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कल्याणक
कल्याणक
वे नहीं होते हैं। नवनिर्मित जिन बिम्बकी शुद्धि करनेके लिए जो पंच कल्याणक प्रतिष्ठा पाठ किये जाते है वह उसी प्रधान पंच कल्याणककी कल्पना है जिसके आरोप द्वारा प्रतिमामें असली तीर्थंकरकी स्थापना होती है।
१. पंच कल्याणकों का नाम निर्देश ज. प./१३/६३ गम्भावयारकाले जम्मणकाले तहेव णिक्खमणे । केवलणाणुप्पण्णे परिणिव्वाणम्मि समयम्मि ६३ जो जिनदेव गर्भाबतारकाल, जन्मकाल, निष्क्रमणकाल, केबलज्ञानोत्पत्तिकाल और निर्वाणसमय, इन पाँच स्थानों (कालों )में पाँच महा-कल्याणकोंको प्राप्त होकर महाऋद्धियुक्त सुरेन्द्र इन्द्रोंसे पूजित हैं ।१३-६४।
२. पंच कल्याणक महोत्सवका संक्षिप्त परिचय १. गर्भकल्याणक-भगवान्के गर्भ में आनेसे छह मास पूर्वसे लेकर
जन्म पर्यन्त १५ मास तक उनके जन्म स्थानमें कुबेर द्वारा प्रतिदिन तीन बार ३३ करोड रत्नोंकी वर्षा होती रहती है। दिक्कुमारी देवियाँ माताको परिचर्या व गर्भ शोधन करती हैं। गर्भवाले दिनसे पूर्व रात्रिको माताको १६ उत्तम स्वप्न दीखते हैं, जिनपर भगवान्का अवतरण निश्चय कर माता पिता प्रसन्न होते हैं। (प. पु./३/११२१५७) (ह. पु. ३०/१-४७) (म. पु./१२/८४-१६५)
२. जन्म कल्याणक-भगवानका जन्म होनेपर देवभवनों व स्वर्गों आदिमें स्वयं घण्टे आदि बजने लगते हैं और इन्द्रोके आसन कम्पायमान हो जाते हैं जिससे उन्हें भगवानके जन्मका निश्चय हो जाता है। सभी इन्द्र व देव भगवान्का जन्मोत्सव मनानेको बड़ी धूमधामसे पृथिवीपर आते हैं। अहमिन्द्रजन अपने-अपने स्थानपर ही सात पग आगे जाकर भगवानको परोक्ष नमस्कार करते हैं। दिक्कुमारी देवियाँ भगवान्के जातकर्म करती हैं। कुबेर नगरको अदभुत शोभा करता है। इन्द्रकी आज्ञासे इन्द्राणी प्रसूतिगृहमें जाती है, माताको माया निद्रासे सुलाकर उसके पास एक मायामयी पुतला लिटा देती है और बालक भगवान्को लाकर इन्द्रकी गोदमें दे देती है, जो उनका सौन्दर्य देखनेके लिए १००० नेत्र बनाकर भी सन्तुष्ट नहीं होता। ऐरावत हाथीपर भगवान्को लेकर इन्द्र सुमेरुपर्वतकी
ओर चलता है। वहाँ पहुँचकर पाण्ड्डक शिलापर, भगवानका क्षीरसागरसे देवों द्वारा लाये गये जलके १००८ कलशों द्वारा, अभिषेक करता है । तदनन्तर बालकको वस्त्राभूषणसे अलंकृत कर नगरमें देवों सहित महान उत्सबके साथ प्रवेश करता है। बालकके अंगूठेमें अमृत भरता है, और ताण्डव नृत्य आदि अनेकों मायामयी आश्चर्यकारी लीलाएँ प्रगट कर देवलोकको लौट जाता है। दिक्कुमारी देवियाँ भी अपने-अपने स्थानोंपर चली जाती हैं। (प. पु./३/१५८-२१४) (ह.पु/३८/५४ तथा ३१/१५ वृत्तान्त) (म. पु./१३/४-२१६) (ज. प./४/१५२-२६१)।
३. तपकल्याणक-कुछ कालतक राज्य विभूतिका भोग कर लेनेके पश्चात् किसी एक दिन कोई कारण पाकर भगवानको वैराग्य उत्पन्न होता है। उस समय ब्रह्म स्वर्गसे लौकान्तिक देव भी आकर उनको वैराग्य बर्द्धक उपदेश देते हैं। इन्द्र उनका अभिषेक करके उन्हें वस्त्राभूषणसे अलंकृत करता है। कुबेर द्वारा निर्मित पालकीमें भगवान् स्वयं बैठ जाते हैं। इस पालकीको पहले तो मनुष्य कन्धोंपर लेकर कुछ दूर पृथिवीपर चलते हैं और देव लोग लेकर आकाश मार्ग से चलते हैं। तपोवन में पहुँचकर भगवान वस्त्रालंकारका त्यागकर केशोंका लुचन कर देते हैं और दिगम्बर मुद्रा धारण कर लेते हैं । अन्य भी अनेकों राजा उनके साथ दीक्षा धारण करते हैं। इन्द्र उन केशोंको एक मणिमय पिटारेमें रखकर क्षीरसागरमें क्षेपण करता है। दीक्षा स्थान तीर्थ स्थान बन जाता है। भगवान् बेला तेला आदिके नियमपूर्वक 'ॐ नमः सिद्धेभ्यः' कहकर स्वयं दीक्षा ले लेते
