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III कारण ( निमित्तकी मुख्यता गौणता)
४. निमित्तकी कथंचित प्रधानता
मान लेनेपर भी जीवके सम्पूर्ण प्रदेशों के द्वारा रूपादिकी उपलब्धिका प्रसंग भी नहीं आता है। क्योंकि, रूपादिके ग्रहण करने में सहकारी कारणरूप बाह्य निवृत्ति (इन्द्रिय) जीवके सम्पूर्ण प्रदेशोमे नहीं पायी जाती है। ५. निमित्तके बिना केवल उपादान व्यावहारिक काय करनेको समर्थ नहीं है
घ./१.६-६/६,७/४२१/३ णेरड्या मिच्छाइट्ठी कदिहि कारणेहि पढ़मसम्मत्त मुप्पदे ति। मूलसूत्र ६। उपज्जमाण सव्वं हि कज्जं कारगादो चैव उप्पज्जदि, कारणेण विणा कज्जुप्पत्तिविरोहादो। एवं णिच्छिदकारणस्स तस्संखाविसयमिद पुच्छामुत्तं । - नारकी मिथ्यादृष्टि जीव कितने कारणो से प्रथम सम्यक्त्व उत्पन्न करते है सत्र ६।। उत्पन्न होनेवाला सभी कार्य कारणसे ही उत्पन्न होता है क्योकि कारणके बिना कार्य की उत्पत्तिका विरोध है। इस प्रकार निश्चित कारणकी संख्या विषयक यह पृच्छा सूत्र है। घ.६/१,६-६,३०/४३०/१णइसग्गिमवि पढमसम्मत्तं तच्च? उत्तं तं हि एत्थेव दट्ठवं, जाइस्सरण-जिण ब्रिबर्दसणेहि विणा उप्पजमाणणइसग्गियपढमसम्मत्तस्स असंभवादो। - सगिक प्रथम सम्यवत्वका भी पूर्वोक्त कारणोसे उत्पन्न हुए सम्यक्त्वमे ही अन्तर्भाव कर लेना चाहिए, क्योकि जाति-स्मरण और जिनमिम्बदर्शनो के बिना उत्पन्न होनेवाला प्रथम नैसर्गिक सम्यक्त्व असम्भव है। ( सम्यक्त्वके कारणों के लिए दे० सम्यग्दर्शन/III/R) ध.७/२,१,१८/७०/६ ण च कारणेण बिणा कज्जाणामुप्पत्ती अस्थि ।... तदो कज्जमेत्ताणि चेव कम्माणि बि अस्थि त्ति णिच्छओ कायव्यो। - कारणके बिना तो कार्योकी उत्पत्ति होती नही। इसलिए जितने कार्य हैं उतने उनके कारण रूप कर्म भो है, ऐसा निश्चय कर लेना
चाहिए। ध.६/४,१,४४/११७/६ ण च णिक्कारणाणि, कारणेण चिणा कज्जाणमुप्पत्तिविरोहादो। ण च कारण विरोहीण तक्कज्जेहि विरोहो जुज्जदे कारणविरोहादुवारेणेव सव्वत्थ कज्जेसु विरोहुवलं भादो। यदि कहा जाय कि जन्म जरादिक अकारण है, सो भी ठीक नहीं है। क्योंकि, कारणके बिना कार्योकी उत्पत्तिका विरोध है जो कारणके साथ अविरोधी हैं उनका उक्त कारण के कार्योंके साथ विरोध उचित नहीं है; क्योकि, कारणके विरोधके द्वारा ही सर्वत्र कार्यों में विरोध पाया जाता है। स्या, म /१६/९१७/१७ द्विष्ठसंबन्धसंवित्ति३ करूपप्रवेदनात्। द्वयो। स्वरूपग्रहणे सति संबन्धवेदनम् । इति वचनात् । -दो वस्तुओके सम्बन्धमें रहनेवाला ज्ञान दोनों वस्तुओके ज्ञान होनेपर ही हो सकता है। यदि दोनोमेसे एक वस्तु रहे तो उस सम्बन्धका ज्ञान नहीं होता। न्या. दी./२/६४/२७ न हि किचित्स्वस्मादेव जायते। कोई भी वस्तु
अपनेसे ही पैदा नहीं होती. किन्तु अपनेसे भिन्न कारणों से पैदा होती है। दे० नय/v/६५ उपादान होते हुए भी निमित्तके बिना मुक्ति नहीं।
३. उचित निमित्तके सान्निध्य में ही द्रव्य परिणमन करता है प्र.सा./त.प्र /१२ द्रव्यमपि समुपात्तप्राक्तनावस्थ समुचितबहिरङ्गसाधनसंनिधिसद्भावे . उत्तरावस्थयोत्पद्यमानं तेनोत्पादेन लक्ष्यते। जिसने पूर्वावस्थाको प्राप्त किया है, ऐसा द्रव्य भी जो कि उचित बहिरंग साधनो के सान्निध्यके सद्भावमे उत्तर अवस्थासे उत्पन्न होता है ! वह उत्पादसे लक्षित होता है । (प्र. सा./त प्र./१०२.१२४) । ४. उपादानकी योग्यताके सद्भाव में भी निमित्तके बिना कार्य नहीं होता ध/१/१.१,३३/२३३/२ सत्र जीवावयवेषु क्षयोपशमस्योत्पत्त्यभ्युपगमात् । न सर्वावयवैः रूपाद्य पलब्धिरपि तत्सहकारिकारणबाह्यनिवृत्तेरशेषजीवावयवव्यापित्वाभावात् । -जीवके सम्पूर्ण प्रदेशो में क्षयोपशमकी उत्पत्ति स्वीकार की है। ( यद्यपि यह क्षयोपशम ही जीवकी ज्ञानके प्रति उपादानभूत योग्यता है, दे० कारण /- ) परन्तु ऐसा ।।
