________________
III कारण ( निमित्तकी गौणता मुख्यता )
सींगकी उत्पत्ति का प्रसंग देना भी ठीक नही है, क्योकि उसका पहिले से ही जिस प्रकार विशेषरूपसे अभाव है उसी प्रकार सामान्यरूपसे भी अभाव है। इस प्रकार जब वह सामान्य और विशेष दोनों ही प्रकारसे असत् है तो उसकी उत्पत्तिका प्रश्न ही नहीं उठता । ५. तथा कारणके बिना कार्यकी उत्पत्ति मानना भी ठीक नहीं है, खाँकि यदि ऐसा होने लगे तो सर्वदा सभी कार्योंकी उत्त्पत्ति अथमा अनुपत्तिका प्रसंग प्राप्त होता है । ६. यदि कहा जाये कि कार्यको उत्पत्तिमत होओसो भी कहना ठीक नहीं है क्योंकि ( सर्वदा ) कार्यकी अनुत्पति माननेपर सभी के बभावका प्रसंग प्राप्त होता है। ७. यदि कहा जाये कि सभीका अभाव होता है तो हो जाओ' सो भी कहना ठीक नहीं है, खोकि सभी पदार्थोंकी उपायी जाती है । ८. यदि ( दूसरे पक्ष मे ) यह कहा जाये कि सर्वदा सबकी उत्पत्ति होती हो रहे' सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि जो पदार्थ कमसे अथवा युगपत् कार्यको नही करता है वह पदार्थ प्रमाणका विषय नहीं होता है। इसलिए जो सादृश्यसामान्य और तद्भाव सामान्यरूपसे विद्यमान है तथा विशेष (पर्याय रूपसे अविद्यमान है ऐसे किसी भी कार्यकी किसी दूसरे कारणसे उत्पत्ति होती है यह सिद्ध हुआ।
६. निमित्तके बिना कार्योत्पत्ति माननेमें दोष क.पा.१/१,१३/३२५६/२६५/६ ण च कारणेण विणा कज्जमुप्पज्जइ; सव्वकालं सव्वस्स उपपत्ति- अणुप्पत्तिप्पसंगादो । कारणके बिना कार्यकी उत्पत्ति मानना ठीक नहीं है, क्योंकि यदि ऐसा होने लगे तो सर्वदा सभी कार्योकी उत्पत्ति अथवा अनुत्पत्तिका प्रसंग प्राप्त होता है। प.सु./६/६३ समर्थस्य करणे सर्वदोत्पत्तिरनपेक्षवाद-यदि पदार्थ स्वयं समर्थ होकर किया करते हैं तो सपा कार्यकी उत्पत्ति होनी चाहिए, क्योंकि, केवल सामान्य आदि कार्य करनेमें किसी दूसरेकी अपेक्षा नहीं रखते।
७. सभी निमित्त धर्मास्तिकायवत् उदासीन नहीं होते .का./त.प्र./८८ यथा हि गतिपरिणत प्रभब्जनो वैजयन्तीनां गतिपरिणामस्य हेतुकर्तावलोक्यते न तथा धर्मः । स खलु निष्क्रियत्वात् न कदाचिदपि गति परिणाममेवापद्यते । कुतोऽस्य सहकारित्वेन गतिपरिणामस्य हेतुक अपि च यथा गतिपूर्ण स्थितिपरिणतिपरिणतस्तुरगोऽश्वारस्य स्थितिपरिणामस्य हेतुकविलोक्यते न तथाधर्म निष्क्रिय उदासीन एवासी प्रसरो भवतीति । - जिस प्रकार गतिपरिणत पवन ध्वजाओंके गतिपरिणामका हेतुकर्ता ( प्रेरक ) दिखाई देता है, उसी प्रकार धर्म नहीं है । वह वास्तव में निष्क्रिय होनेसे कभी गति परिणामको ही प्राप्त नहीं होता; तो फिर उसे ( परके) सहकारीको भाँति परके गतिपरिणामका हेतुकर्तृत्व कहाँसे होगा किन्तु केवल उदासीन ही प्रसारक है और जिस प्रकार मतिपूर्वक स्थिति परिणत अस्त्र सचारके स्थिति परिणामका हेतुकर्ता (प्रेरक ) दिखाई देता है उसी प्रकार अधर्म नहीं है। यह तो केवल उदासीन ही प्रसारक है । (तात्पर्य यह कि सभी कारण धर्मास्तिकायवत् उदासीन नहीं है । निष्क्रियकारण उदासीन होता है और क्रियावान् प्रेरक होता है ) ।
५. कर्म व जीवगत कारणकार्य भावकी कथंचित्
प्रधानता
१. जीव व कर्ममें परस्पर निमित्त नैमित्तिक सम्बन्धका निर्देश
मु.आ./१६७ जीवपरिणामहेदू कम्मतम पोरगला परिणति दुगागपरिषद पुण जीवो कम्मं समादियादि । जिनकों जीव के परिणाम
Jain Education International
७०
५. कर्म व जीवगत कारणकार्य भावकी प्रधानता
कारण है ऐसे रूपादिमान परमाणु कर्मस्वरूप परिणमते हैं, परन्तु ज्ञानभावकरि परिणत हुआ जीम कर्मभावकरि को नहीं
