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कृतिकर्म
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१. भेद व लक्षण
'कृतिकर्मके अतिचार -दे० व्युत्सर्ग/१ ।
अधिक बार आवर्तादि करनेका निषेध नही।
३ | कृतिकर्म व ध्यान योग्य द्रव्य क्षेत्रादि
योग्य मुद्रा व उसका प्रयोजन । योग्य आसन व उसका प्रयोजन ।
योग्य पीठ। ४ | योग्य क्षेत्र तथा उसका प्रयोजन ।
योग्य दिशा। | योग्य काल -(दे० वह वह विषय )। | योग्य भाव आत्माधीनता ।
योग्य शुद्धियाँ। | आसन क्षेत्र काल आदिके नियम अपवाद मार्ग हैं उत्सर्ग नहीं।
४ कृतिकर्म विधि १ साधुका दैनिक कार्यक्रम ।
कृतिकर्मानुपूर्वी विधि। प्रत्येक क्रियाके साथ भक्तिके पाठोंका नियम।
अन्य सम्बन्धित विषय कृतिकर्म विषयक सत् ( अस्तित्व ), संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्पबहुत्व रूप आठ । प्ररूपणाएँ -दे० वह वह नाम। कृतिकर्मकी संघातन परिशातन कृति-दे० वह वह नाम ।
२. कृतिकर्म निर्देश१ कृतिकर्मके नौ अधिकारमू आ./५७५-५७६ किदियम्म चिदियम्म पूयाकम्मं च विणयकम्मं च । कादव्वं केण कस्स कथं व कहि कदि खुत्तो ।५७६। कदि ओणदं कदि सिर' कदिए आवत्तगेहि परिसुद्ध' । कदि दोसविप्पमुक्क किदियम्म होदि कादव्वं ।५७७।-जिससे आठ प्रकारके कर्मोंका छेदन हो वह कुतिकर्म है, जिससे पुण्यकर्मका संचय हो वह चितकर्म है, जिससे पूजा करना वह माला चन्दन आदि पूजाकर्म है, शुश्रूषाका करना विनयकर्म है। १ वह क्रिया कर्म कौन करे, २. किसका करना, ३. किस विधिसे करना, ४. किस अवस्थामे करना. ५. कितनी बार करना, (कृतिकर्म विधान); ६. कितनी अवनतियोसे करना,७. कितनी बार मस्तकमें हाथ रख कर करना; ८. कितने आर्वतोसे शुद्ध होता है; ६. कितने दोष रहित कृतिकर्म करना (अतिचार) इस प्रकार नौ प्रश्न करने चाहिए (जिनको यहाँ चार अधिकारोमें गर्भित कर दिया गया है।) .. कृतिकर्मके प्रमुख अंगप.वं./१६/५.४/सू.२८/८८ तमादाहीणं पदाहीणं तिरबुत्तं तियोणदं
चदुसिर बारसावत्तं तं सव्वं किरियाकम्मं णाम ।-आत्माधीन होना, प्रदक्षिणा करना तीन बार करना (त्रि'कृत्वा), तीन बार अबनति (या नमस्कार), चार बार सिर नवाना (चतु.शिर), और बारह
आवर्त ये सब क्रियाकर्म हैं । (समवायांग सूत्र २) (क.पा./१/१,१/६१/११८/२) (चा सा./१५७/१) (गो. जी०/जी.प्र./३६७/
७१०/५) मू. आ./६०१,६८६ दोणदं तु जधाजादं बारसावत्तमेव य । चदुस्सिर तिसुद्ध' च किदियम्म पउजदे ।६०१। तियरणसम्वबिसुद्धो दब खेत्ते जधुत्तकालम्हि । मोणेणधारिखप्तो कुज्जा आवासया णिच्च । ऐसे क्रियाकर्म को करे कि जिसमें दो अवनति (भूमिको छूकर नमस्कार) हैं, बारह आवर्त हैं, मन बचन कायकी शुद्धतासे चार शिरोनति हैं इस प्रकार उत्पन्न हुए बालकके समान करना चाहिए ।६०११ मन, वचन काय करके शुद्ध, द्रव्य क्षेत्र यथोक्त काल में नित्य ही मौनकर निराकुल हुआ साधु आवश्यकोको क्रें।६८४। (भ. आ./११६/२७५/११
