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कल्की
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कल्याणक
३, आगम व इतिहासके निर्देशोंका समन्वय
आगमके उपरोक्त उद्धरणोंमें कल्कीका नाम चतुर्मुख बताया गया है पर उसके पिताका नाम एक स्थानपर इन्द्र और दूसरे स्थानपर शिशुपाल कहा गया है। हो सकता है कि शिशुपाल ही इन्द्र नामसे विख्यात हो । इधर इतिहासमे तोरमाणका पुत्र मिहिरकुल कहा गया है। प्रतीत होता है कि तोरमाण ही इन्द्र या शिशुपाल है और मिहिरकुल ही वह चतुर्मुख है। समयको अपेक्षा भी आगमकारोका कुछ मतभेद है। तिल्लोय पण्णति व हरिवंशपुराणकी अपेक्षा उसका काल वी० नि० ६५८-१००० (ई० ४३१-४७३) और महापुराण व त्रिलोकसारकी अपेक्षा वह वी०नि० १०३०-१०७० (ई०५०३-५३३) है। इन दोनों मान्यताओमें विशेष अन्तर नहीं है । पहिलीमें कल्कीका राज्यकाल मिलाकर भगवान् के निर्वाणके पश्चात् १००० वर्ष की गणना करके दिखाई है अर्थात निर्वाणमे १००० वर्ष पश्चात् धर्म व संधका लोप दर्शाया है और दूसरी मान्यतामें वी०नि०१००० में कल्कीका जन्म बताकर ३० वर्ष पश्चात् उसे राज्यारूढ कराया गया है। दोनों ही मान्यताओमें उसका राज्यकाल ४० वर्ष बताया गया है। इतिहाससे मिलान करनेपर दूसरी मान्यता ठीक ऊंचती है, क्योंकि मिहिरकुलका काल ई०५०७-५२८ बताया गया है । ४. कल्कीके अत्याचार ति. प./४/१५११ अह सहियाण कक्को णियजोग्गे जणपदे पयत्तेण । सुक्कं
जाचदि लुद्धो पिंडरगं जाव ताव समणाओ ।१५११। तदनन्तर वह कक्की प्रयत्न पूर्वक अपने योग्य जनपदोंको सिद्ध करके लोभको प्राप्त होता हुआ मुनियोंके आहारमें-से भी प्रथम ग्रासको शुल्कके रूपमें माँगने लगा ।१५११। (ति. ५/१५२३-१५२६) (म. पु./७६/४१०) (त्रि. सा./८५३, ८५६)।
मिगवीस कक्की उवककी तेत्तिया य घम्माए । जम्मति धम्मदोहा जलणि हिउवमाणआउजुदो । १५३४ । वासतए अइमासे पक्खे गलिदम्मि पविसदे तत्तो । सो अदिदुस्समणामो छट्टो कालो महाविसमो। ११५३१ - इस प्रकार १००० वर्षोके पश्चात पृथक्-पृथक् एक-एक कक्की तथा ५०० वर्षोंके पश्चात् एक-एक उपकल्की होता है ।१५१६। इस प्रकार २१ कल्की और इतने ही उपकल्की धर्म के द्रोहसे एक सागरोपम आयुसे युक्त होकर धर्मा पृथिवी (प्रथम नरक) में जन्म लेते हैं ।१५३४। इसके पश्चात् ३ वर्ष ८ मास और एक पक्षके बीतनेपर महा विषम वह अतिदुषमानामका छठा काल प्रविष्ट होता है ।१५३५॥ (म. पु./७६/४३१-४४१) (त्रि. सा./८५७-८५६) । ८. कल्कीके समय चतुःसंघकी स्थिति ति. प./४/१५२१,१५३० वीरांगजाभिधाणो तक्काले मुणिवरो भवे एक्को।
सव्वसिरी तह विरदी सावयजुगमग्गिदत्तपंगुसिरी ११५२१२ ताहे चत्तारि जणा चउविहआहारसगपहूदीणं । जावजीवं छंडिय सण्णासं ते कर ति य ।१५३०। - उस समय वीरांगज नामक एक मुनि, सर्वश्री नामक आयिका तथा अग्निदत्त (अग्निल और पंगुश्री नाम श्राषक युगल ( श्रावक-श्राविका ) होते है ।१५२१। तब वे चारौं जन चार प्रकारके आहार और परिग्रहको जन्म पर्यन्त छोड़कर संन्यास ( समाधिमरण ) को ग्रहण करते हैं ।१५३०। (म. पु/७६/४३२-४३६) (त्रि. सा./८५८-८५६)। ९. प्रत्येक कल्कीके काल में एक अवधिज्ञानी मुनि ति. प./४/१५१७ कक्की पडि एक्केवकं दुस्समसाहुस्स ओहिणाणं पि।
