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दान
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५. विधि द्रव्य दातृ पात्र आदि निर्देश
चा. सा/२८/३ दीयमानेऽन्नादौ प्रतिगृहीतुस्तपस्वाध्यायपरिवृद्धिकरणत्वाद्रव्य विशेषः। =भिक्षामें जो अन्न दिया जाता है वह यदि आहार लेनेवाले साधुके तपश्चरण स्वाध्याय आदिको बढानेवाला हो तो वही द्रव्यकी विशेषता कहलाती है।
अनेक प्रकारकी भूमियों में पड़े हुए बीज धान्य कालमे विपरोततया फलित होते हैं, उसी प्रकार प्रशस्तभूत राग वस्तु भेदसे ( पात्र भेदसे) विपरीततया फलता है ॥२५॥ स. सि./७/३६/३७३/५ प्रतिग्रहादिक्रमो विधिः। प्रतिग्रहादिष्वादरानादरकृतो भेद । तपःस्वाध्यायपरिवृद्धिहेतुत्वादिद्रव्यविशेष' । अनसूयाविषादादितृविशेषः । मोक्षकारणगुणसंयोगः पात्रविशेषः । ततश्च पुण्यफलविशेषः क्षित्यादिविशेषाद बीजफल विशेषवत् । -प्रतिग्रह आदि करनेका जो क्रम है वह विधि है ।...प्रतिग्रह आदिमें आदर और अनादर होनेसे जो भेद होता है वह विधि विशेष है। जिससे तप और स्वाध्याय आदिकी वृद्धि होती है वह द्रव्य विशेष है। अनसूया और विषाद आदिका न होना दाताकी विशेषता है। तथा मोक्ष के कारणभूत गुणोंसे युक्त रहना पात्रकी विशेषता है। जैसे पृथिवी आदिमें विशेषता होनेसे उससे उत्पन्न हुए बोजमें विशेषता आ जाती है वैसे ही विधि आदिक की विशेषतासे दानसे प्राप्त होनेवाले पुण्य फलमें विशेषता आ जाती है। (रा. वा /७/१६/१-६/१५६) (अमि. श्रा./१०१३० ) ( वसु. श्रा./२४०-२४१)।
२. दान प्रति उपकारकी मावनासे निरपेक्ष देना चाहिए का. अ./२० एवं जो जाणित्ता विहलिय-लोयाण धम्मजुत्ताणं । णिरवेक्खो तं देदि हु तस्स हवे जीवियं सहलं ॥२०॥ -इस प्रकार लक्ष्मोको अनित्य जानकर जो उसे निर्धन धर्मात्मा व्यक्तियो को देता है और उसके बदलेमें उससे प्रत्युपकारकी वाञ्छा नहीं करता, उसीका जीवन सफल है ॥२०॥
३. गाय आदिका दान योग्य नहीं पं.वि./२/१० नान्यानि गोकनकभूमिरथाङ्गनादिदानानि निश्चितमवद्य
कराणि यस्मात ॥५०॥ - आहारादि चतुर्विध दानसे अतिरिक्त गाय, सुवर्ण, पृथिवी. रथ और स्त्री आदिके दान, महान फलको देनेवाले नहीं है ॥५०१ सा. ध./५/५३ हिसार्थ त्यान्न भूगेह-लोहगोऽश्वादिनैष्टिकः । न दद्याद् ग्रहसंक्रान्ति-श्राद्धादौ वा सुदृग्द्रहि ॥५३॥ -नैष्ठिक श्रावक प्राणियोंकी हिंसाके निमित्त होनेसे भूमि, शस्त्र, गौ, बैल, घोडा वगैरह है आदिमें जिनके ऐसे कन्या, सुवर्ण, और अन्न आदि पदार्थों को दान नहीं देवे। (सा, ध./8/४६-५६)।
१०.दानके प्रकृष्ट फलका कारण र.क. श्रा./११६ नन्वेवं विधं विशिष्टं फलं स्वल्पं दानं कथं संपादयतीत्याशङ्काऽपनोदार्थमाह -क्षितिगतमिव बदबोजं पात्रगतं दानमल्पमपि काले। फलतिच्छायाविभवं बहुफलमिष्टं शरीरभृता ॥११६॥ -प्रश्न-स्वल्प मात्र दानतै इतना विशिष्ट फल कैसे हो सकता है। उत्तर-जीवोंको पात्र में गया हुआ अर्थात् मुनि अजिका आदिके लिए दिया हुआ थोड़ा-सा भी दान समय पर पृथ्वीमें प्राप्त हुए वट बीजके छाया विभववाले वृक्षकी तरह मनोवांछित फलको
फलता है ॥११६॥ (वसु. श्रा./२४०) (चा. सा./२६/१)। पं.वि./२/३८ पुण्यक्षयारक्षयमुपैति न दीयमाना लक्ष्मीरत' कुरुत संतत- पात्रदानम् । कूपे न पश्यत जलं गृहिणः समन्तादाकृष्यमाणमपि वर्धत एव नित्यम् ॥३८॥ -सम्पति पुण्यके क्षयसे क्षयको प्राप्त होती है. न कि दान करनेसे । अतएव हे श्रावको! आप निरन्तर पात्र दान कर। क्या आप यह नहीं देखते कि कुएं से सब ओरसे निकाला जानेवाला भी जल नित्य बढता ही रहता है।
