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क्षयोपशम
३. क्षयोपशम सम्यक्त्व व संयमादि आरोहण विधि १. क्षयोपशम सम्यक्त्व आरोहणमें दो करण हो हैं सा./जी.अ./१०२/२२४६ कर्मणा क्षयोपशमनविधाने निर्मुलक्षयविधाने चानिवृत्तिकरणपरिणामस्य व्यापारो न क्षयोपशम विधाने इति प्रवचने प्रतिपादितत्वात् । कर्मोंके उपशम वा क्षय विधान ही विषै अनिवृत्तिकरण हो है । क्षयोपशम विषै होता नाहीं । ऐसा प्रवचनमें कहा है ।
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२. संयमासंयम आरोहणमें कथंचित् ३ व २ करण घ. /६/१,६-८,१४/२७०/१० पढमसम्मत्तं संजमासंजमं च अकमेण पडि
जावितिणि वि करणानि कुजदि जम्मादिट्ठी अट्ठावीससंतकमियवेदगासम्म पाओणमच्यादिट्ठी वा जदि स मासजमं पडिवज्जदि तो दो चैव करणाणि, अनियट्टीकरणस्स अभावादो । - प्रथमोपशमं सम्यक्त्वको और संयमासंयमको एक साथ प्राप्त होने वाला जीव भी तीनों ही करणों को करता है । असंयतसम्यग्दृष्टि अथवा मोहनीय कर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियो की सत्तावाला वेदकसम्यक्त्व प्राप्त करनेके योग्य मिथ्यादृष्टि जीव यदि संयम संयमको प्राप्त होता है, तो उसके दो ही करण होते, हैं क्योंकि उसके अनियत्तिकरण नहीं होता है। (६/१.१.१४/२६/१/ (.सा./मू./१०९)।
घ. ६/१.१८.१४/२०१६ जरि संजमासजमादो परिणामपवरण णिग्गदो संतो पुणरवि अंतोमुहुत्तेण परिणामपच्चएण आणीदो संजमा संजमं पडवज्जदि, दोह करणाणमभावादो तत्थ णत्थि ट्ठिदिधादो अणुभागदादो वा कुदो पृथ्धं दोहि करहियादिददि अनुभागान बड्डीहि विमा संक्रमास जनस्स पुगरागतादो यदि परिणामौके योगसे संग्रमासंयमसे निकला हुआ, अर्थात् गिरा हुआ, फिर भी अन्तर्मुहूर्त के द्वारा परिणामों योगले लाया हुआ संयमायमको प्राप्त होता है तो अधकरण और अपूर्वकरण. इन दोनों करणीका अभाव होनेसे वहाँ पर स्थितिघात व अनुभाग घात नही होता है। क्योकि पहले उक्त दोनो करणीके द्वारा घात किये गये स्थिति और अनुभागो की वृद्धि बिना वह संग्रमास यमको पुन प्राप्त हुआ है । ल. सा./मू./१००-१७१ मिच्छो देसचरितं वेदगसम्मेण गेण्हमाणो हु दुकरणपरिमे गेहादि गुणसेवी परिच तस्कर सम्पत्ति वा थोच होदि करणार्ण ठिदिवंटसहरुसग अव्यकरणं समपदि हु । १७१। अनादि वा सादि मिध्यादृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्व सहित देश चारित्रको गृहै है सो दर्शनमोहका उपशम विधान जैसे पूर्वे वर्णन किया ते से ही विधान करि तीन करणनिकी अन्त समय विषै देश चारित्रको गृहे है ।१७०| सादि मिथ्यादृष्टि जीव वेदक सम्यक्व सहित देश चारित्रको ग्रहण करें ताके अधकरण और अपूर्वकरण से ही ही करण होड, तिनि विधै गुणश्रेणी निर्जरान होड़।०९।
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३. संयमासंयम आरोहण विधान लगा/जी.प./१०० १०६ सारा सादि अथवा अनादि मिध्यादृष्टि जीव उपशम सम्यक्त्व सहित जन ग्रहण करता है तब दर्शनमोह विधानवत तैसे विधान करके तीन करणनिका अन्त समयविषै देशचारित्र ग्रहै है १९७०॥ सादि मिध्यादृष्टि जीव वेदक सम्यक्त्व सहित देश चारित्रको ग्रहै है ता अधःकरण अपूर्वकरण ए दोय ही करण होय तिनवि गुणश्रेणी निर्जरा न हो है अन्य स्थिति खण्डादि सर्व कार्योंको करता हुआ अपूर्वकरणके अन्त समय में युगपद क
अर देशचारित्रकोण पर है। महाँ अनिवृत्तिकरण के बिना
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३. क्षयोपशम सम्यक्त्व व संयमादि आरोहण विधि
