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देशसंयत
द्यूतक्रीड़ा
स.सि./७/२१/३५६/१२ प्रामादीनामवघृतपरिमाणः प्रदेशो देशः। ततो- देशीनाममालामहिनिवृत्तिर्देशविरतिवतम् । -ग्रामादिककी निश्चित मर्यादारूप
देशीयगण-नन्दिसंघकी एक शाखा-दे० इतिहास/५/२,७/५। प्रदेश देश कहलाता है। उससे बाहर जानेका त्याग कर देना देशविरतिवत कहलाता है। (रा.वा./७/२१/३/५४७/२७), (पु.सि.उ./१३६)
दह-१. दे० शरीर; २. पिशाच जातीय व्यन्तर देवोका एक भेद का.आ/मू./३६७-३६८ पुव्व-पमाण-कदाणं सव्वादिसीणं पुणो वि संव
-दे०पिशाच । रणं। इंदियविसयाण तहा पुणो वि जो कुणदि संवरणं ।३६७ वासादिकयपमाणं दिणे दिणे लोह-काम-समण81३६८। जो श्रावक
देव-दे० नियति/३। लोभ और कामको घटानेके लिए तथा पापको छोड़नेके लिए वर्ष आदिकी अथवा प्रतिदिनकी मर्यादा करके, पहले दिग्बतमें किये
दो-१. यह जघन्य संख्या समझो जाती है। २. दोकी संख्या अवहुए दिशाओंके प्रमाणको, भोगोपभोग परिमाणवतमें किये हुए क्तव्य कहलाती है। -दे० अवक्तव्य । इन्द्रियों के विषयों के परिमाणको और भी कम करता है वह देशाव
दोलायित-कायोत्सर्गका एक अतिचार-दे० व्युत्सर्ग/१ । काशिक नामका शिक्षावत है। बसु.प्रा./२१५ बयभंग-कारणं होइ जम्मि देसम्मि तत्थ णियमेण ।
दोष-१. सम्यक्त्वके २५ दोष निर्देश-दे० सम्यग्दर्शन/२ २.संसाकीरइ गमणणियत्ती तं जाणा गुणव्वयं विदियं ।२१। जिस देश में रहते हुए व्रत भंगका कारण उपस्थित हो, उस देश में नियमसे जो
रियोके अठारह दोष-दे० अहंत/३ । ३. आप्तमेंसे सर्वदोषोंका गमन निवृत्ति की जाती है, उसे दूसरा देशवत नामका गुणवत
अभाव सम्भव है।- दे० मोक्ष/६/४|४. आहार सम्बन्धी ४६ दोषजानना चाहिए ।२१॥ (गुण.श्रा /१४१)
दे० आहार/II/४/५. न्याय सम्बन्धी दोष-दे० न्याय/१ । ला.सं./4/१२३ तद्विषयो गतिस्त्यागस्तथा चाशनवर्जनम् । मैथुनस्य
दोष-१. जीवके दोष रागादि हैं परित्यागो यद्वा मौनादिधारणम् ।१२३॥ =देशावकाशिक व्रतका विषय गमन करनेका त्याग, भोजन करनेका त्याग, मैथुन करनेका स श/टी./५/२२५/३ दोषाश्च रागादय, । -रागादि दोष कहलाते हैं। त्याग, अथवा मौन धारण करना आदि है।
(प.ध./3/६०३) जैनसिद्धान्त प्रवेशिका/२२४ श्रावकके व्रतोको देशचारित्र कहते हैं। द्र, स/टी./१४/४६/११ निर्दोषपरमात्मनो भिन्ना रागादयो दोषाः।
निर्दोष परमात्मासे भिन्न रागादि दोष कहलाते है। २. देशव्रतके पाँच अतिचारोंका निर्देश
दोहा पाहुड़-१. योगेन्दुदेव (ई०० ६ उत्तरार्ध) कृत अपभ्रंश त.सू./७/३१ आनयनप्रेष्यप्रयोगशब्दरूपानुपातपुद्गलक्षेपा' ।३१ = आन