स्व. स्तो.मू./५६ यद्वस्तु बाह्यं गुणदोषसूतेनिमित्तमभ्यन्तरमूलहेतोः । अध्यात्मवृत्तस्य तदङ्गभूतमभ्यन्तरं केवलमप्यलं न ।१=जो बाह्य वस्तु गुण दोष या पुण्यपापकी उत्पत्तिका निमित्त होती है वह अन्तरंगमे बर्तनेवाले गुणदोषोकी उत्पत्तिके अभ्यन्तर मूल हेतुकी अंगभूत होती है ( अर्थात उपादानकी सहकारीकारणभूत होती है)। उस की अपेक्षा न करके केवल अभ्यन्तर कारण उस गुणदोषकी उत्पत्तिमें समर्थ नहीं है। भ.आ./वि/१०७०/११५६/४ बाह्यद्रव्यं मनसा स्वीकृतं रागद्वेषयोर्नीज, तस्मिन्नसति सहकारिकारणे न च कर्ममात्राद्रागद्वेषवृत्तिर्यथा सत्यपि मृत्पिण्डे दण्डाद्यनन्तरकरणवैकल्ये न घटोत्पत्तिर्यथेति मन्यते। मनमें विचारकर जब जीव बाह्य परिग्रहका स्वीकार करता है तब रागद्वेष उत्पन्न होते हैं। यदि सहकारीकारण न होगा तो केवल कर्ममात्रसे रागद्वेष उत्पन्न होते नहीं। यद्यपि मृत्पिण्डसे घट उत्पन्न होता है तथापि दण्डादिक कारण नहीं होगे तो घट की उत्पत्ति नहीं होती है। ध. १/१,१,६०/२६८/१ यतो नाहारद्धिरात्मनमपेक्ष्योत्पद्यते स्वात्मनि क्रियाविरोधात् । अपि तु संयमातिशयापेक्षया तस्या समुत्पत्तिरिति ।-आहारक ऋद्धि स्वत की अपेक्षा करके उत्पन्न नहीं होती है, क्योकि स्वत से स्वत' की उत्पत्तिरूप क्रियाके होने में विरोध आता है। किन्तु संयमातिशयकी अपेक्षा आहारक ऋद्धिकी उत्पत्ति होतो है। क.पा.१/१,१३-१४/६२५६/२६५/४ ण च अण्णादो अण्णाम्म कोहो ण उप्पज्जनः अक्कोसादो जीवेकम्मकलंकंकिए कोप्पत्तिदंसणादो। ण च उबलद्वे अणुबवण्णदा, विरोहादो। ण कर्ज तिरोहियं संतं आविब्भावमुवणमइ पिडवियारणे घडोवलद्धिप्पसंगादो । ण च णिच्चं तिरोहिज्जइ; अणाहियअइसयभावादो। ण तस्स आविम्भावो वि; परिणामवज्जियस्स अवत्थं तराभावादो । ण गद्दहस्स सिगं अण्णेहितो उप्पज्जइ, तस्स विसेसेणेव सामण्णसरूवेण वि पुवमभावादो। ण च कारणेण विणा कज्जमुप्पज्जइ सव्व काल सबस्स उप्पत्ति-अणुप्पत्तिप्पसंगादो। णाणुप्पत्ती सव्वाभावप्पसंगादो। ण चेव (बं); उवलब्भमाणत्तादो। ण सव्वकालमुप्पत्ती वि; णिच्चस्सुप्पत्तिविरोहादो। ण णिचं पि; कमाकमेहि कज्जमकुणं तस्स पमाणविसए अवट्ठाणाणुववत्तीदो। तम्हा ज्णे हितो अण्णस्स सारिच्छ-तब्भावसामण्णेहि संतस्स विसेससरूवेण असंतस्स कज्जस्सुप्पत्तीए होदबमिदि सिद्धं । = 'किसी अन्यके निमित्तसे किसी अन्य में क्रोध उत्पन्न नहीं होता है' यह कहना ठीक नहीं है, क्योकि; कर्मोंसे कलंकित हुए जीवमें कटुवचनके निमित्तसे क्रोधकी उत्पत्ति देखी जाती है। और जो बात पायी जाती है उसके सम्बन्धमें यह कहना कि यह बात नहीं बन सकती, ठीक नहीं है, क्योकि ऐसा कहने में विरोध आता है। २. यदि कार्यको सर्वथा नित्य मान लिया जावे तो वह तिरोहित नहीं हो सकता है, क्योकि सर्वथा नित्य पदार्थ में किसी प्रकारका अतिशय नहीं हो सकता है। तथा नित्य पदार्थका आविर्भाव भी नही बन सकता, क्योकि जो परिणमनसे रहित है, उसमे दूसरी अवस्था नहीं हो सकती है। ३ 'कारणमें कार्य छिपा रहता है और वह प्रगट हो जाता है। ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, ऐसा माननेपर मिट्टीके पिण्डको विदारनेपर घडेकी उत्पत्तिका प्रसंग प्राप्त होता है। ४ 'अन्य कारणोंसे गधेके
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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