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क्षाति
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क्षीणकषाय
क्षायोपशमिकलब्धि-लब्धि/२। क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन-दे० सम्यग्दर्शन/IV/ ४ | क्षार राशि-एक ग्रह -दे० ग्रह। क्षिातशयन-साधका एक मूलगुण-दे०निद्रा/२ । क्षिप्र-दे. मतिज्ञान/४। क्षीणकषाय
१. क्षीण कषाय गुणस्थानका लक्षण
विष पाइये है ताकौ जो जीव उपशम सम्यक्त्व सहित ग्रहण करै है सो मिथ्यात्व ते ग्रहण करैं हैं ताका तो सर्व विधान प्रथमोपशम सम्यक्त्ववत् जानना। क्षयोपशम सम्यक्त्वको ग्रहता जीव पहले अप्रमत्त गुणस्थानको प्राप्त हो है ।१८। वेदक सम्यक्त्व सहित क्षयोपशम चारित्रको मिथ्याष्टि, वा अविरत, व देशसंयत जीव देशवत ग्रहणवत् अध प्रवृत्त वा अपूर्वकरण इन दोय करण. करि ग्रहे है। तहाँ करण विर्षे गुणश्रेणी नाही है। सकल संयमका ग्रहण समय तें लगाय गुणश्रेणी हो है ।१०। २. = इहाँ ते ऊपर अल्प-बहुत्व पर्यन्त जैसे पूर्व देश विरतविर्षे व्याख्यान किया है तैसे सर्व व्याख्यान यहाँ जानना । विशेषता इतनी-वहाँ-जहाँ देशविरत कह्या है इहाँतहाँ सकल विरत कहना।
६. क्षयोपशम भावमें दो ही करणोंका नियम क्यों ल. सा /जो प्र./१७२/२२४/६ अनिवृतिकरणपरिणाम विना कथं देश
चारित्रप्राप्तिरित्यपि नाशडूनीयं कर्मणां सर्वोपशमन विधाने निर्मलक्षय विधाने चानिवृत्तिकरणपरिणामस्य व्यापारो न क्षयोपशमविधाने इति प्रवचने प्रतिपादित्वात् । = प्रश्न--अनिवृत्तिकरण परिणामके बिना देशचारित्रकी प्राप्ति कैसे हो सकती है। उत्तर-ऐमो आशंका नही करनी चाहिए, क्योकि कर्मोके उपशमवलय विधानमे ही अनिवृत्तिकरण परिणामका व्यापार होता है, क्षयोपशम विधानमे नहीं, ऐसा प्रवचन में प्रतिपादित किया गया है। ७. उत्कृष्ट स्थिति व अनुभागके बन्ध वा सत्त्वमें
संयमासंयम व संयमकी प्राप्ति संभव नहीं ध. १२/४,२,१०२/३०३/१० उक्कस्सट्ठिदिसते उक्कस्साणुभागे च संते बज्झमाणे च सम्मत्त-संजम-संजमोसंजमाणं गहणाभावादी। उत्कृष्ट स्थिति सत्त्व और उत्कृष्ट अनुभाग सत्त्वके होनेपर तथा उत्कृष्ट स्थिति
और उत्कृष्ट अनुभागके बंधनेपर सम्यक्त्व, सयम एवं सयमासंयमका ग्रहण सम्भव नहीं है। क्षांति-सं.स्तो/१६/३४क्षान्ति क्षमा।क्षमा व शान्ति एकार्थ
वाची है। स. सि./६/१२/३३१/५ क्रोधादिनिवृति' क्षान्ति' । क्रोधादि दोषोका निराकरण करना शान्ति है। (रा.वा./६/१२/१/५२३/१); (गो. /
जी.प्र./८०१/१८०/१४)। क्षायिक उपभोग-दे० उपभोग। क्षायिक चारित्र-दे० चारित्र/१। क्षायिक दान-दे० दान । क्षायिक भाव-दे०क्षय/४ । क्षायिक भोग-दे० भोग। क्षायिक लब्धि-लब्धि/१। क्षायिक लाभ-दे० लाभ । क्षायिक वीर्य-दे० वीर्य : क्षायिक सम्यक्त्व-दे० सम्यग्दर्शन । क्षायिक सम्यग्ज्ञान-दे० सम्यग्ज्ञान । क्षायिक सम्यग्दृष्टि-दे० सम्यग्दृष्टि/५/१ । क्षायिक सम्यग्दर्शन-दे० सभ्यग्दर्शन/IV| ५ | क्षायोपशमिक अज्ञान-दे० अज्ञान । क्षायोपशमिक ज्ञान-दे० ज्ञान ।