___ आध्यात्मिक ग्रन्थ । २. देवसेन कृत। समय- ई० १०००। यन, प्रेष्यप्रयोग, शब्दानुपात, रूपानुपात और पुद्गलक्षेप ये देश
(H.L.Jair),(जे०/२/१८३)। विरतिव्रतके पाँच अतिचार है।३१। (र.क.श्रा./मु./१६)
दोहासार-दे० योगसार नं. ३ । ३. दिग्व्रत व देशव्रतमें अन्तर
दौलतराम-१. जयपुर राज्य के वकील बनकर उदयपुर गए रा.वा./9/२१/२०/३ अयमनयोविशेष -दिग्विरति' सार्वकालिको देश
और वहाँ ३० वर्ष रहे। कृतियें-अनेक पुराणों की बचनिकाये, विरतिर्यथाशक्ति काल नियमेनेति । = दिग्विरति यावज्जीवन-सर्व
परमात्मप्रकाश बचनिका । आत्मबत्तीसी, अध्यारम बारहखड़ी, कालके लिए होती है जबकि देशवत शक्त्यानुसार नियतकाल के लिए
सार समुच्चन, तत्वार्थसूत्र भाषा , चौनीस दण्डक. क्रियाकोष । होता है । (चा.सा./१६/१)
टोहरमल कृत पुरुषार्थ सिद्धयुपायकी टीका पूर्ण की। समय-वि०
१७७७-१८२२ हाथरस वासी कपडा छापने का व्यवसाय । ४. देशव्रतका प्रयोजन व महत्त्व
पवलीवाल जाति । हाथरस से मथुरा और वहां से लश्कर चले गये।
कृतियें-छाढाला, पदसंग्रह । समय-जन्म वि०१८५५, मृत्यु वि. स.सि./७/२१/३५६/१३ पूर्ववद्वहिर्महावतत्वं व्यवस्थाय्यम् । यहाँ भो
१९२३ । (ती०/४/२८)। पहलेके (दिग्वतके) समान मर्यादाके बाहर महावत होता है । (रा.वा/ ७/२१/२०/५४६/२)
द्यानतराय-आगरा निवासी गोयल गोत्री अग्रवाल श्रावक थे। र.क.पा./६५ सीमान्तानां परत स्थूलेतरपञ्चपापसत्यागाव । देशावकाशि- कृत्तिय-धर्मविलास (पदसग्रह), पूजापाठ व भक्तिस्तोत्र, रूपक,
केन च महावतानि प्रसाध्यन्ते ।१५। -सीमाओ के परे स्थूल सूक्ष्मरूप काव्य, प्रकीणक काव्य । समय-वि० १७३ -१७८५(ती./४/२७६)। पाँचों पापोंका भले प्रकार त्याग हो जानेसे देशाव काशिकवतके द्वारा भी महाव्रत साधे जाते हैं ।१५। (पुसि उ /१४०)
यति-स सि/४/२०/२५१/८ शरीरवसनाभरणादिदीप्ति द्यति । देशसंयत-दे० सयतासंयत ।
- शरीर, वस्त्र और आभूषण आदिको कान्तिको द्य ति कहते हैं।
( रा. वा /४/२०/४/२३५/१७) देशसत्य-दे० सत्य/१।
द्यूतक्रीड़ा-१. घृतके अतिचार देशस्कंध-दे० स्कंध/११
सा ध./३/१६ दोषो होढाद्यपि मनो-विनोदार्थ पणोज्झिनः । हर्षोऽमर्षोवेशस्पर्श-दे० स्पर्श।।
दयाङ्गत्वात. कषायो ह्यहसेऽञ्जसा ।१६। -जूआके त्याग करनेवाले
श्रावकके मनो विनोदके लिए भी हर्ष और विनोदकी उत्पत्तिका देशातिचार-अतिचारका एक भेद-दे० अतिचार/३।।
कारण होनेसे शर्त लगाकर दौडना, जूआ देखना आदि अतिचार
होता है, क्योंकि वास्तव में कषायरूप परिणाम पापके लिए देशावधिज्ञान- दे० अवधिज्ञान/१ ।
होता है ।११। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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