पर उद्धृत) (चा सा /२५७/६ पर उद्धृत) अन ध./८/७८ योग्यकालासनस्थानमुद्रावर्तशिरोनति । विनयेन यथाजात. कृतिकर्मामलं भजेत् ।७८-योग्य काल, आसन, स्थान (शरीरको स्थिति वैठे हुए या खड़े हुए), मुद्रा, आवर्त, और शिरोनति रूप कृतिकर्म विनय पूर्वक यथाजात रूपमें निर्दोष करना चाहिए।
३- कृतिकर्म कौन करे (स्वामित्व)मू, आ /५६० पंचमहव्वदगुत्तो संविग्गोऽणालसो अमाणी य। किदियम्म णिज्जरट्ठी कुणइ सदा ऊणरादिणिओ।५६०1 = पंच महावतोके आचरणमे लीन, धर्म में उत्साह वाला, उद्यमी, मानकषाय रहित, निर्जराको चाहने वाला, दीक्षासे लघु ऐसा संयमी कृतिकर्मको करता है । नोट-- मूलाचार ग्रन्थ मुनियोके आचारका ग्रन्थ है, इसलिए यहाँ मुनियोंके लिए ही कृतिकर्म करना बताया गया है। परन्तु श्रावक व अविरत
सम्यग्दृष्टियोको भी यथाशक्ति कृतिकर्म अवश्य करना चाहिए। ध./५,४,३१/१४/४ किरियाकम्मदव्वट्ठदा असंखेज्जा । कुदो। पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत सम्माइट्ठीस चेव किरियाकम्मुवलं - भादो। क्रियाकर्म की द्रव्यार्थता (द्रव्य प्रमाण) असंख्यात है, क्योंकि पल्योपम के असंख्यातवे भाग मात्र सम्यग्दृष्टियो में ही क्रियाकर्म पाया जाता है।
१. भेद व लक्षण
1. कृतिकर्मका लक्षण प. ख/१२/५,४/सू.२८/८८ तमादाहीणं पदाहिणं तिक्खुत्तं तियोणदं
चदुसिरं बारसावत्तं तं सव्वं किरियाकम्मं णाम/२८/1-आत्माधीन होना, प्रदक्षिणा करना, तीन बार करना (त्रि'कृत्वा) तीन बार अवनति (नमस्कार ), चार बार सिर नवाना (चतुः शिर) और १२
आवर्त ये सब क्रियाक्रम कहलाते हैं । ( अन.ध/8/१४)। क.पा/१/१,१/११/११८/२ जिण सिद्धाइरियं बहुसुदेसु वदिज्जमाणेसु । जं कीरइ कम्मं तं किदियम्म णाम ।-जिनदेव, सिद्ध, आचार्य और उपाध्यायकी ( नब देवता को) बन्दना करते समय जो क्रिया की जाती है, उसे कृतिकर्म कहते हैं । (गो. जी./जी.प्र./३६७/७६०/५) मू.आ /भाषा./५७६ जिसमें आठ प्रकारके कर्मों का छेदन हो वह कृति
. कृतिकर्म स्थितिकल्पका लक्षण भ.पा./टी./४२१/६१५/१० चरणस्थेनापि विनयो गुरूणां महत्तराणां शुश्रूषा च कर्तव्येति पञ्चम' कृतिकर्मसंज्ञितः स्थितिकलपः।-चारित्र सम्पन्न मुनिका, अपने गुरुका और अपनेसे बड़े मुनियों का विनय करना शुश्रूषा करना यह कर्तव्य है। इसको कृतिकर्म स्थितिकल्प
कहते हैं।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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