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ज्ञान
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। ज्ञान सामान्य
ज्ञान असिद्ध है, सो भी बात नहीं है, क्योकि, स्वस वेद्य प्रत्यक्षके द्वारा केवलज्ञानके अंशरूप ज्ञानकी (मति आदि ज्ञानोको) निधि रूपसे उपलब्धि होती है। क. पा १/१,१/३३७/५६/७ केवलणाणसेसावयवाणमस्थित गम्मदे। तदो
आव रिदावयवो सबपज्जवो पच्चक्खाणुमाविसओ होदूण सिद्धो। का केवलज्ञानके प्रगट अशो ( मतिज्ञानादि ) के अतिरिक्त शेष अश्यबोका अस्तित्व जाना जाता है। अत सर्वपर्यायरूप केवलज्ञान अवयवी जिसके कि प्रगट अंशोके अतिरिक्त शेष अवयव आवृत है, प्रत्यक्ष और अनुमानके द्वारा सिद्ध है। अर्थात् उसके प्रगट अंश ( मतिज्ञानादि) स्वसवेदन प्रत्यक्षके द्वारा सिद्ध हैं और आवृत अंश
अनुमान प्रमाणके द्वारा सिद्ध हैं। नन्दि सूत्र/४५ केवलज्ञानावृत केवल या सामान्य ज्ञानकी भेद-किरणे
भो मत्यावरण, श्रुतावरण आदि आवरणोसे चार भागोमे विभाजित हो जाती है, जैसे मेघ आच्छादित सूर्यको किरणे चटाई आदि आबरणोसे छोटे बड़े रूप हो जाती है । ( ज्ञान बिन्दु/पृ. १)। ५. मतिज्ञानादिका केवलज्ञानके अंश होनेकी विधि साधक शका समाधान
सतुवलंभादो। जीवम्मि एक्कं केवलणाणं, तं च णिस्सेसमावरिदं । कत्तो पुण चदुण्णं णाणाणं संभवो। ण, छारण्णच्छग्गीदो अप्फुप्पत्तीए इव सव्वधादिणा आवरणेण आवरिदकेवलणाणादो चदुण्णं णाणाणमुप्पत्तीए विरोहाभावादो। प्रश्न--जीव क्या पाँच ज्ञान स्वभाववाला है या केवलज्ञान स्वभाववाला है। उत्तर-जीव केवलज्ञान स्वभाववाला ही है। फिर भी ऐसा माननेपर आवरणीय शेष ज्ञानोंका (स्वभाव रूपसे ) अभाव होनेसे उनके आवरण कर्मोका अभाव नहीं होता, क्योकि केवलज्ञानावरणीयके द्वारा आवृत हुए भी केवलज्ञानके (विषयभूत) रूपी द्रव्योको प्रत्यक्ष ग्रहण करनेमें समर्थ कुछ ( मतिज्ञानादि ) अवयवोको सम्भावना देखी जाती है।.. इन चार ज्ञानों के जो जो आवरक कर्म है वे मतिज्ञानावरणीय, श्रुतज्ञानावरणीय, अवधिज्ञानावरणीय और मन.पर्ययज्ञानावरणीय कर्म कहे जाते हैं। इसलिए केवलज्ञानस्वभाव जीवके हनेपर भो ज्ञानावरणीयके पाँच भेद है, यह सिद्ध होता है । प्रश्न केवलज्ञानावरणीय कम क्या सर्वघाती है या देशघाती। उत्तर-केवल ज्ञानावरणीय देशघाती तो नहीं है, किन्तु सर्वधाती ही है, क्योंकि वह केवलज्ञानका नि.शेष आवरण करता है। फिर भी जीवका अभाव नहीं होता, क्योकि केवल ज्ञानके आवृत होनेपर भी चार ज्ञानोंका अस्तित्त्र उपलब्ध होता है । प्रश्न-जीवमें एक केवलज्ञान है। उसे जब पूर्णतया आवृत कहते हों, तब फिर चार ज्ञानोका सद्भाव कैसे सम्भव हो सकता है। उत्तरनही, क्योकि जिस प्रकार राखसे ढकी हुई अग्निसे वाष्पकी उत्पत्ति होती है उसी प्रकार सर्वघाती आवरणके द्वारा केवलज्ञानके आवृत होनेपर भी उससे चार ज्ञानोकी उत्पत्ति होनेमे कोई विरोध नहीं आता है।
दे ज्ञान/२/१ प्रश्न-इन्द्रिय ज्ञानसे उत्पन्न होनेवाले मतिज्ञान आदिका केवलज्ञानके अंश नहीं कह सकते ? उत्तर-(ज्ञान सामान्यका
अस्तित्व इन्द्रियोकी अपेक्षा नहीं करता।) ध. १/१,१,१/३७/४ रजोजुषां ज्ञानदर्शने न मगलीभूतके वलज्ञानदर्शनयोरवयवाविति चेन्न, ताभ्यां व्यतिरिक्तयोस्तयोरसत्त्वात् । मत्यादयोऽपि सन्तोति चेन्न तदवस्थानां मत्यादिव्यपदेशात् । तयोः केवलज्ञानदर्शाङ्करयोर्मगलत्वे मिथ्यादृष्टिरपि मंगलं तत्रापि तौ स्त इति चेभवतु तद्रूपतया मंगलं, न मिथ्यात्वादीनां मंगलम् । कथं पुनस्तज्ज्ञानदर्शनयोर्मगलत्वमिति चेन्न .. पापक्षयकारित्वतस्तयोरुपपत्ते ।
