________________
द्योतन
४५२
द्रव्य
ला.सं./२/११४,१२० अक्षपाशादिनिक्षिप्त वित्ताज्जयपराजयम् । क्रियायो विद्यते यत्र सर्व द्य तमिति स्मृतम् ।११४॥ अन्योन्यस्येषया यत्र विजिगीषा द्वयोरिति व्यवसायाते कम द्य.तातीचार इष्यते ।१२०१ -जिस क्रियामें खेलनेके पासे डालकर धनकी हार-जीत होती है, वह सब जूआ कहलाता है अर्थात हार-जीतकी शर्त लगाकर ताश खेलना, चौपड़ खेलना, शतरंज खेलना, आदि सब जूआ कहलाता है ।११४। अपने-अपने व्यापारके कार्यों के अतिरिक्त कोई भी दो पुरुष परस्पर एक-दूसरेकी ईयासे किसी भी कार्यमें एक-दूसरेको जीतना चाहते हों तो उन दोनों के द्वारा उस कार्यका करना भी जूआ खेलनेका अतिचार कहलाता है ।१२०॥ * रसायन सिद्धि शर्त लगाना आदि भी जूआ है
-दे० छु तक्रीड़ा/१।
द्रव्यके भेद व लक्षण द्रव्यका निरुक्त्यर्थ । द्रव्यका लक्षण 'सत्'। द्रव्यका लक्षण 'गुणसमुदाय' । द्रव्यका लक्षण 'गुणपर्यायवान्। द्रव्यका लक्षण 'ऊर्ध्व व तिर्यगंश पिण्ड' । द्रव्यका लक्षण 'त्रिकाल पर्याय पिण्ड' । द्रव्यका लक्षण 'अर्थक्रियाकारित्व'। -दे० वस्तु । द्रव्यके 'अन्वय, सामान्य' आदि अनेक नाम । द्रव्यके छह प्रधान मेद। द्रव्यके दो भेद-संयोग व समवाय । द्रव्यके अन्य प्रकार भेद-प्रमेद। -दे. द्रव्य/३ । पंचास्तिकाय।
-दे० अस्तिकाय । संयोग व समवाय द्रव्यके लक्षण । स्व पर द्रव्यके लक्षण।
२. द्यूतका निषेध तथा उसका कारण पु.सि.उ./१४६ सर्वानर्थप्रथम मथनं शौचस्य सद्म मायाया'। दूरात्परिहरणीयं चौर्यासत्यास्पदं यूतम् ।१४६।-सप्त व्यसनोंका प्रथम यानी सम्पूर्ण अनाँका मुखिया, सन्तोषका नाश करनेवाला, मायाचारका घर, और चोरी तथा असत्यका स्थान जूआ दूर हीसे त्याग कर देना
चाहिए ।१४६। (ला.सं./२/१९८) सा.ध./२/१७ ा ते हिंसानृतस्तेयलोभमायामये सजन् । क्व स्वं क्षिपति नानर्थ वेश्याखेटान्यदारवत् ११७ -जुआ खेलने में हिंसा, झूठ, चोरी, लोभ और कपट आदि दोषोंकी अधिकता होती है। इसलिए जैसे वेश्या, परस्त्री सेवन और शिकार खेलनेसे यह जीव स्वयं नष्ट होता है तथा धर्म-भ्रष्ट होता है, इसी प्रकार जूआ खेलनेवाला अपने
को किस-किस आपत्तिमें नहीं डालता। ला सं./२/११५ प्रसिद्ध य तकर्मेदं सद्यो बन्धकरं स्मृतम् । यावदापन्मयं ज्ञात्वा त्याज्यं धर्मानुरागिणा ।११५॥ - जूआ खेलना संसार भरमे प्रसिद्ध है। उसी समय महा अशुभकर्मका मन्ध करनेवाला है, समस्त आपत्तियोको उत्पन्न करनेवाला है, ऐसा जानकर धर्मानुरागियोंको इमे छोड़ देना चाहिए ॥११॥
द्रव्य निर्देश व शंका समाधान द्रव्यमें अनन्तों गुण हैं।
-दे० गुण/३ । द्रव्य सामान्य विशेषात्मक है। -दे० सामान्य। एकान्त पक्षमें द्रव्यका लक्षण सम्भव नहीं। द्रव्यमें त्रिकाली पर्यायोंका सद्भाव कैसे। द्रव्यका परिणमन।
--दे० उत्पाद/२। शुद्ध द्रव्यांको अपरिणामी कहनेकी विवक्षा ।
-दे० द्रव्य/३ । षट् द्रव्योंकी सिद्धि । --दे० वह वह नाम । षट् द्रव्योंकी पृथक्-पृथक् संख्या । अनन्त द्रव्योंका लोकमें अवस्थान कैसे।
-दे० आकाश/३ । ** षट् द्रव्योंकी संख्या अल्पबहुत्व। -दे० अल्पबहुत्व ।
षट् द्रव्योंको जाननेका प्रयोजन । | द्रव्योका स्वरूप जाननेका उपाय। -दे० न्याय । द्रव्योंमें अच्छे बुरेकी कल्पना व्यक्तिकी रुचिपर आधारित है।
-दे० राग/२। | अष्ट मंगल द्रव्य व उपकरण द्रव्य । -दे० चैत्य/१/११ । दान योग्य द्रव्य।
-दे० दान/। निर्माल्य द्रव्य।
-दे० पूजा/४।
द्योतन-दे० उद्योत ।
द्रामल-दक्षिण भारतका वह भाग है, जो मद्राससे सेरिंगपट्टम और
कामोरिम तक फैला हुआ है। और जिसकी पुरानी राजधानी कांचीपुर है । (ध.१/प्र.३२/H.L. Jain) द्रविड़ देश-दक्षिण प्रान्तका एक देश है जिसमें आचार्य कुन्दकुन्द
हुए हैं।-दे० कुन्दकुन्द । द्रविड़ संघ-दिगम्बर साधुओंका संघ। -दे० इतिहास/६/३ ] द्रव्य-लोक द्रव्योंका समूह है और वे द्रव्य छह मुख्य जातियों में
विभाजित हैं। गणनामें वे अनन्तानन्त हैं। परिणमन करते रहना उनका स्वभाव है, क्योंकि बिना परिणमनके अर्थ क्रिया और अर्थक्रियाके बिना द्रव्यके लोपका प्रसंग आता है। यद्यपि द्रव्यमें एक समय एक ही पर्याय रहती है पर ज्ञानमें देखने पर वह अनन्तों गुणों व उनकी त्रिकाली पर्यायोंका पिण्ड दिखाई देता है। द्रव्य, गुण व पर्यायमें यद्यपि कथन क्रमकी अपेक्षा भेद प्रतीत होता है पर वास्तवमें उनका स्वरूप एक रसात्मक है। द्रव्यकी यह उपरोक्त व्यवस्था स्वत. सिद्ध है, कृतक नहीं हैं।
३ षट् द्रव्य विभाजन १-२ चेतन अचेतन व मूर्तामूर्त विभाग ।
संसारी जीवका कथंचित् मूर्तत्व। --दे० मूत/२। ३ क्रियावान् व भाववान् विभाग। ४-५ एक अनेक व परिणामी-नित्य विभाग। |६-७) सप्रदेशी-अप्रदेशी व क्षेत्रवान् व अक्षेत्रवान् विभाग।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org