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________________ नरक ५७३ ३. नारकियोंके शरीरकी विशेषताएं ज्ञा !3/२७-६० का भावार्थ-हाय हाय ! पापकर्म के उदयसे हम इस ( उपरोक्तवत् ) भयानक नरकमे पड़े है ।२७। ऐसा विचारते हुए वज्राग्निके समान सन्तापकारी पश्चात्ताप करते है ।२८। हाय हाय । हमने सत्पुरुषों व वीतरागी साधुओके कल्याणकारी उपदेशोंका तिरस्कार किया है ।२६-३३। मिथ्यात्व व अविद्याके कारण विषयान्ध होकर मैने पाँचों पाप किये ।३४-३७। पूर्व भवोमे मैंने जिनको सताया है वे यहाँ मुझको सिंहके समान मारनेको उद्यत है ।३८-४०। मनुष्य भक्मे मैंने हिताहितका विचार न किया, अब यहाँ क्या कर सकता हूँ 1४१-४४। अब किसकी शरणमें जाऊँ ।४। यह दुःख अब मैं कैसे सहूँगा।४६ जिनके लिए मैने वे पाप कार्य किये वे कुटुम्बोजन अब क्यों आकर मेरी सहायता नहीं करते 1४७-५१। इस संसारमें धर्म के अतिरिक्त अन्य कोई सहायक नहीं ।।२-५६। इस प्रकार निरन्तर अपने पूर्वकृत पापों आदिका सोव करता रहता है ।६०१ ५. रोगों सम्बन्धी दुःख निर्देश ज्ञा./३६/२० दुःसहा निष्प्रतीकारा ये रोगाः सन्ति केचन । साकल्येनैव गाप्रेषु नारकाणां भवन्ति ते ।२०-दुस्सह तथा निष्प्रतिकार जितने भी रोग इस ससारमें हैं वे सबके सब नारकियों के शरीरमें रोमरोममें होते हैं। * शीत व उष्ण सम्बन्धी दु:ख निर्देश दे० नरक/५/७ (नारक पृथिवीमें अत्यन्त शीत व उष्ण होती हैं।) ३. क्षेत्रकृत दुःख निर्देश दे० नरक/५/६-८ नरक बिल, वहाँकी मिट्टी तथा नारकियों के शरीर अत्यन्त दुर्गन्धी युक्त होते हैं।६। वहाँके बिल अत्यन्त अन्धकार पूर्ण तथा शीत या उष्ण होते हैं ।७-८॥ ४. असुर देवीकृत दुःख निर्देश ति.प./२/३४८-३५० सिकतानन.../...|३४८१...वेतरणिपहुदि असुरसुरा। गंतूण बालुकंतं णारइयाणं पकोपं ति ॥३४६। इह खेत्ते जह मणुवा पेच्छते मेसमहिसजुद्धादि। तह णिरये असुरसुरा णारयकलह पतुट्ठमणा ।३५० -सिकतानन· वैतरणी आदिक (दे० असुर/२) अमरकुमार जातिके देव तीसरी बालुकाप्रभा पृथिवी तक जाकर नारकियों को क्रोधित कराते है।३४८-३४६। इस क्षेत्रमे जिस प्रकार मनुष्य, मेंढे और भैंसे आदिके युद्धको देखते हैं, उसी प्रकार असुरकुमार जातिके देव नारकियोंके युद्धको देखते हैं और मनमें सन्तुष्ट होते हैं। (म. पु./१०/६४) स.सि./३/५/२०६/७ सुतप्तायोरसपायननिष्टप्तायस्तम्भालिङ्गन.. निष्पीडनादिभिर्नारकाणां दु.रवमुत्पादयन्ति । = खूब तपाया हुआ लोहेका रस पिलाना, अत्यन्त तपाये गये लोहस्तम्भका आलिंगन कराना," यन्त्रमें पेलना आदिके द्वारा नारकियों को परस्पर दु.ख उत्पन्न कराते है । (विशेष दे० पहिले परस्परकृत दुःख) (भ, आ./मू./ १५६८-१९७०), (रा. बा./३/५/८/३६९/३१), (ज. प./११/१६८-१६६) म. पु./१०/४१ चोदयन्त्यसुराश्चैनान् यूयं युध्यध्वमित्यरम् । संस्मार्य पूर्ववैराणि प्राक्चतुर्थ्याः सुदारुणाः ।४१ = पहलेकी तीन पृथिवियों तक अतिशय भयंकर असुरकुमार जातिके देव जाकर वहाँके नारकियोंको उनके पूर्वभव बैरका स्मरण कराकर परस्परमें लडने के लिए प्रेरणा करते रहते हैं । (वसु.श्रा./१७०) दे० असुर/३ (अम्बरीष आदि कुछ ही प्रकारके असुर देव नरकोंमें जाते हैं, सब नहीं) ५. मानसिक दुःख निर्देश म. पू./१०/६७-८६ का भावार्थ-अहो ! अग्निके फुलिंगोंके समान यह वायु, तप्त धूलिकी वर्षा ।