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कृतिकर्म
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३. कृतिकर्म व ध्यानयोग्य द्रव्य क्षेत्रादि रूप सामग्री
चा.सा./१५८/६ सम्यग्दृष्टीनां क्रियाय भवन्ति। चा. सा./१६६/४ एवमुक्ताः क्रिया यथायोग्य जघन्यमध्यमोत्तमश्रावकै संयतैश्च करणीयाः।-सम्यग्दृष्टियों के ये क्रिया करने योग्य होती हैं । इस प्रकार उपरोक्त क्रियाएँ अपनी-अपनी योग्यतानुसार
उत्तम, मध्यम, जघन्य श्रावकोंको तथा मुनियों को करनी चाहिए। अन.ध./८/१२६/८३७ पर उद्धृत--सव्याधेरिव कल्पत्वे विदृष्टेरिव लोचने। जायते यस्य संतोषो जिनवक्त्रविलोकने । परिषहसहः शान्तो जिनसूत्र विशारद.। सम्यग्दृष्टिरनाविष्टो गुरुभक्तः प्रियंवदः ॥ आवश्यकमिदं धीर' सर्वकर्मनिषूदनम् । सम्यक् कर्तुमसौ योग्यो नापरस्यास्ति योग्यता । रोगीको निरोगताकी प्राप्तिसे; तथा अन्धेको नेत्रोंकी प्राप्तिसे जिस प्रकार हर्ष व संतोष होता है, उसी प्रकार जिनमुख विलोकनसे जिसको सन्तोष होता हो २. परीषहोंको जीतनेमें जो समर्थ हो, ३, शान्त परिणामी अर्थात् मन्दकषायी हो: ४. जिनसूत्र विशारद हो; ५. सम्यग्दर्शनसे युक्त हो; ६. आवेश रहित हो; ७. गुरुजनोंका भक्त हो; ८. प्रिय वचन बोलने वाला हो; ऐसा बहो धीर-वीर सम्पूर्ण कर्मोंको नष्ट करने वाले इस आवश्यक कर्मको करनेका अधिकारी हो सकता है। और किसीमें इसकी योग्यता नहीं रह सकती।
४. कृतिकर्म किसका करेमू.आ./५६१ आइरियउवज्झायाणं पवत्तपत्थेरगणधरादीणं । एदेसि किदियम्मं कादयं णिज्जरहाए ।५११- आचार्य, उपाध्याय, प्रवतक, स्थविर, गणधर आदिकका कृतिकर्म निर्जराके लिए करना
चाहिए, मन्त्रके लिए नहीं। (क.पा./१/१,१/११/११८/२) गो.जी./जी.प्र./३६७/७१०/२ तच्च अर्ह स्सिद्धाचार्यबहुश्रुतसाध्वादिनवदेवतावन्दनानिमित्त क्रियां विधानं च वर्ण यति । = इस ( कृतिकर्म प्रकीर्ण कमें ) अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु आदि नवदेवता (पाँच परमेष्ठी, शास्त्र, चैत्य, चैत्यालय तथा जिनधर्म) की वन्दनाके निमित्त क्रिया विधान निरूपित है। ५. किस किस अवसर पर करेमू.आ०/१EE आलोयणायकरणे पडिपुच्छा पूजणे य सज्झाए अवराधे य
गुरूणं बंदणमेदेसु ठाणेसु ॥५६६।- आलोचनाके समय, पूजाके समय, स्वाध्यायके समय, क्रोधादिक अपराधके समय-इतने स्थानों में
आचार्य उपाध्याय आदिको वंदना करनी चाहिये। भ.आ./वि./११६/२७८/२२ अतिचारनिवृत्तये कायोत्सर्गा बहुप्रकारा
भवन्ति। रात्रिदिनपक्षमासचतुष्टयसंवत्सरादिकालगोचरातिचारभेदा पेक्षया।
- अतिचार निवृत्ति के लिए कायोत्सर्ग बहुत प्रकारका है। रात्रि कार्योत्सर्ग, पक्ष, मास, चतुर्मास और संवत्सर ऐसे कायोत्सर्ग के बहुत भेद हैं । रात्रि, दिवस, पक्ष, मास, चतुर्मास, वर्ष इत्यादिमें जो बतमें अतिचार लगते हैं उनको दूर करनेके लिए ये कायोत्सर्ग किये जाते हैं।
६. नित्य करनेकी प्रेरणाअन ध./८/७७ नित्येनेत्थमथेतरेण दुरितं निर्मूलयन् कर्मणा,.../. शुभगं कैवल्यमस्तिस्नुते ।७७ नित्य नैमित्तिक क्रियाओं के द्वारा पाप कर्मोंका निर्मूलन करते हुए.. कैवल्य ज्ञानको प्राप्त कर लेता है। ७. कृतिकर्मकी प्रवृत्ति आदि व अन्तिम तीर्थों में ही कही गयी हैम.आ /६२६-६३० मज्झिमया दिढ़बुद्धी एयग्गमा अमोहलक्खा य । तह्माहु जमाचरंति तं गरहंता वि सुज्झति ।६२६॥ पुरिमचरिमादु