भी इनकी प्राप्ति संभव है। बहुरि अपूर्व करणका कालविषै संख्यात हजार स्थिति खण्ड भयें अपूर्वकरणका काल समाप्त हो है । असंयत वेदक सम्यग्दृष्टि भी दोय करणका अंतसमय विषै देशचारित्रको प्राप्त हो है। मिथ्यादृष्टिका व्याख्यान तैं सिद्धान्त के अनुसारि असंयतका भी ग्रहण करना । १७१-१७२। अपूर्वकरणका अन्त समय के अनन्तरवर्ती समय विषै जीव देशबती होइ करि अपने देश का काल विषे आयुके बिना अन्य कर्मनिका सर्व सत्त्व द्रव्य अपकर्षणकरि उपरितन स्थिति विषै अर बहुभाग गृणश्रेणी आयाम विषै देना ११७३| देशसंयत प्रथम समय लगाय अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त समय-समय अनन्तगुणा विशुद्धता करि बंधे है सोयाको एकान्तवृद्धि देशसंयत कहिये । इसके अन्तर्मुहूर्त काल पश्चात् विशुद्धताको वृद्धि रहित हो स्वस्थान देशसंयत होड़ याकौ अथाप्रवृत्त देशसंयत भी कहिये । १७४ | अथाप्रवृत्त देशसंयत जीव सो कदाचित् विशुद्ध होइ कदाचित संक्लेशी होइ तहाँ विवक्षित कर्मका पूर्व समयनिये जो अपकर्षण कीया तातें अनन्तर समय विशुद्धताकी वृद्धिके अनुसारि चतु स्थान पतित वृद्धि लिये गुणश्रेणि विषै निक्षेपण करें है।
४. क्षायोपशमिक संयममें कथंचित् ३ व २ करण घ. ६/१.६-८,१४/२८१ / १ तत्थ ओबसमचारिसपविवहा उच्चदे । तं जहा - पढमसम्मत्तं संजमं च जुगवं पडिवज्जमाणो तिष्णि विकरणाणि काऊण पडिवज्जदि ।...जदि पुण अट्ठावीससंतकम्मओ मियादिट्ठी असदसम्माहट्टी जहाज वा संज पडिवज्जदि तो दो चैव करणाणि, अणियट्टीकरणस्स अभावादो । ...जमादो विग्दो अज दिद्विदितक्रमेण अडिदेण पुणो संजमं पडिवज्जदि तस्स संजमं पडिवज्जमाणस्स अपुठवकरणाभाषादो र द्विविधादो अणुभागवादो वा असंजम मंतृण मतावितिदि अणुभागसंतकम्मस्स दो वि वादा मोहि करणेहि विणा तस्स संजमग्गहणाभावा । क्षायोपशमिक चारित्रको प्राप्त करनेका विधान कहते हैं। वह इस प्रकार है - प्रथमोपशम सम्यare और संयमको एक साथ प्राप्त करनेवाला जीव तीनोंही क्रणों को करके ( संयम को ) प्राप्त होता है पुनः मोहनीयकर्म की लड़ाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, अथवा संयतासंत जीव संयमको प्राप्त करता है, तो दो ही करण होते हैं, क्योंकि, उसके अनिवृत्तिकरणका अभाव होता है. संयमसे निकलकर और असंयमको प्राप्त होकर यदि अवस्थित स्थिति सबके साथ पुनः संयमको प्राप्त होनेवाले उस जीव के अपूर्वकरणका अभाव होनेसे न तो स्थिति घात होता है और न अनुभाग घात होना है । ( इसलिए वह जीव संयमासंयमवत् पहले ही दोनों करणों द्वारा घात किये गये स्थिति और अनुभागकी वृद्धिके बिना ही करणोंके संयमको प्राप्त होता है) किन्तु असंयमको जाकर स्थिति सत्त्व और अनुभाग सत्त्वको बढानेवाला जीवके दोनों ही घात होते हैं क्योंकि दोनों करणों के बिना उसके संयमका ग्रहण नहीं हो सकता ।
५. क्षायोपशमिक संयम आरोहण विधान .सा./१०१११० सवनचरितं तहिं समयसम एक्स खइयं च । सम्मन्तुवन्ति वा उवसमसम्मेण गिरहदो पढमं । १८६६ वेदकजोगो मिच्छो अविरददेसो य दोणि करणेण । देसवदं वा गिहृदि गुणसेढी णत्थि तवकरणे ॥ ११०॥
स सा./जी. १/१२९/२४२/ ३ः परमण्यमहुत्पर्यन्तं देश याशी प्रक्रिया तादृश्येवात्रापि सकलसंयते भवतीति ग्राह्यम् । अयं तु विशेषयत्र यत्र देशसंयत इत्युच्यते तत्र तत्र स्थाने विरत इति वक्तव्यं भवति । १. सकल चारित्र तीन प्रकार हैं- क्षायोपशमिक, औपशमिक व क्षाकि वहाँ पहला क्षायोपशमिक चारित सातवा छठे गुणस्थान
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