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ज्ञान
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II भेद व अभेद ज्ञान
पर्यायरूप परिणमित सकल एक दहन वत) समस्त ज्ञेयको जानता हुआ ज्ञाता (केवलज्ञानी) समस्त ज्ञेयहेतुक समस्तज्ञेयाकारपर्यायरूप परिणमित सकल एक ज्ञान जिसका (स्वरूप) है, ऐसे निजरूपसे जो चेतनाके कारण स्वानुभव प्रत्यक्ष है, उसरूप परिणमित होता है। इस प्रकार वास्तवमे द्रव्यका स्वभाव है। पं.ध./पू./१६०-१९२ न घटाकारेऽपि चित. शेषांशानां निरन्बयो नाश ।
लोकाकारेऽपि "चितो नियतांशानां न चासदुत्पत्ति । - ज्ञानको घटके आकारके बराबर होनेपर भी उसके घटाकारसे अतिरिक्त शेष अंशोका जिस प्रकार नाश नहीं हो जाता। इसी प्रकार ज्ञानके नियत अंशोंको लोकके बराबर होनेपर भी असतकी उत्पत्ति नहीं होतो 1१६१। किन्तु घटाकार वही ज्ञान लोकाकाशके बराबर होकर केवलज्ञान नाम पाता है ।१०।। ९. पाँचों ज्ञानोंको जाननेका प्रयोजन
नि.सा./ता.वृ./१२ उक्तेषु ज्ञानेषु साक्षान्मोक्षमूलमेकं निजपरमतत्वनिष्ठ
सहजज्ञानमेव । अपि च पारिणामिकभावस्वभावेन भव्यस्य परमस्वभावत्वात् सहजज्ञानादपरमुपादेयं न शमस्ति । = उक्त ज्ञानों में साक्षात मोक्षका मूल निजपरमतत्त्वमें स्थित ऐसा एक सहज ज्ञान ही है। तथा सहजज्ञान पारिणामिक्भावरूप स्वभावके कारण भव्यका परमस्वभाव होनेसे, सहजज्ञानके अतिरिक्त अन्य कुछ उपादेय नहीं है।
II भेद व अभेद ज्ञान १.भेद व अभेद ज्ञान
१. भेद ज्ञानका लक्षण स. सा./मू /१८१-१८३ उवओगे उवओगो कोहादिनु णरिथ को वि
उवओगो। कोहो कोहो चेव हि उबओगे णस्थि खलु कोहो ।१८१। अट्ठवियप्पे कम्मे णोकम्मे चावि णत्थि उबओगो। उवओमम्मि य कम्म गोकम्मं चावि णो अत्थि ।१८२। एयं दु अविवरीदं णाणे जइया दु होदि जीवस्स । तइया ण किचि कुव्वदि भावं उवओगसुद्धप्पा 1१८३ स.सा./आ./१८१-१८३ ततो ज्ञानमेव ज्ञाने एव क्रोधादय एव क्रोधादिप्वेवेति साधु सिद्धभेद विज्ञानम् । = उपयोग उपयोगमें है क्रोधादि (भावकों) में कोई भी उपयोग नहीं है। और क्रोध (भाव कर्म) क्रोधमें ही है, उपयोगमे निश्चयसे क्रोध नहीं है ।१८। आठ प्रकारके (द्रव्य ) कर्मोमें और नोकर्ममें उपयोग नही है और उपयोगमें कर्म तथा नोकर्म नही है ।१८। ऐसा अविपरीत ज्ञान जब जीवके होता है तब वह उपयोगस्वरूप शुद्धात्मा उपयोगके अतिरिक्त अन्य किसी भी भावको नहीं करता ।१८३। इसलिए उपयोग उपयोगमें ही है और क्रोध क्रोधमें ही है, इस प्रकार भेदविज्ञान भलीभॉति सिद्ध हो गया। चा.पा./मू./३८ जीवाजीवविहत्ती जो जाणइ सो हवेइ सण्णाणी। रायादिदोसरहिलो जिणसासणे मोक्रवमग्गुत्ति ।३८ -- जो पुरुष- जीव और अजीव (दव्य कर्म, भावकर्म व नोकर्म) इनका भेद जानता है वह सम्यग्ज्ञानी होता है। रागादि दोषोसे रहित वह भेद ज्ञान हो जिनशासनमे मोक्षमाग है । (मो.पा./मू./४१)। प्र.सा/ता.व./५/६/१६ रागादिभ्यो भिन्नोऽयं स्वात्मोत्थसुखस्वभावः परमात्मेति भेदविज्ञानं । -रागादि भिन्न यह स्वात्मोत्थ सुखस्व
भावी आत्मा है, ऐसा भेद विज्ञान होता है। स्व.स्तो/टी./२२/५५जीवादितत्त्वे सुखादिभेदप्रतीतिर्भ दज्ञानं । जीवादि
