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ज्ञान
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III सम्यक् मिथ्या ज्ञान
धटित नहीं होता। इस प्रकार मुनि जन और लौकिकजन तत्त्वको अकर्ता देखो ।२०१। ४. स्वभावभेदसे ही भेद ज्ञानकी सिद्धि है स्या.म/१६/२००/१३ स्वभावभेदमन्तरेणान्यव्यावृत्तिभेदस्यानुपपत्ते । वस्तुओंमें स्वभावभेद माने बिना उन वस्तुओंमें व्यावृत्ति नहीं बन सकती।
५. संज्ञा लक्षण प्रयोजनकी अपेक्षा अभेदमें भी भेद पं.का/ता.वृ/५०/६६/७ गुणगुणिनोः संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभेदेऽपि प्रदेश
भेदाभावादपृथग्भूतत्वं भण्यते।=गुण और गुणी में संज्ञा लक्षण प्रयोजनादिसे भेद होनेपर भी प्रदेशभेदका अभाव होनेसे उनमें अपृथकभूतपना कहा जाता है। पं.का/ता.वृ/१५४/२२४/११ सहशुद्धसामान्यविशेषचैतन्यात्मकजीवास्तित्वात्सकाशात्संज्ञालक्षणप्रयोजनभेदेऽपि द्रव्यक्षेत्रकालभावैरभेदादिति
-सहज शुद्ध सामान्य तथा विशेष चैतन्यात्मक जीवके दो अस्तित्वोंमें (सामान्य तथा विशेष अस्तित्वमे) संज्ञा लक्षण व प्रयोजनसे भेद होनेपर भी द्रव्य क्षेत्र काल व भावसे उनमे अभेद है । (प्र.सा/त.प्र/९७)
III सम्यक मिथ्या ज्ञान १. भेद व लक्षण
१. सम्यक् व मिथ्याकी अपेक्षा ज्ञानके भेद त.सू/१/१,३१ मतिश्रुतावधिमन.पर्ययकेवलानि ज्ञानम् । मतिश्रुताव
धयो विपर्ययश्च ।३१मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल ये पाँच ज्ञान हैं ।। मति श्रुत और अवधि ये तीन ज्ञान विपर्यय अर्थात मिथ्या भी होते हैं ।३१। (पं.का/म/४१/) । (द्र.सं/म/)। गो.जी/मू/३००-२०११६५० चेव होंति णाणा मदिसुदओहिमणं च
केवलयं । खयउक्स मिया चउरो केवलणाण हवे खइयं ।३००। अण्णाणतियं होदि हुसण्णाणतियं खुमिच्छ अणउदये ।...३०११-मति, श्रुत, अवधि, मन.पर्यय और केवल ये सम्यग्ज्ञान पाँच ही हैं। जे सम्यग्दृष्टिक मति श्रुत अवधि ए तीन सम्यग्ज्ञान हैं तेई तीनों मिथ्यात्व वा अनन्तानुबन्धी कोई कषायके उदय होते तत्वार्थका अश्रद्धानरूप परिणया जीव के तीनों मिथ्याज्ञान हो है। उनके कुमति, कुश्रुत और विभंग ये नाम हो है। २. सम्यग्ज्ञानका लक्षण १. तत्त्वार्यके यथार्थ अधिगमकी अपेक्षा पं.का/मू./१०७ तेसिमधिगमो णाणं ।...१०७। उन नौ पदार्थोंका या
सात तत्त्वोंका अधिगम सम्यग्ज्ञान है । (मो.पा./मू./३८)। स.सि./१/१/५/६ येन येन प्रकारेण जीवादयः पदार्था व्यवस्थितास्तेन तेनावगम सम्यग्ज्ञानम् ।-जिस जिस प्रकारसे जीवादि पदार्थ अवस्थित हैं उस उस प्रकारसे उनका जानना सम्यग्ज्ञान है। (रा वा/१/ १/२/४/६) । (प.प्र /मू/२/२६) (ध.१/१,१,१२०/३६४/५) । रा.वा /१/१/२/४/३ नयप्रमाणविकल्पपूर्वको जीवाद्यर्थयाथात्म्यावगम. सम्यग्ज्ञानम् । -नय व प्रमाणके विकल्प पूर्वक जीवादि पदार्थों का यथार्थ ज्ञान सम्यग्ज्ञान है। (न.च वृ./३२६) । स.सा./आ./१५५ जीवादिज्ञानस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं ज्ञानम् । जीवादि पदार्थोके ज्ञानस्वभावरूप ज्ञानका परिणमन कर सम्यग्ज्ञान है। २. संशयादि रहित शानकी अपेक्षा र.क.पा./४२ अन्यूनमन तिरिक्त याथातथ्यं विना च विपरीता। निःसंदेहं वेद यंदाहुस्तज्ज्ञानमागमिनः ।४२। जो ज्ञान वस्तुके स्व
रूपको न्यूनतारहित तथा अधिकतारहित, विपरीततारहित, जैसाका तैसा, सन्देह रहित जानता है, उसको आगमके ज्ञाता पुरुष सम्यग्ज्ञान कहते हैं। स.सि./१/१/५/७ विमोहसंशयविपर्ययनिवृत्त्यर्थ सम्यग्विशेषणम्। -
