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कषाय
कल्याणक व्रत
ही प्रतिदिन तीर्थकर नामक पुण्य प्रकृतिके प्रभावसे, जितशत्रुके धरमें इन्द्रकी आज्ञासे कुबेरने साढे तीन करोड रत्नोंकी वृष्टि की।
8. उन रत्नोंको याचक लोग बे-रोकटोक ले जाते थे। ह.पु/३७/३ तया पतन्त्या वसुधारयार्धभात्रिकोटिसंख्यापरिमाणया जगत । प्रतपितं प्रत्यहमर्थि सर्वत' क पात्रभेदोऽस्ति धनप्रवर्षिणाम्।३। -वह धनकी धारा प्रतिदिन तीन बार साढे तीन करोडकी संख्याका परिमाण लिये हुए पड़ती थी और उसने सब ओर याचक जगतको सन्तुष्ट कर दिया था। सो ठीक ही है। क्योंकि, धनकी वर्षा करनेवालोको पात्र भेद कहाँ होता है ।
* हीनादिक कल्याणकवाले तीर्थकर-दे. तीर्थंकर कल्याणक व्रत
१. कल्याणक व्रत-पहले दिन दोपहरको एकलठाना (कल्याणक तिथि उपवास तथा उससे अगले दिन आचाम्ल भोजन (इमली व भात) खाये। इस प्रकार पंचकल्याणककी १२० तिथियों के १२० उपवास ३६० दिनमें पूरे करे। ( ह. पु./३४/१११-११२) । २. चन्द्र कल्याणक व्रत-क्रमश' ५ उपवास, ५ कांजिक (भात व जल );1. एकलठाना ( एक बार पुरसा); रूसाहार; मुनि वृत्तिसे भोजन (अन्तराय टालकर मौन सहित भोजन), इस प्रकार २५ दिनतक लगातार करे। (बर्द्धमान पुराण) (बत विधान संग्रह) पृ०६९) ३. निर्वाण कल्याणक व्रत-चौबीस तीर्थंकरोंके २४ निर्वाण तिथियोमे उनसे अगले दिनों सहित दो-दो उपवास करे। तिथियोंके लिए देखो तीर्थंकर ५। (वत विधान संग्रह। पृ०१२४) (किशन सिह क्रिया कोश)। ४. पंच कल्याणक व्रत-प्रथम वर्ष में २४ तीर्थकरोंकी गर्भ तिथियोके २४ उपवास, द्वितीय वर्ष में जन्म तिथियोंके २४ उपवास: तृतीय वर्ष में तप कल्याणककी तिथियोंके २४ उपवास, चतुर्थ वर्ष में ज्ञान क्ल्याणककी तिथियोके २४ उपवास और पंचम वर्ष में निर्वाण कल्याणककी तिथियों के २४ उपवास-इस प्रकार पाँच वर्ष में १२० उपवास करे। "ॐ ह्रीं वृषभादिवीरान्तेभ्यो नमः" इस मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे। -यह बृहद् विधि है। एक ही वर्ष में उपरोक्त सर्व तिथियोके १२० उपवास पूरे करना लघु विधि है। "ॐ ह्रीं वृषभादिचतुविशतितीर्थकराय नमः" इस मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे। (पंच कल्याणककी तिथिमें-दे० तीर्थकर ५)। (व्रत विधान संग्रह । पृ० १२६ ) (किशन सिंह कथा कोश) ५. परस्पर कल्याणक व्रत-१. बृहद् विधि--पंच कल्याणक, ८ प्रातिहार्य, ३४ अतिशय-सब मिलकर प्रत्येक तीर्थंकर सम्बन्धी ४७ उपवास होते हैं। २४ तीर्थंकरों सम्बन्धी ११२८ उपवास एकांतरा रूपसे लगातार २२५६ दिनमें पूरे करे। (ह. पु./३४/१२५) २. मध्यम विधि-क्रमशः १ उपवास, ४ दिन एकलठाना (एक बारका परोसा); ३ दिन कांजी (भात व जल );२ दिन लक्षाहार; २ दिन अन्तराय टालकर मुनि वृत्तिसे भोजन और १दिन उपवास इस प्रकार लगातार १३ दिन तक करे। नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप्य दे। (बर्द्ध मान पुराण ) ( व्रत विधान संग्रह | पृ०७०) ३. लघु विधि-क्रमशः १ उपवास, १ दिन कांजी (भात व जल); १दिन एकलठाना ( एक बार पुरसा ); १ दिन रूझाहारः १ दिन अन्तराय टालकर मुनिवृत्तिसे आहार, इस प्रकार लगातार पाँच दिन करे। नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप्य । (वर्तमान पुराण) (व्रत विधान संग्रह/पृ०६१) ६. शोल कल्याणक व्रत-मनुष्यणी, तिर्यचिनी, देवांगना व अचेतन खो इन चार प्रकारकी स्त्रियोंमें पाँचों इन्द्रियों व मन वचन काय तथा कृत कारित अनुमोदनासे गुणा करनेपर १८० भंग होते है।