हैं क्योंकि वे स्वयं जगद् गुरु हैं। नियम पूरा होनेपर आहारार्थ नगरमें जाते हैं और यथाविधि आहार ग्रहण करते हैं। दातारके घर पंचाश्चर्य प्रगट होते हैं। (प. पु /३/२६३-२८३ तथा ४/१-२०) (ह. पु./५५/१००-१२६ ) (म. पु/१७/४६-२५३)।
४. ज्ञान कल्याणक-यथा क्रम ध्यानकी श्रेणियोंपर आरूढ होते हुए चार धातिया कर्मों का नाश हो जानेपर भगवानको केवलज्ञान आदि अनन्तचतुष्टय लक्ष्मी प्राप्त होती है। तब पुष्प वृष्टि, दुन्दुभी शब्द, अशोक वृक्ष, चमर, भामण्डल, छत्रत्रय, स्वर्ण सिंहासन और दिव्य ध्वनि ये आठ प्रातिहार्य प्रगट होते है। इन्द्रकी आज्ञासे कुबेर समवशरण रचता है जिसकी विचित्र रचना से जगत चकित होता है। १२ सभाओंमें यथा स्थान देव मनुष्य तिर्यंच मुनि आर्यिका श्रावक श्राविका आदि सभी बैठकर भगवानके उपदेशामृतका पान कर जीवन सफल करते हैं।
भगवान्का विहार बड़ी धूमधामसे होता है । याचकोंको किमिच्छक दान दिया जाता है । भगवान्के चरणों के नीचे देव लोग सहस्रदल स्वर्ण कमलोंकी रचना करते है और भगवान् इनको भी न स्पर्श करके अधर आकाशमे ही चलते है। आगे-आगे धर्मचक्र चलता है। बाजे नगाडे बजते हैं। पृथिवी ईति भीति रहित हो जाती है। इन्द्र राजाओके साथ आगे-आगे जय-जयकार करते चलते हैं। मार्गमें सुन्दर क्रीडा स्थान बनाये जाते है। मार्ग अष्टमंगल द्रव्योंसे शोभित रहता है। भामण्डल, छत्र, चमर स्वतः साथ-साथ चलते हैं। ऋषिगण पीछे-पीछे चलते हैं । इन्द्र प्रतिहार बनता है। अनेकों निधियों साथ-साथ चलती हैं। विरोधी जीव वैर विरोध भूल जाते हैं। अन्धे बहरों को भी दिखने सुनने लग जाता है। (प. पु./१।२१-५२) (ह. पु./५६/११२-११८, ५७/१, ५६/१-१२४ ) (म. पु. सर्ग २२ व २३ पूर्ण )।
५. निर्वाण कल्याणक-अन्तिम समय आनेपर भगवान योग निरोध द्वारा ध्यानमें निश्चलता कर चार अधातिया कर्मोंका भी नाश कर देते हैं और निर्वाण धामको प्राप्त होते हैं ॥ देव लोग निर्वाण कल्याणककी पूजा करते है। भगवान्का शरीर काफूरकी भाँति उड़ जाता है । इन्द्र उस स्थान पर भगवान्के लक्षणोसे युक्त सिद्धशिलाका निर्माण करता है । ( ह. पु./६५११-१७ ); (म. पु/४७/३४३-३५४)।
३. पंच कल्याणकोंमें १६ स्वर्गाके देव व इन्द्र स्वयं
आते हैं ह. पु./८/१३१ स्वाम्यादेशे कृते तेन चेलुः सौधर्मवासिनः । देवैश्चाच्युतपर्यन्ताः स्वयंबुद्धा सुरेश्वरा ॥१३१०, =सेनापतिके द्वारा स्वामीका
आदेश सुनाये जाते ही सौधर्म स्वर्ग में रहनेवाले समस्त देव चल पड़े। तथा अच्युत स्वर्गतकके सर्व इन्द्र स्वयं ही इस समाचारको जान देवोंके साथ बाहर निकले । (ज.प/४/२७३-२७४) ।
४. पंच कल्याणकों में देवोंके वैक्रियक शरीर आते हैं देव स्वयं नहीं आते
ति. प./4/१६५ गम्भावयारपहुदिसु उत्तरदेहा सुराण गच्छति । जम्मणठाणेसु सुहं मूलसरीराणि चेट्ठति ॥५६॥ =गर्भ और जन्मादि कल्याणको में देवों के उत्तर शरीर जाते है। उनके मूल शरीर सुखपूर्वक जन्मस्थानों में स्थित रहते हैं।
५. रत्नोंकी वृष्टिमें तीर्थंकरोंका पुण्य ही कारण है म. पु/४८/१८-२० तीर्थ कृन्नामपुण्यतः ॥१८तस्य शक्राज्ञया गेहे षण्मासात् प्रत्यहं मुहुः । रत्नान्यैलविलस्तित्र कोटीः साधं न्यपी पतत् ।२०। - उस महाभागके स्वर्गसे पृथिवीपर अवतार लेनेके छह माह पूर्व से
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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