संघा य चादुवण्णा थोवा जायंति तक्काले ।१५१७। प्रत्येक कलकीके प्रति एक-एक दुष्षमाकालवर्ती साधुको अवधिज्ञान प्राप्त होता है और उसके समयमें चातुर्वर्ण्य संघ भी अल्प हो जाता है ।१५१७॥" कल्प-१. साधु चर्याके १० कल्पोंका निर्देश १.-दे० साधु ।२। २. इन दसों कल्पोंके लक्षण-दे० वह वह नाम । ३. जिनकल्प-दे० जिन कल्प। ४. महाकल्प-श्रुतज्ञानका ११वाँ अंगबाह्य है-दे० श्रुतज्ञान | IIHI ५ स्वर्ग विभाग -दे० स्वर्ग १/२। कल्प काल-दे० काल /४। कल्पपुर-भरतक्षेत्रका एक नगर-दे० मनुष्य/४ । कल्पभूमि-समवशरणकी छठी भूमि-दे० समवशरण । कल्पवासी देव-दे० स्वर्ग १/३ । कल्पवृक्ष-१. कल्पवृक्ष निर्देश-दे० वृक्ष/१; । २, कल्पवृक्ष पूजा
दे० पूजा/१। कल्प व्यवहार-श्रुतज्ञानका हवाँ अंग बाह्य-दे० श्रुतज्ञान | III कल्पशास्त्र-दे० शास्त्र । कल्प स्वर्ग-दे० स्वर्ग। कल्पाकल्प-श्रुतज्ञानका हवाँ अंगबाह्य-दे० श्रुतज्ञान / III कल्पातीत-स्वर्ग विभाग -दे० स्वर्ग १/३। कल्याण-श्रुतज्ञान ज्ञानका १० वाँ पूर्व-दे० श्रुतज्ञान | III कल्याणक-जैनागममें प्रत्येक तीर्थकरके जीवनकालके पाँच प्रसिद्ध
घटनास्थलोंका उल्लेख मिलता है। उन्हें पंच कल्याणकके नामसे कहा जाता है, क्योंकि वे अवसर जगत्के लिए अत्यन्त कल्याण व मंगलकारी होते हैं । जो जन्मसे ही तीर्थकर प्रकृति लेकर उत्पन्न हुए हैं उनके तो ५ ही कल्याणक होते हैं, परन्तु जिसने अन्तिम भवमें ही तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध किया है उसको यथा सम्भव चार व तीन व दो भी होते हैं, क्योंकि तीर्थकर प्रकृतिके बिना साधारण साधकोंको
५. कल्कीकी मृत्यु ति. प.//१५१२-१५१३ दादूणं पिंडग्गं समणा कालो य अंतराणं पि। गच्छति आहिणाणं अप्पजइ तेसु एक्कम्मि ११५१२॥ अह को वि असुरदेवो ओहीदो मुणिगणाण उवसग्गं । णादूणं तं ककिं मारेदि हु धम्मदोहि त्ति ।१५१३। तब श्रमण अग्रपिण्डको शुल्कके रूपमें देकर और 'यह अन्तरायोंका काल है। ऐसा समझकर (निराहार ) चले जाते हैं। उस समय उनमें से किसी एकको अवधिज्ञान उत्पन्न हो जाता है ।१५१२। इसके पश्चात् कोई असुरदेव अवधिज्ञानसे मुनिगणके उपसर्गको जानकर और धर्मका द्रोही मानकर उस कल्कीको मार डालता है।१५१३। (ति. प./४/१५२६-१५३३) (म.पू./७६/४१५-४१४) (त्रि. सा./८५४)। ६. कल्कीके पश्चात् पुनः धर्मकी स्थापना ति. प./४/१५१४-१५१५ कक्किसुदो अजिदंजय णामो रक्षत्ति णम दि तच्चरणे । तं रक्खदि असुरदेओ धम्मे रज्जं करेज त्ति ।१५१४। तत्तो दोवे वासा सम्मद्धम्मो पयट्टदि जणाणं । कमसो दिवसे दिवसे कालमहप्पेण हाएदे ।१५१५। तब अजितंजय नामका उस कल्कीका पुत्र 'रक्षा करो' इस प्रकार कहकर उस देवके चरणोंमें नमस्कार करता है। तब वह देव 'धर्म पूर्वक राज्य करो' इस प्रकार कहकर उसकी रक्षा करता है ।१५१४। इसके पश्चात् दो वर्ष तक लोगोंमें समीचीन धर्मप्रवृत्ति रहती है, फिर क्रमशः कालके माहात्म्यसे वह प्रतिदिन हीन होती जाती है । १५१५। (म. पु /७६/४२८-४३०) (त्रि. सा./८५५-८५६)/७. पंचम कालमें कल्कियों व उपकल्कियोंका प्रमाण ति, प./४/१५१६, १५३४,१५३५ एवं वस्ससहस्से पुह पुह ककी हवा एक्केको । पंचसयवच्छरयसं एक्केको तह य उवककी ।१५१६। एव
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