ग्रहण करता ।
स.सा./मू./८० जीव परिणामहेद्र कम्मतं पुग्णता परिणमति पुग्यलकम्मणिमित्तं तव जीवो वि परिणमद 150/- पुद्गल जीवके परिणाम के निमित्तसे कर्मरूपमें परिणत होते हैं और जीव भी पुद्गलकर्म के निमित्तसे परिणमन करता है ( स.सा./मू./३१२-२११), (पं.का./मू. ६० ). ( न. च.वृ./८३), (यो.सा. अ/३/९-१० ) । पं.का./मू./१२८-१३० जो संसारस्यो जीवो तत्तो हो परिणामो दु परिणामादो कम्म कम्मादो होदि गदिसु गदौ १२ गदिमधिगस्स देहो देहादो इदियाणि जायते । तेहि कु विसयग्गहणं तत्तो रागो व दोसो वा ॥ १२६ ॥ जायदि जीवस्सेवं भावो संसारचक्कवालम्मि । इदि जिणवरेहि भणिदो अणादिणिधणा सणिघणो वा ११३०१ == जो वास्तव में संसार स्थित जीव है उससे परिणाम होता है, परिणामसे कर्म और कर्म से गतियोंमें गमन होता है । १२८ । गतिप्राप्तको देह होती है, देहसे इन्द्रियाँ होती हैं, इन्द्रियों और ग्रहणसे राग अथवा द्वेष होता है | १२ | ऐसे भाव संसारचक्रमें जीवको अनादिअनन्त अथवा अनादि साम्य होते रहते हैं. ऐसा जिनमरोने कहा है। १३०३ (न.च.वृ./१२१-१३३); (यो.सा.अ./४/२६.२१ तथा २/३३); (स. अनु. / १६-१६); (सा.प./६/३१ ) और भी देखो - प्रकृति बन्ध/१/६ में परिणाम प्रत्यय प्रकृतियोंके लक्षण व भेद ।
पं. ./१/४११००९ जीवस्याशुद्धरागादिभावानां कर्मकारणम् कर्मणस्वस्थ रागादिभावाः प्रत्युपकारिवद ॥४१॥ अस्ति सिद्ध ततोऽन्योन्यं जीवपुद्गलकर्मणोः । निमित्तनैमित्तिको भावो यथा कुम्भ कुतायोः । ९००१। परस्पर उपकारकी तरह जीवके अशुद्ध रागादि भावका कारण द्रव्यकर्म है और उस द्रव्यकर्मके कारण रागादि भाव है | ४१ | इसलिए जिस प्रकार कुम्भ और कुम्भारमें निमित्तनैमित्तिक भाव है उसी प्रकार जीव और पुद्गलात्मक कर्ममे परस्परं निमित्तनैमिचिका है यह सिद्ध होता है । १००१ (पं.प.उ./ १०६ १३१-१३२:१०६६-१०७० )
२. जीव व कमकी विचित्रता परस्पर सापेक्ष है ६. ०७/२.१.२६/७०/१ च कारमेण विणा कागमुण्यती अस्थि । वयो कज्जमेत्ताणि चैव कम्माणि वि अस्थि त्ति णिच्छओ कायब्वो । जदि एवं तो भमर-मर कर्यनादि सम्णिदेहि वि णाममेह होदव्यमिदि । ण एस दोसो इच्छिज्जमाणादो ।" कारणके बिना तो काकी उत्पत्ति होती नहीं है। इसलिए जितने (पृथिवी, अप्, तेज आदि) कार्य हैं उतने उनके कारणरूप कर्म भी हैं, ऐसा निश्चय कर लेना चाहिए। प्रश्न- यदि ऐसा है तो भ्रमर, मधुकर - कदम्ब आदिक नामोंवाले भी नाम कर्म होने चाहिए ' उत्तर - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, यह बात तो इष्ट ही है।
घ. १०/४.२.२.१/१२/० जा सा गोआगमदव्यकम्मवेयणा सा अनुविहा... कुदो । अट्ठविहस्स दिस्समाणस्स अण्णाणादं सण वीरियादिअंतरायकन्जल्स अण्णावन्तोदो कारणमेवेण दिया कलभेदो अस्थि, अग्वस्थ राहावभादो-जो वह नोआगमकर्मवेदना नही है, वह ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय आदिके भेदसे आठ प्रकार की है। योंकि ऐसा नहीं माननेपर अज्ञान अदर्शन एवं वीर्यादिके अन्तराधरूप आठप्रकारका कार्य जो दिखाई देता है वह नहीं बन सकता है। यदि कहा जाय कि यह आठ प्रकारका कार्यभेद कारणभेद के बिना भी बन जायेगा, सो ऐसा मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि अन्यत्र ऐसा पाया नहीं जाता।
क.पा. १/११/१३७/५६ / ४ एदस्स पमाणस्स वढिहाणितरतमभावो ण ताव णिकारणो; वडूढिहाणिहि विणा एगसरूवेणावद्वाणप्पसंगादो |
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
For Private & Personal Use Only
.
www.jainelibrary.org