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नरक
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४. नारकियोंमे सम्भव भाव व गुणस्थान आदि
एदेसि णिगोदजीवेहि सह संबंधाभावादो।- पृथिवीकायिक, जल- कायिक, तेजस्कायिक, बायुकायिक, देव, नारकी, आहारकशरीर, प्रमत्तसंयत, संयोगकेवली और अयोगिकेवली ये जीव प्रत्येक शरीरवाले होते हैं; क्योकि, इनका निगोद जीवोंके साथ सम्बन्ध नहीं होता।
६. छिन्न-भिन्न होने पर वह स्वतः पुनः पुनः मिल जाता है ति. प./२/३४१ करवालपहरभिण्णं कूवजलं जह पुणो वि संघडदि । तह णारयाण अंगं छिज्जंत विविहसत्येहि ।३४११-जिस प्रकार तलवारके प्रहारसे भिन्न हुआ कुएँका जल फिरसे भी मिल जाता है, इसी प्रकार अनेकानेक शस्त्रोसे छेदा गया नारकियोंका शरीर भी फिरसे मिल जाता है।; (ह.पु./४/३६४ ); (म.पु./१०/३६); (त्रि.सा /१६४ ) (ज्ञा./३६/८०)।
४. नारकियोंमें सम्भव भाव व गणस्थान आदि
१. सदा अशुभ परिणामों से युक्त रहते हैं त. सू./३/३ नारका नित्याशुभतरलेश्यापरिणामदेहवेदनाविक्रियाः । ___नारको निरन्तर अशुभतर लेश्या, परिणाम, देह, वेदना व विक्रियावाले है। (विशेष दे० लेश्या/४)।
२. नरकगतिमें सम्यक्त्वोंका स्वामित्व ष. खं. १/१.१/सूत्र १५१-१५५/३६६-४०१ णेरइया अस्थि मिच्छाइट्ठी सासण-सम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी असंजदसम्माइट्ठि त्ति ।१५१ । एवं जाव सत्तसु पुढवीसु ।१५२। णेरइया असंजदसम्माइटि-ट्ठाणे अस्थि खइयसम्माइट्ठी वेदगसम्माइट्ठी उवसमसम्माइट्ठी चेदि ।१५३। एवं पढमाए पुढवीए णेरइआ।१५४। विदियादि जाप सत्तमाए पुढवीए णेरड्या असंजदसम्माइwिठाणे खझ्यसम्माइट्ठी णस्थि, अवसेसा अत्थि ॥१५॥ नारकी जीव मिथ्यावृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिध्यादृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती होते है ।१५१। इस प्रकार सातों पृथिवियोंमे प्रारम्भके चार गुणस्थान होते है ।१५२। नारकी जीव असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमे क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि होते है ।१५३। इसी प्रकार प्रथम पृथिवीमें नारको जीव होते है ।१५४। दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक नारकी जीव असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें क्षायिक सम्यग्दृष्टि नहीं होते है। शेष दो सम्यग्दर्शनोसे युक्त होते हैं ।१५॥
७. आयु पूर्ण होनेपर वह काफूरवत् उड़ जाता है ति.प./२/३५३ कदलीघादेण विणा णारयगत्ताणि आउअवसाणे । मारुदपहदभाइ व णिस्सेसाणि विलीयंते ।३५३। =नारकियोके शरीर कदलीघातके बिना (दे० मरण/४) आयुके अन्तमें वायुसे ताड़ितमेघोंके समान निःशेष विलीन हो जाते हैं । (त्रि. सा./१६६ )। ८. नरक में प्राप्त आयुध पशु आदि नारकियोंके ही शरीर
की विक्रिया है ति. प./२/३१८-३२१ चक्कसरसूलतोमरमोग्गरकरवत्तकोतसूईणं । मुसलासिप्पहूदीणं वणणगदावाणलादीणं ।३१। वयवग्धतरच्छसिगालसाणमज्जालसीहपहुदीण । अण्णोणं चसदा ते 'णियणियदेहं विगुवंति १३१६। गहिरबिलधूममारुदबइतत्तकहल्लिजंतचुल्लीणं । कंडणिपीसणिदब्बीण रूखमण्णे विकुव्वं ति ।।२०। सूबरवणग्गिसोणिदकिमिसरिदहकूववाहपहुदीर्ण । पुहुपुहुरूवविहीणा णियणियदेह पकुव्वं ति ।३२१॥ -वे नारकी जीव चक्र, वाण, शूली, तोमर, मुद्गर, करोत, भाला, सूई, मूसल, और तलवार इत्यादिक शस्त्रास्त्र; वन एवं पर्वतकी आग; तथा भेड़िया, व्याघ, तरक्ष, शृगाल, कुता, बिलाब, और सिह, इन पशुओके अनुरूप परस्परमें सदैव अपने-अपने शरीरकी विक्रिया किया करते हैं ।