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कृति
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कृतिकर्म
कति-,. किसी राशिके वर्ग या Squard
अपने वर्गमूलको कम कर पा
०६६।२७४ एक
कृति-१. किसी राशिके वर्ग या Square को कृति कहते है। विशेष-दे० गणित II/१/७२. प. ख./5/सू६६/२७४ जो राशि वर्गित
होकर बृद्धिको प्राप्त होती है। और अपने बर्गमेसे अपने वर्गमूलको कम करके पुनः वर्ग करनेपर भी वृद्धिको प्राप्त होती है उसे कृति कहते है। '१' या २'ये कृति नहीं है। '३' आदि समस्त संख्याएँ कृति है। ३. प. वं./8/सू०६६/२७४ 'एक' संख्याका बर्ग करनेपर वृद्धि नहीं होती तथा उसमेंसे ( उसके ही) वर्गमूलके कमकर देने पर वह निर्मूल नष्ट हो जाती है। इस कारण 'एक' संख्या नोकृति है। कृति १. कृतिके भेद प्रभेद ष. खं /१/१,१/मू · २३७-४५१
कृति
।
आगम
पोतकर्म
जित- आमदार भावि ख्यातिरिक्त
नामकृति एकजीव एक अजीव च अनेकजीव अनेक अजीवस्कजीव र एकअजीव) एकजीव । अनेकअजीव अनेकजीव रक अजीवा अनेकजीव अनेक अजीवा
LELआदारिक
-वैक्रियका
CONSIS
अन्तरस भूत
पूस्मि- बहुव बाह
स्थापना दिव्य
पू.ग्रन्थ करण
भाव काष्ठकम आगम
आगम स नोआंगम नोकृति अवक्तव्य कृ चित्रकर्म स्थित
भाव द्रव्य आगम नो7 संख्या - लेप्यकर्म परिजित न माविता
आगम नोआगम
उत्तर, लयनकर्म- वाचनो स्थित- . स्पर्शन- सायक- मावि तव्यतिरिक्त में शैलकर्म- पगठन जित
काल- बुननागन्थना आदि गृहकर्म- सूत्रस
भत
नोभूत भित्तिकर्मन अर्थसम वाचनोन पाइम - भावन दन्तकर्म ग्रन्थसम- पगत" वेदिम
अल्प- लौकिक
वैदिक सामायिय संघातम परिशासन उभय परिधातना उभय भेडकर्म- नामसमः सूत्रसम
पू. ऋतिकृति कृति कृति कृति अक्षव। घोषसम अर्थसमर संघातिम
अभ्यन्तर पृ.१३९ वराटका उपयोग
अहोदिम क्षेत्र - मिथ्यात्व कषायनो उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट अंजघन्य जघन्य इत्यादि नामसम णिकरवो
वास्तु
धन - इत्यादि
ओलिम धान्य अवेलिम द्विपदवर्ण -
चतुष्पदना चूर्ण न
यानगन्ध शयनविलेपन आसनइत्यादि
कुप्यन भाण्ड
ग्रन्थसम
यावर काय जाय) सु218
Hशलाका
वेम मृतिका नालिका
योषसम्म
चक्र कुदारी
इत्यादि उदकादिक
परशु
TTT
वाचना पृच्छना प्रतिच्छना परिवर्तना अनुप्रेक्षा स्तिव स्तुति धर्मकथा -इत्यादि
भेद व लक्षण कृतिकर्मका लक्षण। कृतिकर्म स्थितिकल्पका लक्षण ।
कृतिकर्म निर्देश
२ कृति सामान्यका लक्षण ध/६/४.१.६८/३२६/१ "क्रियते कृतिरिति व्युत्पत्ते अथवा मूलकरण मेव
कृति , क्रियते अनया इति व्युत्पत्ते । जो किया जाता है वह कृति शब्द की व्युत्पत्ति है, अथवा मूल कारण हो कृति है, क्योंकि जिसके द्वारा किया जाता है वह कृति है, ऐसी कृति शब्दको व्युत्पत्ति है । * नक्षेपरूप कृतिके लक्षण -दे. निक्षेप। * स्थित जित आदि कृति-निक्षेप/५॥ * वाचना पृच्छना कृति-दे० वह वह नाम । * ग्रन्धकृति-दे० ग्रन्थ । * संघातन परिशातन कृति-दे० वह वह नाम । कृतिकर्म-द्रव्यश्रुतके १४ पूत्रों मेंमे बारहवें पूर्व का छहों प्रकीर्णक
--दे० श्रुतज्ञान/I11/१।। कृतिकम-दनिकादि क्रियाओं मे साधुओको किस प्रकारके आसन, मुदा अदिका ग्रहण करना चाहिए तथा किस अवसरपर कौन भक्ति व पाठादिका उच्चारण करना चाहिए, अथवा प्रत्येक भक्ति आदिके साथ किस प्रकार आवर्त, नति व नमस्कार आदि करना चाहिए, इस सब विधि विधानको कृतिकर्म कहते हैं। इसी विषयका विशेष परिचय इस अधिकारमें दिया गया है।
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कृतिकमके नौ अधिकार। कृतिकर्मके प्रमुख अंग। कृतिकर्म कौन करे ( स्वामित्व )। कृतिकर्म किसका करे। किस-किस अवसर पर करे। नित्य करनेकी प्रेरणा। कृतिकर्मकी प्रवृत्ति आदि व अन्तिम तीथों में ही कही. गयी है। आवर्तादि करने की विधि। प्रत्येक कृतिकर्ममें आवर्त नमस्कारादिका प्रमाण
-दे० कृतिकर्म/२/१
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