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क्षीणकषाय
४. क्षीणकषाय गुणस्थान में जीवोंका शरीर निगोद राशिसे शून्य हो जाता है
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ष खं / १४ / ५-६ / ३६२/४८७ सब्बुक्कस्सियाए गुणसेडीए मरणेण मदाण सरचिरेण कालेन पिल्ले विज्यमाणा तेसि चरिमसमए मदावसिद्रा आलिया अखंखेज्जदिमागमेचो गिगोदाणं ॥ ६३२॥
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घ. १४/५.६.६३/०५/१ खीणकायस्स पढमसमए अनंता बावरणिगोदजीवा मति । विदियसमर विसेसाहिया जीना मर ति...एवं तदिवसमयादिवितेसाहिया मिसेसाहिया मरंति जान खीपकसायद्धाए पढमसमय पहुडि आवलियपुधत्तं गदं त्ति । तेण परं संज्जदि भागव्भहिया संखेज्जदि भागम्भहिया मरंति जान योगसायचा आवलियाए अज्जदि भागो सेसो सि सदो उवरिमाणतरसमए असंखेज्जगुणा मरंति एवं असंखेज्जगुणा असखेज्जगुणा मरंति जाव खीणकसायच रिमसमओ ति । एवमुवरि पि जागिण मत जाम लीकसायचरिमसमओ १ि. सर्वोत्कृष्ट गुणश्रेणि द्वारा मरणसे मरे हुए तथा सबसे दीर्घकालके द्वारा निर्लेप्य होनेवाले उन जीवोके अन्तिम समयमें मृत होनेसे बचे हुए निगोदोका प्रमाण आवलिके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। | ३६२ । २ क्षीणकषाय हुए जीवके प्रथम समयमें अनन्त बादर निगोद जीव मरते है। दूसरे समय मे विशेष अधिक जीव मरते है |... इसी प्रकार तीसरे आदि समयों विशेष अधिक विशेष अधिक जीव मरते हैं। यह क्रम क्षीणकषायके प्रथम समयसे लेकर आवलि पृथक्त्व काल तक चालू रहता है। इसके आगे संख्यात भाग अधिक संख्यात भाग अधिक जीव मरते है । और यह क्रम क्षीणकषाय कालमें आवलिका संख्यातवाँ भाग काल शेष रहने तक पाद रहता है। इसके आगे के लगे हुए समयमे असंख्यात गुणे जीव मरते है । इस प्रकार क्षीण कषायके अन्तिम समय तक असंख्यातगुणे जीव मरते हैं ।... इसी प्रकार आगे भी क्षीणकषायके अन्तिम समय तक जानकर कथन करना चाहिए। ( ध १४ / ५,६,/६३२/४८२/१० ) । १४/५.६०६३/११/१ संपहि खोजकसापहमसमहुड ताब बारणिगोदजीवा उपज्जेति जाव तेसि चैव जहणाउवकालो सेसो त्ति | ते पर ण उप्पज्जेति । कुदो । उप्पण्णाणं जीवणीयकालाभावादो । तेण कारणेण बादरणिगोदजीवा एतो प्पहुडि जाव खीणकसायचरिमसमओ ति ताव सुद्धा मरंति चेत्र ।
घ. १४/१६.१२/१३८/३ खीसावा ओग्गबादरणिगोदवसज्य कालमाभावादी भावे वाण कस्स वि वि होण सायम्मि बादरणिगोदासंतीए केवल गुप्पत्तिविरोहादो।" १. क्षीणकषायके प्रथम समयसे लेकर बादर निगोद जीव तबतक उत्पन्न होते हैं जबतक क्षीणकषायके कालमें उनका जघन्य आयुका काल शेष रहता है। इसके बाद नही उत्पन्न होते; क्योकि उत्पन्न होनेपर उनके जीवित रहनेका काल नहीं रहता, इसलिए बादरगिगोदजोब यहाँ से लेकर श्रीयके अन्तिम समय तक केवल मरते हो है। २. क्षीणकषाय प्रायोग्य बादर निमोदवर्गणाओंका सर्वदा अवस्थान नहीं पाया जाता। यदि उनका अवस्थान होता है तो किसी भी जीवको मोक्ष नहीं हो सकता है, क्योकि श्रीण कषायमे बादर निगोदवर्गणाके रहते हुए केवलज्ञानकी उत्पत्ति होनेमे विरोध है ।