ज्ञानके पहिले सम्यग्विशेषण विमोह (अनध्यवसाय) संशय और विपर्यय ज्ञानोंका निराकरण करनेके लिए दिया गया है। (रा.वा/१/
१/२/४/७) । (न.दी./१/8418)। द्र.सं./मू/४२ संसयविमोहविन्भमविवज्जियं अप्पपरसरूवस्स। गहणं
सम्मण्णाणं सायारमणेयभेयं तु।४।आत्मस्वरूप और अन्य पदार्थके स्वरूपका जो संशय विमोह और विभ्रम (विपर्यय) रूप कुज्ञानसे रहित जानना है वह सम्यग्ज्ञान है । (स.सा /ता.वृ./१५५) । ३. भेद शानकी अपेक्षा मो.पा./मू/४१ जीवाजीवविहत्ती जोइ जाणेइ जिणवरमएणं । ते सण्णाणं भणियं भवियत्यं सव्वदरिसीहिं ।४। जो योगी मुनि जीव अजीव पदार्थ का भेद जिनवरके मतकरि जाणे है सो सम्यग्ज्ञान सर्वदर्शी कह्या है सो ही सत्यार्थ है। अन्य छद्मस्थका कह्या सत्यार्थ नाहीं। (चा.पा./५/३८)। सि.वि./वृ./१०/१६/६८४/२३ सदसद्व्यवहारनिबन्धनं सम्यग्ज्ञानम् ।
सत् और असत् पदाथोंने व्यवहार करनेवाला सम्यग्ज्ञान है। नि.सा /ता.वृ./५१ तत्र जिनप्रणीतइयोपादेयतत्त्वपरिच्छित्तिरेव सम्य
रज्ञानम् । जिन प्रणीत हेयोपादेय तत्त्वों का ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है। द्र.सं./टी./४२/१८३/३ सप्ततत्त्वनवपदार्थेषु 'मध्य' निश्चयनयेन स्वकीयशुद्धात्मद्रव्यं...उपादेय'। शेषं च हेयमिति संक्षेपेण हेयोपादेयभेदेन द्विधा व्यवहारज्ञानमिति । =सात तत्त्व और नौ पदार्थों में निश्चयनयसे अपना शुद्धात्मद्रव्य ही उपादेय है। इसके सिवाय शुद्ध या अशुद्ध परजीव अजीव आदि सभी हेय है। इस प्रकार संक्षेपसे हेय तथा उपादेय भेदोसे व्यवहार ज्ञान दो प्रकारका है। सं.सा./ता.व./१५५ तेषामेव सम्यकपरिच्छित्तिरूपेण शुद्धात्मनो भिन्नत्वेन निश्चय' सम्यग्ज्ञानं । उन नवपदार्थोंका ही सम्यक् परिच्छित्ति रूप शुद्धात्मासे भिन्नरूपमें निश्चय करना सम्यग्ज्ञान है।
और भी देखो ज्ञान /II/१-(भेद ज्ञानका लक्षण) ४. स्वसंवेदकी अपेक्षा निश्चय लक्षण त.सा./१/१८ सम्यग्ज्ञानं पुनः स्वार्थव्यवसायात्मकं विदुः ।...|१८|
- ज्ञानमें अर्थ (विषय) प्रतिबोधके साथ-साथ यदि अपना स्वरूप भी प्रतिभासित हो और वह भी यथार्थ हो तो उसको सम्यग्ज्ञान कहना चाहिए। प्र. सा./त.प्र.५ सहजशुद्धदर्शनज्ञानस्वभावात्मतत्त्वश्रद्धानावबोधलक्षण
सम्यग्दर्शनज्ञानसंपादकमाश्रम...|= सहज शुद्ध दर्शन ज्ञान स्वभाववाले आत्मतत्त्वका श्रद्धान और ज्ञान जिसका लक्षण है, ऐसे सम्यग्द
र्शन और सम्यग्ज्ञानका सम्पादक है... नि.सा/ता.वृ./३ ज्ञानं तावत तेषु त्रिषु परद्रव्यनिरवलम्बनत्वेन निःशेषतान्तर्मुखयोगशक्तेः सकाशात निजपरमतत्त्वपरिज्ञानम् उपादेयं भवति। -परद्रव्यका अवलम्बन लिये बिना निशेष रूपसे अन्तर्मुख योगशक्तिमे-से उपादेय ( उपयोगको सम्पूर्ण रूपसे अन्तर्मुख करके ग्रहण करने योग्य ) ऐसा जो निज परमात्मतत्त्वका परिज्ञान सो ज्ञान है। स.सा./ता.वृ/३८ तस्मिन्नेव शुद्धात्मनि स्वसंवेदन' सम्यग्ज्ञानं । उस शुद्धात्ममें हो स्वसंवेदन करना सम्यग्ज्ञान है। (प्र.सा./ता.व./२४०/
३३३/१६)। द्र.सं./टी./४२/१८४/४ निर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानमेव निश्चयज्ञान भण्यते।
-निर्विकल्प स्वसंवेदनज्ञान ही निश्चयज्ञान है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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