीको याचकों के लिए दे देता है, (प्रतिष्ठासारोद्धार/३/३१७-२४)। श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि, कोई पाप रूप समझकर किसीको बिना दिये ही त्याग देता है। लक्ष्मी, शान्ति व पुष्टि । (प्रतिष्ठासारोद्धार/४/२७) । सर्वोत्तम वह है जो पहिलेसे ही अकल्याणकारी जानकर ग्रहण नहीं
दिक्पालदेव-दे० लोकपाल । करता ।१०२॥
दिकवास-लत्रण समुद्र में स्थित एक पर्वत-दे० लोक/9/8 ३. दानार्थ धन संग्रहकी कथंचित् इष्टता
दिक्वत-दे० दिग्वत। कुरल./२३/६ आर्तक्षुधाविनाशाय नियमोऽयं शुभावहः । कर्तव्यो। दिगंतरक्षित-१. एक लौकान्तिक देव-दे. लौकान्तक । धनिभिनित्यमालये वित्तसंग्रह ६ गरीबों के पेटकी ज्वालाको
दिगंबर-१. अचेल मुद्रा का उपासक जिन प्रणीतमार्ग । २. मूल दि० शान्त करनेका यही एक मार्ग है कि जिससे श्रीमानों को अपने पास विशेष करके धन संग्रह कर रखना चाहिए।६।
साधु संघ (दे० इतिहास/५.१).३. श्वेताम्बर मान्य नबीन उत्पत्ति
-दे० श्वेताम्बर। ४. आयका वर्गीकरण
दिगिद्र-दे० इन्द्र । पं. वि./२/३२ ग्रासस्तदर्धमपि देयमथार्धमेव तस्यापि संततमणुवतिना
दिग्गजेंद्र-१. विदेह क्षेत्रमें सुमेरु पर्वतके दोनों ओर भद्रशाल वनमें यद्धि । इच्छानुरूपमिह कस्य कदात्र लोके द्रव्यं भविष्यति सदुत्त
सीता व सीतोदा नदीके प्रत्येक तटपर दो-दो दिग्गजेन्द्र पर्वत हैं। मदानहेतुः ।३२- अणुव्रती श्रावकको निरन्तर अपनी सम्पत्तिके
इनके अंजन शैल, कुमुद शैल, स्वस्तिक शैल, पलाशगिरि, रोचक, अनुसार एक ग्रास, आधा ग्रास उसके भी आधे भाग अर्थात चतुर्थांश
पद्मोत्तर, नील ये नाम हैं।-दे० लोक/३/८ । २. उपरोक्त कूटोंपर को भी देना चाहिए। कारण यह है कि यहाँ लोकमें इच्छानुसार
दिग्गजेन्द्र देव रहते हैं।-दे० व्यतर/४/५ लोक/३/८ इनके अतिरिक्त द्रव्य किसके किस समय होगा जो कि उत्तम दानको दे सके, यह कुछ
रुचक पर्वतके चार कूटोपर भी चार दिग्गजेन्द्र देव रहते हैं।-दे० नहीं कहा जा सकता ।३२॥
व्यंतर/४/लोक/४/७। सा.ध./१/११/२२ पर फुट नोट-पादमायानिधिं कुर्यात्पाद वित्ताय खट्वयेत् । धर्मोपभोगयो पादं पादं भर्तव्यपोषणे । अथवा-आयार्द्ध दिग्नाग-एक बौद्ध विद्वान् । कृति-न्यायप्रवेश। समय-ई० सं० च नियुञ्जीत धर्मे समाधिकं ततः । शेषेण शेषं कुर्वीत यत्नतस्तुच्छ- ४२५ (सि. वि./२१ पं० महेन्द्र)
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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