६७-६८५ विष सरीखा असिपत्र बन ! जवरदस्ती आलिंगन करनेवाली ये लोहेकी गरम पुतलियाँ ७० हमको परस्परमें लड़ानेवाले ये दुष्ट यमराजतुल्य असुर देव ७१॥ हमारा भक्षण करनेके लिए यह सामनेसे आ रहे जो भयंकर पशु ॥७२॥ तीक्ष्ण शस्त्रोंसे युक्त ये भयानक नारकी ।७३-७॥ यह सन्ताप जनक करुण क्रन्दनकी आवाज ७६। शृगालोको हृदयविदारक ध्वनियाँ ७७१ असिपत्रवनमें गिरनेवाले पत्तोंका कठोर शब्द ७८। काँटोवाले सेमर वृक्ष ७६ भयानक वैतरणी नदी ।८०। अग्निकी ज्वालाओं युक्त ये विलें ।। कितने दुःस्सह ब भयंकर हैं। प्राण भी आयु पूर्ण हुए विना छूटते नहीं।२। अरे-अरे ! अब हम कहाँ जावें । इन दुःखोंसे हम कब तिरंगे ।८४॥ इस प्रकार प्रतिक्षण चिन्तवन करते रहनेसे उन्हें दु.सह मानसिक सन्ताप उत्पन्न होता है, तथा हर समय उन्हें मरनेका संशय बना रहता है ।। ३. नारकियोंके शरीरको विशेषताएं १. जन्मने व पर्याप्त होने सम्बन्धी ति. प./२/३१३ पावेण णिरयबिले जादूर्ण ता मुहूत्तर्ग मेत्ते । छप्पज्जत्ती पाविय आकस्मियभयजुदो होदि ।३१३। -नारकी जीव पापसे नरक बिल में उत्पन्न होकर और एक मुहूर्त मात्रमें छह पर्याप्तियोंको प्राप्त कर आकस्मिक भयसे युक्त होता है । (म. पु./१०/३४) म. पु./१०/३३ तत्र वीभत्सुनि स्थाने जाले मधुकृतामिव । तेऽधोमुखा प्रजायन्ते पापिनामुन्नति कुतः ॥३३ = उन पृथिवियोंमें वे जीव मधुमक्खियोंके छत्ते के समान लटकते हुए घृणित स्थानोमें नीचे की ओर मुख करके पैदा होते हैं। २. शरीरकी अशुभ आकृति स. सि./३/३/२०७/४ देहाश्च तेषामशुभनामकर्मोदयादत्यम्ताशुभतरा विकृताकृतयो हुण्डसंस्थाना दुर्दर्शनाः । - नारकियोके शरीर अशुभ नामकर्मके उदयसे होनेके कारण उत्तरोत्तर (आगे-आगेकी पृथिवियोंमें ) अशुभ हैं। उनकी विकृत आकृति है, हुंडक संस्थान है, और देखनेमें बुरे लगते हैं। (रा. वा./३/३/४/१६४/१२), (ह. पु./४/३६८), (म. पु./१०/३४.६५), ( विशेष दे० उदय/६/३) ३. वैक्रियक भी वह मांसादि युक्त होता है रा. वा./३/३/४/१६४/१४ यह श्लेष्ममूत्रपुरीषमलरुधिरवसामेदःपूयवमनपूतिमांसकेशास्थिचर्माद्यशुभमौदारिकगतं ततोऽप्यतीवाशुभत्वं नारकाणां वै क्रियकशरीरत्वेऽपि।जिस प्रकारके श्लेष्म, मूत्र, पुरीष, मल, रुधिर, वसा, मेद, पीप, वमन, पूति, मांस, केश, अस्थि, चर्म अशुभ सामग्री युक्त औदारिक शरीर होता है, उससे भी अतीव अशुभ इस सामग्री युक्त नारकियोंका बैंक्रियक भी शरीर होता है। अर्थाद वै क्रियक होते हुए भी उनका शरीर उपरोक्त बीभत्स सामग्रीयुक्त होता है। ४. इनके मूंछ दाढ़ी नहीं होती मो. पा./टी./३२ में उद्धृत-देवा वि य नेरझ्या हलहर चक्की य तह य तित्थयरा । सव्वे केसव रामा कामा निक्कुंचिया होति ।१।-सभी देव, नारकी, हलधर, चक्रवर्ती तथा तीर्थकर, प्रतिनारायण, नारायण व कामदेव ये सब बिना मूंछ दाढीवाले होते हैं। ५. इनके शरीरमें निगोद राशि नहीं होती ध.१४/५,६,६१/८१/८ पुढवि-आउ-तेउ-वाउकाइया देव-णेरड्या आहारसरीरा पमत्तसंजदा सजोगिअजोगिकेवलिणो च पत्तेयसरीरा बुच्चंतिः जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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