६.सं./प्रा./१/२५-२६ णिस्सेसरवीण मोहो फलिहामलभायणुदयसमचित्तो। वीणकसाओ भण्णइ णिग्गंथो वीयराएहि ।२५। जह सुद्धफलिहभायणरिवत्तं णीर खु हिम्मलं सुद्ध। तह णिम्मलपरिणामो स्त्रीणकसाओ मुणेयव्यो ।२६ = मोह कर्म के नि शेष क्षीण हो जानेसे जिसका चित्त स्फटिकके निर्मल भाजनमे रखे हुए सलिल के समान स्वच्छ हो गया है, ऐसे निर्ग्रन्थ साधुको वीतरागियोने क्षीणकषाय संयत कहा है। जिस प्रकार निर्मली आदिसे स्वच्छ किया हुआ जल शुद्ध-स्वर स्फटिकमणिके भाजनमें नितरा लेनेपर सर्वथा निर्मल एवं शुद्ध होता है, उसी प्रकार क्षीणकषाय संयतको भी निर्मल, स्वच्छ एवं शुद्ध परिणाम वाला जानना चाहिए ।२५-२६॥ (ध. १/१, १.२१/१२३/११०), (गो.ज./म/६२), (पं.संस/१/४८)। रा, वा/8/१/२२/५६० सर्वस्य. सपणाच्च...क्षीणकषाय' । समस्त
मोहका क्षय करनेवाला क्षीणकषाय होता है। ध १/१,१,२०/१८१/८क्षीणः कषायो येषां ते क्षीणकषायाः। क्षीणकषायाश्च ते वीतरागाश्च क्षीणकषायवीतरागा । छद्मनि आवरणे तिष्ठन्तीति छद्मस्था' । क्षीण कषायवीतरागाश्च ते छद्मस्थाश्च क्षीणकषायवीतरागछद्मस्था'।= जिनकी कषाय क्षीण हो भनी है उन्हे क्षीणकषाय कहते हैं। जो क्षीणकषाय होते हुए वीतराग होते है उन्हें क्षीणकषाय-वीतराग कहते हैं। जो छद्म अर्थात् ज्ञानावरण और दर्शना. वरणमे रहते हैं उन्हे छद्मस्थ कहते हैं। जो क्षीणकषाय वीतराग होते हुए छद्मस्थ होते हैं उन्हे क्षीणकषाय-वीतराग-छद्मस्थ कहते है। द्र सं/टी०/१३/३३/४ उपशमश्रेणिविलक्षणेन क्षपकश्रेणिमार्गेण निष्कषायशुद्धात्मभावनाबलेन क्षीणकषाया द्वादशगुणस्थानवर्तिनो भवन्ति । - उपशम श्रेणीसे भिन्न क्षपक श्रेणी के मार्ग से कषाय रहित शुद्धात्माकी भावनाके बलसे जिनके समस्त कपाय नष्ट हो गये हैं वे बारहवें गुणस्थानवर्ती होते हैं।
२. सम्यक्त्व व चारित्र दोनोंकी अपेक्षा इसमें क्षायिक भाव है ध/१/१,१,२०/१६०/४ पञ्चसु गुणेषु कस्मादस्य प्रादुर्भाव इति चेद
द्रव्यभाववैविध्यादुभयात्मकमोहनीयस्य निरन्वयविनाशारक्षायिक. गुणनिबन्धन' ।-प्रश्न-पाँच प्रकार के भावों मेंसे किस भावसे इस गुणस्थानकी उत्पत्ति होती है ! उत्तर-मोहनीयकर्मके दो भेद हैद्रव्यमोहनीय और भावमोहनीय । इस गुणस्थानके पहले दोनों प्रकारके मोहनीयकर्मका निरन्वय (सर्वथा) नाश हो जाता है, अतएव इस गुणस्थानकी उत्पत्ति क्षायिक गुणसे है। ३. शुम प्रकृतियोंका अनुभाग घात नहीं होता ध. १२/४,२.७.१४/१८/२ खीणकसाय-सजोगीसु द्विदि-अणुभागघादेसु सतेसु वि सुहाणं पयडीणं अणुभागघादो त्थि त्ति सिद्धे । क्षीणकषाय और सयोगी गुणस्थानों में स्थिति धात व अनुभाग घात होनेपर भी शुभ प्रकृतियों के अनुभागका धात वहाँ नहीं होता।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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