सातों तत्वोमें सुखादिकी अर्थात् स्वतत्त्वकी स्वसंवेदनगम्य पृथक् प्रतीति होना भेदज्ञान है।
१०. पाँचों ज्ञानोंका स्वामित्व (ष. वं.१/१०१/सू.११६-१२२/३६१-३६७)
सूत्र
ज्ञान
जीव समास
गुणस्थान
१-२
१२०
मति
कुमति व कुश्श्रुति | सर्व १४ जीवसमास १-२ ११०-११८ | विभंगावधि संज्ञी पचेन्द्रिय पर्याप्त । मति, श्रुति, अवधि | संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच व
मनुष्य पर्या. अपर्या. |४-१२ मन. पर्यय संज्ञी पचेन्द्रिय पर्याप्त मनु ६-१२ १२२ केवलज्ञान | संज्ञी पर्याप्त, अयोगी- १३,१४,
| की अपेक्षा
सिद्ध ११६ मति, श्रुत, अवधि संज्ञो पर्याप्त
ज्ञान अज्ञान मिश्रित
१२१
3
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२. अभेद ज्ञानका लक्षण वृ द्र.सं./टी./२२/५५ सुखादौ, बालकुमारादौ च स एवाहमित्यात्मद्रव्यस्याभेदप्रतीतिरभेदज्ञानं । - इन्द्रिय सुख आदिमें अथवा बाल कुमार आदि अवस्थाओमें, 'यह ही मै हूँ' ऐसी आत्मद्रव्यकी अभेद प्रतीति होना अभेद ज्ञान है।
(विशेष-दे० सत्)।
११. एक जीवमें युगपत् सम्भव ज्ञान त.सू./१/३० एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्व्यः ॥३०॥ रा.वा/६/३०/४,६/६०-६१ एते हि मतिश्रुते सर्वकालभव्यभिचारिणी नारदपर्वतवत । (४/१०/२६)। एकस्मिन्नात्मन्येकं केवलज्ञानं क्षायिकत्वात् ।(१०/११/२४)। एकस्मिन्नात्मनि द्वे मतिश्रुते । कचित् त्रीणि मतिश्रुतावधिज्ञानानि, मतिश्रुतमनःपर्ययज्ञानानि वा कचिच्चत्वारि मतिश्रुताव धिमन पर्ययज्ञानानि । न पञ्चै कस्मिन् युगपद संभवन्ति 118/8१/१७) -१. एकको आदि लेकर युगपत एक आत्मामे चार तक ज्ञान होने सम्भव है। २. वह ऐसे-मति और श्रुत तो नारद और पर्वतकी भॉति सदा एक साथ रहते है । एक आत्मामें एक ज्ञान हो तो केवल ज्ञान होता है क्योकि वह क्षायिक है, दो हों तो मतित: तीन हों तो मति, श्रुत, अवधि अथवा मति, श्रुत, मन पर्यय; चार हो तो मति, श्रुत, अवधि, और मनःपर्यय। एक आत्मामे पाँचों ज्ञान युगपत् कदापि सम्भव नही है ।
३. भेद ज्ञानका तात्पर्य षटकारकी निषेध प्र.सा./मू./१६० णाहं देहो ण मणो ण चैव वाणी ण कारणं तेसि । कत्ता ण ण कारयिदा अणूमता णेव कत्ताणं ।१६०।-मैं न देह हूँ, न मन हूँ,
और न वाणी हूँ। उनका कारण नहीं हूँ, कर्ता नहीं हूँ, करानेवाला नहीं हूँ और कर्ताका अनुमोदक नहीं हूँ। (स.श./मू./५४)। स./सा/i/३२३/क २०० नास्ति सर्वोऽपि संबन्धः परद्रव्यात्मतत्त्वयोः ।
कर्तृ कर्मत्वसंबन्धाभावे तत्क्तृता कुतः ।२००। स.सा/आ/३२५/क२०१ एकस्य वस्तुन इहान्यतरेण सार्ध. संबन्ध एव
सकलोऽपि यतो निषिद्ध । तत्क्र्तृ कर्म घटनास्ति न वस्तुभेदः पश्यन्त्वकर्तृ मुनयश्च जनाश्च तत्त्वम् ।२०१। पर द्रव्य और आत्मतत्त्वका कोई भी सम्बन्ध नही है, तब फिर उनमें कर्ताकर्म सम्बन्ध कैसे हो सकता है। और उसका अभाव होनेसे आत्माके परद्रव्यका कर्तृत्व कहाँसे हो सकता है ।२००। क्योकि इस लोकमें एक बस्तुका अन्य वस्तुके साथ सम्पूर्ण सम्बन्ध ही निषेध किया गया है. इसलिए जहाँ वस्तुभेद है अर्थात् भिन्न वस्तुएं हैं यहाँ कर्ताकर्म पना
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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