प्रश्न-आवरणसे युक्त जीवो के ज्ञान और दर्शन मगलीभूत केवलज्ञान और केवलदर्शनके अवयव ही नहीं हो सकते हैं। उत्तर ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योकि, केवलज्ञान और केवलदर्शनसे भिन्न ज्ञान और दर्शनका सद्भाव नहीं पाया जाता । प्रश्न-उनसे अतिरिक्त भी ज्ञानादि तो पाये जाते हैं। इनका अभाव कैसे किया जा सकता है । उत्तर-उस ( केवल ) ज्ञान और दर्शन सम्बन्धी अवस्थाओकी मतिज्ञानादि नाना संज्ञाएँ है। प्रश्न-केवलज्ञानके अंकुररूप छद्मस्थोके ज्ञान और दर्शनको मगलरूप मान लेनेपर मिथ्यादृष्टि जीव भी मंगल संज्ञाको प्राप्त होता है, क्योकि , मिथ्यादृष्टि जीवमें भी वे अंकुर विद्यमान है। उत्तर-यदि ऐसा है तो भले ही मिथ्यादृष्टि जीयको ज्ञान और दर्शनरूपसे मंगलपना प्राप्त हो, किन्तु इतनेसे ही ( उसके) मिथ्यात्व अविरति आदिको मगलपना प्राप्त नहीं हो सकता है। प्रश्न-फिर मिथ्यादृष्टियो के ज्ञान और दर्शनको मंगलपना कैसे है । उत्तर-ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि, सम्यग्दृष्टियोके ज्ञानदर्शनकी भॉति मिथ्यादृष्टियो के ज्ञान और दर्शनमें पापका क्षयकारीपना पाया जाता है। ध. १३/५.५,२१/२१३/६ जीवो कि पंचणाणसहावो आहो केवलणाणसहावो
त्ति ।...जीवो केवलणाणसहावो चेव । ण च सेसावरणाणमावरणिज्जाभावेण अभावो, केवलणाणवरणीएण आवरिदस्स वि केवलणाणस्स रूविदवाणं पच्चक्रवग्गहणक्रवमाणमवयवाणं संभवदंसणादो ..एदेसि चदुणं णाणाणं जामावारयं कम्मं तं मदिणाणावरणीयं सुदणाणावरणीयं ओहिणाणावरणीयं मणपज्जवणाणावरणीयं च भण्णदे । तदो केवलणाणसहावे जीवे सते विणाणावरणीयपंच भावो त्ति सिद्ध । केवलणाणावरणीय कि सबघादी आहो देसघादी।...ण ताव केवलणाणावरणीयं देसघादो, कितु सव्वषादी चेष, णिस्सेमावरिदकेबल णाणत्तादो। ण च जीवाभावो, केवलणाणेण आवरिदेवि चण्णं णाणाण
६ मत्यादि ज्ञान कंवलज्ञानके अंश नहीं हैं ध७/२,१,४७/६०/३ ण च छारेणोठ्ठद्धग्गिविणिग्गयबप्फाए अग्गिववएसो
अग्गिबुद्धी वा अग्गिववहारो वा अत्थि अणुवलं भादो। तदो णेदाणि णाणाणि केवलणाणं । भस्मसे ढकी हुई अग्नि (देखो ऊपरवाली शका) से निकले हुए वाष्पको अग्नि नाम नहीं दिया जा सक्ता, न उसमें अग्निकी बुद्धि उत्पन्न होती है, और न अग्निका व्यवहार ही, क्यो कि वैसा पाया नहीं जाता। अतएव ये सब मति आदि ज्ञान केवलज्ञान नहीं हो सकते। ७. मत्यादि ज्ञानोंका केवलज्ञानके अंश होने व न होने
का समन्वय । घ १३/११.२१/२१५/४ एदाणि चत्तारि विणाणाणि केवलणाणस्स अवयवा
ण होति, विगलाणं परोक्रवाणं सक्खयाणं सवड्ढीणं सगलपच्चवरखक्खयबडि ढहाणिविवज्जिदकेवलणाणस्स अवयवत्तविरोहादो। पुवं केवलणाणस्स चत्तारि वि णाणाणि अवयवा इदि उत्तं, तं कधं धडदे । ण, णाणसामण्णयवेक्खिय तदवयवक्त पडि विरोहाभावादो। =प्रश्न-ये चारों ही ज्ञान केवलज्ञानके अवयव नहीं, क्योंकि ये विकल हैं, परोक्ष है, क्षय सहित है और वृद्धिहानि युक्त हैं। अतएव इन्हे सकल, प्रत्यक्ष तथा क्षय और वृद्धिहानिसे रहित केवल ज्ञानके अवयव मानने में विरोध आता है। इसलिए जो पहिले केवलज्ञानके चारों ही ज्ञान अवयव कहे हैं, वह कहना कैसे बन सकता है। उत्तर-नहीं; क्योकि, ज्ञानसामान्यको देखते हुए चार ज्ञानको उसके अवयव मानने में कोई विरोध नहीं आता। -दे० ज्ञान/I/२/१ ।
८. सामान्य ज्ञान केवलज्ञानके बराबर है प्रसा./त प्र./४८ समस्तं ज्ञेयं जानन् ज्ञाता समस्तज्ञे यहेतुकसमस्तज्ञेयाकारपर्यायपरिणतसकलै कज्ञानाकारं चेतनत्वात् स्वानुभवप्रत्यक्षमात्मानं परिणमति । एवं किल द्रव्यस्वभाव.। =(समस्त दाह्याकार
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