३६० दिनमें एकान्तरा क्रमसे १८० उपवास पूरा करे। नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे। (ह.पु/३४/११३) (वत विधान संग्रह/पृ०६८) (किशन सिंह क्रियाकोश) ७. ध्रुति कल्याणक व्रत-क्रमशः५ दिन उपवास, दिन कांजी (भात व जल ); ५दिन एकलठाना ( एक बार पुरसा) ५ दिन रूक्षाहार, ५ दिन मुनि बृत्तिसे अन्तराय टालकर मौन सहित भोजन, इस प्रकार लगातार २५ दिन तक करे। नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप्य । (वत-विधान संग्रह/पृ०६६).(किशन सिंह क्रियाकोश) कल्याणमन्दिर स्तोत्र-श्वेताम्बराचार्य सिद्धसेन दिवाकर
(ई०५०८) कृत ४४ श्लोक प्रमाण पार्श्वनाथ स्तोत्र । (ती० २/२१५) । कल्याणमाला-(प. पु./३४/श्लो. नं० ) बाल्यखिल्यकी पुत्री थी।
अपने पिताकी अनुपस्थितिमें पुरुषवेशमें राज्यकार्य करती थी। ४०-४८ । राम लक्ष्मण द्वारा अपने पिताको म्लेच्छोकी मन्दीसे मुक्त हुआ जान (७६-१७) उसने लक्ष्मणको वर लिया (८०-११०)। कल्ली -भरत क्षेत्र पश्चिम आर्य खण्डका एक देश -मनुष्य/४ ) कवयव-एक ग्रह-दे० ग्रह। कवल-दे० ग्रास । कवलचन्द्रायण व्रत-किसी भी मासकी कृ०१५ को उपवास इससे आगे पडिमाको एक ग्रास, आगे प्रतिदिन एक-एक ग्रासकी वृद्धिसे चतुर्दशीको १४ ग्रास । पूर्णमाको पुनः उपवास । इससे आगे उलटा क्रम अर्थात कृ० १ को १४ ग्रास, फिर एक-एक ग्रासकी प्रति दिन हानिसे कृ० १४ को १ ग्रास और अमावस्याको उपवास। इस प्रकार पूरे १महीने तक लगातार करे । नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप्य । (ह. पु./३४/११) (बत-विधान संग्रह/पृ०१८) (किशनचन्द्र क्रियाकोश)। कवलाहार-१ कयलाहार निर्देश-दे० आहार /1/१।
२. केवलीको कवलाहारका निषेध-दे० केवली/४ । कवाटक- भरतक्षेत्र आर्यखण्डमें मलयगिरि पर्वतके निकट स्थित
एक पर्वत-दे० मनुष्य/४। कषाय-आत्माके भीतरी कलुष परिणामको कषाय कहते हैं। यद्यपि क्रोध मान माया लोभ ये चार ही कषाय प्रसिद्ध हैं पर इनके अतिरिक्त भी अनेकों प्रकारकी कषायोंका निर्देश आगममें मिलता है। हास्य रति अरति शोक भय ग्लानि व मैथुन भाव ये नोकषाय कही जाती हैं, क्योंकि कषायवत व्यक्त नहीं होती। इन सबको ही राग व द्वेष में गर्भित किया जा सकता है। आत्माके स्वरूपका घात करनेके कारण कषाय ही हिंसा है। मिथ्यात्व सबसे बड़ी कषाय है।
एक दूसरी दृष्टिसे भी कषायौंका निर्देश मिलता है। वह चार प्रकार है-अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्यारख्यान व संज्वलनये भेद विषयोंके प्रति आसक्तिको अपेक्षा किये गये हैं और क्योंकि वह आसक्ति भी क्रोधादि द्वारा ही व्यक्त होती है इसलिए इन चारोंके क्रोधादिके भेदसे चार-चार भेद करके कुल १६ भेद कर दिये है। तहाँ क्रोधादिकी तीव्रता मन्दतासे इनका सम्बन्ध नहीं है बल्कि आसक्तिकी तीव्रता मन्दतासे है। हो सकता है कि किसी व्यक्ति में कोधादिकी तो मन्दता हो और आसक्तिकी तीव्रता। या क्रोधादिकी तीव्रता हो और आसक्तिकी मन्दता। अतः क्रोधादिकी तीव्रता मन्दताको लेश्या द्वारा निर्दिष्ट किया जाता है और आसक्तिकी तीवता मन्दताको अनन्तानुबन्धी आदि द्वारा।
कषायोंकी शक्ति अचिन्त्य है। कभी-कभी तीन कषायवश आत्माके प्रदेश शरीरसे निकलकर अपने बैरीका घात तक कर आते हैं, इसे कषाय समुद्धात कहते हैं ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
भा०२-५
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