५. हिंसा होते हुए भी महावती कैसे हो सकते हैं
घ. १४/५.६.१२/८६/६ किमटूलमेदे एत्थ मर ति । ज्झाणेण णिगोदजीवप्पत्तिदि उदारण पिरोहादो का वर्ग तातीरासह सागं कर्म अप्पारा से करे वा कथमहिसालमपंच महव्वयसभवी । ण, बहिरंग हिमाए आसवत्ताभावादो । - प्रश्न- ये निगोद जीव यहाँ क्यो मरणको प्राप्त होते है ? उत्तर- क्योकि ध्यान
से निगोदजीवीको उत्पत्ति और उनकी स्थितिके कारणका निरोध
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क्षुधापरीषह
हो जाता है। प्रश्न-ध्यानके द्वारा अनन्तानन्त जीवराशिका हनन करनेवाले जीवोको निर्वृत्ति कैसे मिल सकती है। उत्तर- अप्रमाद होनेसे । प्रश्न- हिंसा करनेवाले जीवोंके अहिसा लक्षण पाँच महावत ( आदिरूप अप्रमाद ) कैसे हो सकता है ? उत्तर- नहीं, क्योंकि बहिरंग हिसासे, आसव नहीं होता।
अन्य सम्बन्धित विषय
* क्षपक श्रेणी
-दे० श्रेणी/२ ।
* इस गुणस्थानमें योगकी सम्भावना व तत्सम्बन्धी शंका-समाधान - दे० योग / ४ । * इस गुणस्थानके स्वामित्व सम्बन्धी जीवसमास, मार्गणास्थानादि २० प्ररूपणाएँ - दे० सत् ।
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० वह वह नाम 1
सत्त्व ।
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व
* सभी मार्गणास्थानोंमें आयके अनुसार ही
- दे० वह वह नाम । व्यय होनेका नियम - दे० मार्गणा ।
क्षीरकदंबपु. / ११ / श्लोक, नारद व वसुका गुरु तथा नारदका पिता था। (१६) / शिष्योके पढाते समय मुनियोंकी भविष्यवाणी सुनकर दीक्षा धारण कर ली (२४) / (म. पु./६७/२५८-३२६) । क्षीररसक्षीरवर- मध्यलोकका पंचम द्वीप व सागर-दे० लोक /५/१। क्षीरस्रावी ऋद्धि-३०/८
एक ग्रह दे० ग्रह |
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क्षीरोदा- अपर विदेहस्थ एक विभंगा नदी - दे० लोक / ७/८ क्षुद्रभव-एक अन्तर्मुहूर्त में सम्भव भय प्रमाण–०७ क्षुद्र हिमवान्- दे० हिमवान् । द्रहका कूट- दे० लोक /५/७ । क्षुधापरीषह- १. लक्षण
स.सि./६/१/४२०/६ भिक्षोर्नियाहारगवेषणस्तदा पला अनिवृत्तवेदनस्याकाले देश भिक्षा प्रतिनिवृसंभ्रा ष्ट्रपतिततमिन्दुकतिपययत्सहसा परिशुष्कपानस्योदीर्णदस्थापि सतो सतोभिक्षालाभादलाभमधिकगुणं मन्यमानस्य क्षुद्बाधाप्रत्यचिन्तनं क्षुद्विजयः । = जो भिक्षु निर्दोष आहारका शोध करता है। जो भिक्षा के नहीं मिलने पर या अल्प मात्रामे मिलनेपर क्षुधाको वेदनाको प्राप्त नही होता, अकालमे या अदेशमें जिसे भिक्षा लेनेकी इच्छा नहीं होती जयन्तु गर्म भाण्डमें गिरी हुई जलकी कतिपय दो समान जिसका जलपान भूख गया है, और क्षुधा वेदनाकी उदीरणा होनेपर भी जो भिक्षा लाभकी अपेक्षा उसके अलाभको अधिक गुणकारो मानता है, उसका युवाजन्य बाधाका चिन्तन नहीं करना क्षुधापरोपहजय है । (रावा./१/६/२/६०८); (चा. सा. / १०८/५ ) ।
२. क्षुधा और पिपावामें अन्तर
रामा /१/६/२/६० / ३२ पिपासयो पृथग्वचनमनर्थकम् । कुत" । ऐकादिति तन, कि कारण सामर्थ्यभेदात् अन्यधिः सामर्थ्यमन्यपिपासाया अभ्यवहारसामान्यात् कार्यमिति तदपि
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