जहमा चलचित्ता चेव मोहलकवा य। तो सव्वपडिक्कमणं अंधलघोडय दिट्टतो।६३०॥ - मध्यम तीर्थंकरोंके शिष्य स्मरण शक्तिवाले हैं, स्थिर चित्त वाले हैं, परीक्षापूर्वक कार्य करने वाले हैं, इस कारण जिस दोषको प्रगट आचरण करते हैं, उस दोषसे अपनी निन्दा करते हुए शुद्ध चारित्रके धारण करने वाले होते हैं ।६२९॥ आदि-अन्तके तीर्थंकरोंके शिष्य चलायमान चित्त वाले होते हैं, मूढबुद्धि होते हैं, इसलिए उनके सब प्रतिक्रमण दण्डकका उच्चारण है। इसमें अन्धे घोड़ेका दृष्टान्त है। कि-एक वैद्यजी गाँव चले गये। पीछे एक सेठ अपने घोड़ेको लेकर इलाज करानेके लिए वैद्यजीके घर पधारे। वैद्यपुत्रको ठीक औषधिका ज्ञान तो था नहीं। उसने आलमारी में रखी सारी ही औषधियोंका लेप घोड़ेकी आँखपर कर दिया। इससे उस घोड़ेकी आँखें खुल गई। इसी प्रकार दोष व प्रायश्चित्तका ठीक-ठीक ज्ञान न होनेके कारण आगमोक्त आवश्यकादिको ठीक-ठीक पालन करते रहनेसे जीवनके दोष स्वत' शान्त हो जाते हैं। (भ.आ./वि./४२१/६१६/५)
८. आवर्तादि करनेकी विधिअन.ध./८/८ त्रिः संपुटीकृतौ हस्तौ भ्रमयित्वा पठेत् पुनः। साम्य पठित्वा भ्रमयेत्तौ स्तवेऽप्येतदाचरेत् । आवश्यकोंका पालन करनेवाले तपस्वियोंको सामायिक पाठका उच्चारण करनेके पहले दोनों हाथोंको मुकुलित बनाकर तीन बार धुमाना चाहिए । घुमाकर सामायिकके णमो अरहताण' इत्यादि पाठका उच्चारण करना चाहिए। पाठ पूर्ण होनेपर फिर उसी तरह मुकुलित हाथोंको तीन बार घुमाना चाहिए । यही विधि स्तव दण्डकके विषयमे भी समझनी चाहिए।
९. अधिक बार भी आवर्त आदि करनेका निषेध नहींध.१३/५,४,२८/८/१४ एवमेगं किरियाकम्मं चदुसिर होदि । ण अण्णस्य णवणपडिसेहो ऐदेण कदो, अण्णत्थणवणियमस्स पडिसेहाकरणादो। - इस प्रकार एक क्रियाकर्म चतुःसिर होता है। इससे अतिरिक्त नमनका प्रतिषेध नहीं किया गया है, क्योंकि शास्त्रमें अन्यत्र नमन करनेके नियमका कोई प्रतिषेध नहीं है । (चा सा./१५७.५); (अन.ध./८/६१)
३. कृतिकर्म व ध्यान योग्य द्रव्य क्षेत्रादि रूप सामग्री १. योग्यमुद्रा व उसका प्रयोजन
१. शरीर निश्चल सीधा नासाग्रहदृष्टि सहित होना चाहिए भ.आ./मू./२०८१/१८०३ उज्जुअआयददेहो अचल बंधेत पलिअंक। == शरीर व कमरको सीधी करके तथा निश्चल करके और पर्यकासन बाँधकर ध्यान किया जाता है। रा. वा./६/४४/१/६३४/२० यथासुखमुपविष्टो बद्धपत्यङ्कासनः समृर्ज प्रणिधाय शरीरयष्टिमस्तब्धा स्वाङ्क वामपाणितलस्योपरि दक्षिणपाणितलमुत्तल समुपादाय(नेते)नात्युन्मीलन्नातिनिमीलन दन्तर्दन्ताग्राणि संदधानः ईषदुन्नतमुखः प्रगुणमध्योऽस्तब्धमूतिः प्रणिधानगम्भीरशिरोधर प्रसन्नवक्त्रवर्ण : अनिमिषस्थिरसौम्यदृष्टिः विनिहित निद्रालस्यकामरागरत्यरतिशोकहास्यभयद्वेषविचिकित्सः मन्दमन्दप्राणापानप्रचार इत्येवमादिकृतपरिकर्मा साधुः।-सुखपूर्वक पल्यं कासनसे बैठना चाहिए। उस समय शरीरको सम ऋजु और निश्चल रखना चाहिए। अपनी गोद में बायें हाथके ऊपर दाहिना हाथ रखे। नेत्रन अधिक खुले न अधिक बन्द । नीचेके दाँतोंपर ऊपरके दाँतोंको मिलाकर रखे । मुहको कुछ ऊपरकी ओर किये हुए तथा सीधी कमर और गम्भीर गर्दन किये हुए, प्रसन्न मुख और अनिमिष स्थिर सौम्य दृष्टि होकर (नासाग्र दृष्टि होकर (ज्ञा./२८/३५); मिद्रा, आलस्य,
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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