३१८-३११अन्य नारकी जीव गहरा बिल, धुआँ, वायु, अत्यन्त तपा हुआ खप्पर, यन्त्र. चूलहा, कण्डनी, (एक प्रकारका कूटनेका उपकरण ), चक्की और दर्वी (बी), इनके आकाररूप अपने-अपने शरीरकी विक्रिया करते है ।३२०) उपर्युक्त नारकी शूकर, दावानल, तथा शोणित और कोडोसे युक्त सरित, द्रह, कूप, और वापी आदिरूप पृथक्-पृथक् रूपसे रहित अपने-अपने शरीरकी विक्रिया किया करते हैं। (तात्पर्य यह कि नारकियोके अपृथक विक्रिया होती है। देवोंके समान उनके पृथक् विक्रिया नहीं होती।३२९॥ (स.सि./३/४/२०८/६); ( रा.वा./३/४/१/१६५/४ ); ( ह.पु./४/३६३); (ज्ञा-/३६/६७ ); ( वसु. श्रा./१६६); ( और भी दे० अगला शीर्षक)। ९. छह पृथिवियों में आयुधों रूप विक्रिया होती है और सातवीं में कीड़ों रूप रा. वा./२/४७/४/१५२/११ नारकाणां त्रिशूलचक्रासिमुद्गरपरशुभिण्डिपालाद्यनेकायुधेकत्व विक्रिवा-आ षष्ठ्या'। सप्तम्या महागोकीटकप्रमाणलोहितकुन्थुरूपैकत्व वि क्रिया । छठे नरक तकके नारकियोंके त्रिशूल, चक्र, तलवार, मुद्गर, परशु, भिण्डिपाल आदि अनेक आयुधरूप एकत्व विक्रिया होती है (दे० वैक्रियक/१)। सातवें नरकमें गाय बराबर कीड़े लोहू, चींटी आदि रूपसे एकत्व विक्रिया होती है।
३. नरकगति में गुणस्थानोंका स्वामित्व ष. ख. १/१,१/सू २५/२०४ गैरइया चउठाणेसु अत्यि मिच्छाइट्ठी __सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी असंजदसम्माइदिन्ति ॥२५॥ ष. सं. १४१,१/सू.७६-८३/३१६-३२३ णेरड्या मिच्छाइटिअसंजदसम्माइट्ठिाणे सिया पज्जत्ता सिया अपज्जत्ता ७१। सासणसम्माइटिसम्मामिच्छाइट्ठिाणे णियमा पज्जत्ता ।। एवं पढमाए पुढवीए णेरड्या ।। विदियादि जाव सत्तमाए पुढवीए रहया मिच्छाइट्ठिाणे सिया पज्जत्ता सिया अप्पज्जत्ता 1८२ सासणसम्माइट्ठि-सम्माभिच्छाइट्ठि-असंजदसम्माइट्ठिाणे णियमा पज्जत्ता ।। -मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यावृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि इन चार गुणस्थानों में नारकी होते है ।२५॥ नारकी जीव मिथ्यादृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में पर्यातक होते हैं और अपर्याप्तक भी होते हैं 108 नारकी जीव सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टि गुणस्थानोंमे नियमसे पर्याप्तक ही होते हैं 1001 इसी प्रकार प्रथम पृथिवीमे नारकी होते हैं ।८। दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक रहनेवाले नारकी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें पर्याप्तक भी होते है और अपर्याप्तक भी होते हैं।२। पर वे (२-७ पृथिवीके नारकी) सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोमे नियमसे पर्याप्तक होते हैं ।३। ४. मिथ्याष्टिसे अन्य गुणस्थान वहाँ कैसे सम्भव है ध.११,१.२५/२०१५/३ अस्तु मिथ्यादृष्टिगुणे तेषां सत्त्वं मिथ्यादृष्टिषु तत्रोत्पत्तिनिमित्त मिथ्यात्वस्य सत्त्वात् । नेतरेषु तेषां सत्त्वं तत्रोत्पत्तिनिमित्तस्य मिथ्यात्वस्यासत्त्वादिति चेन्न, आयुषो बन्धमन्तरेण मिथ्यात्वाविरतिकषायाणां तत्रोत्पादनसामर्थ्याभावात् । न च बद्धस्यायुष. सम्यक्त्वान्निरन्वयविनाशः आर्ष विरोधात् । न हि बद्घायुषः सम्यक्त्वं संयममिवन प्रतिपद्यन्ते सूत्रविरोधात् । प्रश्न-मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें नारकियोंका सत्त्व रहा आवे, क्योकि, वहॉपर ( अर्थात मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें ) नारकियोमे उत्पत्तिका निमित्तकारण मिथ्यादर्शन पाया जाता है। किन्तु दूसरे गुणस्थानोमें नारकियोंका
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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