४. मिथ्यादृष्टिको दान देनेका निषेध द. पा./टी./२/३/१ दर्शनहीन'.. तस्यान्नदानाक्षिकमपि न देयं । उक्त
च-मिथ्यादृरभ्यो दददान दाता मिथ्यात्ववर्धकः। -मिध्यादृष्टिको अन्नादिक दान भी नहीं देना चाहिए। कहा भी है--मिथ्याष्टिको दिया गया दान दाताको मिथ्यात्वका बढानेवाला है। अमि० श्रा०/५० तद्य नाष्टपदं यस्य दीयते हितकाभ्यया। स तस्याष्टापदं मन्ये दत्ते जीवितशान्तये।५०-जैसे कोऊ जीवनेके अर्थ काहको अष्टापद हिंसक जीवको देय तो ताका मरन ही होय है तैसैं धर्मके अर्थ मिथ्यादृष्टीनको दिया जो सुवर्ण तातै हिसादिक होने त परके वा आपके पाप ही होय है ऐसा जानना ।१०। सा. ध./२/६४/१४६ फुट नोद-मिथ्यात्वग्रस्तचित्तेसु चारित्राभास
भागिषु । दोषायैव भवेद्दान पय.पानमिवाहिषु । चारित्राभासको धारण करनेवाले मिथ्यादृष्टियोको दान देना सर्पको दूध पिलानेके समान केवल अशुभके लिए ही होता है।
५. विधि द्रव्य दातृ पात्र आदि निर्देश १. दान योग्य द्रव्य र. सा./२३-२४ सीदुण्ह वाउविउल सिलेसियं तह परीसमव्याहिं । कायकिलेमुव्यासं जाणिज्जे दिण्णए दाणं ॥२३॥ हियमियमण्णपाणं णिरबज्जोसहिणिराउलं ठाणं । सयणासणमुवयरणं जाणिज्जा देइ मोक्रवरवो ॥२४॥ - मुनिराजको प्रकृति, शीत, उष्ण, वायु, श्लेष्म या पित्त रूपमें से कौन-सी है। कायोत्सर्ग वा गमनागमनसे कितना परिश्रम हुआ है, शरीरमें ज्वरादि पीडा तो नहीं है। उपवाससे कण्ठ शुष्क तो नहीं है इत्यादि बातोंका विचार करके उसके उपचार स्वरूप दान देना चाहिए ॥२३॥ हित-मित प्रासुक शुद्ध अन्न, पान, निर्दोष हितकारी ओषधि, निराकुल स्थान, शयनोपकरण, आसनोपकरण, शास्त्रोपकरण आदि दान योग्य वस्तुओको आवश्यकताके अनुसार
सुपात्र में देता है वह मोक्षमार्गमें अग्रगामी होता है ॥२४॥ पु. सि. उ./१७० रागद्वेषासंयममददुःखभयादिकं न यत्कुरुते। द्रव्यं तदेव
देयं सुतपःस्वाध्यायवृद्धिकरम् ॥१७०॥ =दान देने योग्य पदार्थजिन वस्तुओंके देनेसे राग द्वेष, मान, दुःख, भय, आदिक पापोंकी उत्पत्ति होती है, वह देने योग्य नहीं। जिन वस्तुओंके देनेसे तपश्चरण, पठन, पाठन स्वाध्यायादि कार्यों में वृद्धि होती है, वही देने योग्य हैं ॥१७०॥ (अमि. श्रा./६/४४) (सा. ध./२/४५)।
५. कुपात्र व अपात्रको करुणा बुद्धिसे दान दिया जाता है पं. ध /उ./७३० कुपात्रायाप्यपात्राय दान देयं यथोचितम् । पात्रबुद्ध्या निषिद्ध' स्यानिषिद्धन कृपाधिया ।७३०। कुपात्रके लिए और अपात्रके लिए भी यथायोग्य दान देना चाहिए क्योंकि कुपात्र तथा अपात्रके लिए केवल पात्र बुद्धिसे दान देना निषिद्ध है, करुणा बुद्धि से दान देना निषिद्ध नही है । 1७३०। (ला. सं./३/१६१) (ला. सं./५/२२५) ।
उसके उपचार
हित-मित प्रा
गरी ओषधि
६. दुखित भुखितको मी करुणाबुद्धिसे दान दिया जाता
पं.ध..३०/७३१ शेषेभ्यः क्षुत्पिपासादिपीडितेभ्योऽशुभोदयात् । दीनेभ्योऽभयदानादि दातव्यं करुणार्णवै ७६१ -दयालु श्रावकोंको अशुभ कर्मके उदयसे क्षुधा, तृषा, आदिसे दुखी शेष दोन प्राणियों के लिए भी अभय दानादिक देना चाहिए।७३१ (ला, स./३/१६२)।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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