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कृतिकर्म
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३. कृति कर्म व ध्यान योग्य द्रव्य क्षेत्रादि
काम, राग, रति, अरति, शोक, हास्य, भय, द्वेष, विचिकित्सा आदिको छोड़कर मन्द मन्द श्वासोच्छवास लेनेवाला साधु ध्यानकी तैयारी करता है। (म.पु /२१/६०-६८); (चा.सा./१७१/६); (ज्ञा./२/
३४-३७); (त. अनु./१२-६३) म.पु/२९/६६ अपि व्युत्सृष्टकायस्य समाधिप्रतिपत्तये। मन्दोच्छवासनिमेषादिवृत्ते स्ति निषेधनम् १६६% (प्राणायाम द्वारा श्वास निरोध नहीं करना चाहिए दे० प्राणायाम), परन्तु शरीरसे ममत्व छोड़नेवाले मुनिके ध्यानकी सिद्धिके लिए मन्द-मन्द उच्छ्वास लेनेका और पलकोंकी मन्द मन्द टिमकारका निषेध नहीं किया है।
२. निश्चल मुद्राका प्रयोजन म.पु./२१/६७-६८ समावस्थितकायस्य स्यात समाधानमनिनः । दुःस्थिताङ्गस्य तद्भङ्गाद भवेदाकुलता धियः ।६७। ततो तथोक्तपक्यलक्षणासनमास्थितः । ध्यानाभ्यासं प्रकुर्वीत योगी व्याक्षेपमुत्सृजन् ।८।। ध्यानके समय जिसका शरीर समरूपसे स्थित होता है अर्थात ऊँचानीचा नहीं होता है, उसके चित्तकी स्थिरता रहती है, और जिसका शरीर विषमरूपसे स्थित है उसके चित्तकी स्थिरता भंग हो जाती है, जिससे बुद्धिमें आकुलता उत्पन्न होती है, इसलिए मुनियोको ऊपर कहे हुए पर्यकासनसे बैठकर और चित्तको चंचलता छोड़कर ध्यानका अभ्यास करना चाहिए।
३. अवसरके अनुसार मुद्राका प्रयोग अन.ध./८/८७ स्वमुद्रा वन्दने मुक्ताशुक्तिः सामायिकस्तवे। योगमुद्रास्यया स्थित्या जिनमुद्रा तनुज्झने । = ( कृतिकर्म रूप) आवश्यकोंका पालन करनेवालोंको वन्दनाके समय वन्दना मुद्रा और 'सामायिक दण्डक' पढ़ते समय तथा 'थोस्सामि दण्डक' पढ़ते समय मुक्ताशुक्ति मुद्राका प्रयोग करना चाहिए। यदि बैठकर कायोत्सर्ग किया जाये तो जिनमुद्रा धारण करनी चाहिए। (मुद्राओं के भेद व लक्षण-- दे० मुद्रा) २. योग्य आसन व उसका प्रयोजन१. पर्षक व कायोत्सर्गकी प्रधानता व उसका कारण मू.आ./६०२ दुविठाण पुनरुत्तं ।दो प्रकारके आसनोंमेंसे किसी एक
से कृतिकर्म करना चाहिए। भ.आ./मू./२०८६/१८०३ अंधेत्तु पलिअंकं ।-पत्यकासन बान्धकर किया
जाता है। (रा.वा./१/४४/१/६३४/२०); (म.पु./२१/६०) म पु./२१/६९-७२ पत्यक इव दिध्यासोः कायोत्सर्गोऽपि संमतः। संप्र.
युक्त सङ्गिो द्वात्रिंशद्दोषवर्जित ।६। विसंस्थुलासनस्थस्य धवं गात्रस्य निग्रहः । तन्त्रिग्रहान्मन.पीडा ततश्च विमनस्कता ७०। वैमनस्यै च किं ध्यायेत् तस्यादिष्टं सुखासनम् । कायोत्सर्गश्च पर्यङ्कः ततोऽन्यद्विषमासनम् ।७१। तदवस्थाद्वयस्यैव प्राधान्यं ध्यायतो यतेः। प्रायस्तत्रापि पल्यङ्कम आममन्ति सुखासनम् १७२ ध्यान करनेकी इच्छा करनेवाले मुनिको पर्यंक आसनके समान कायोत्सर्ग आसन करनेकी भी आज्ञा है। परन्तु उसमें शरीरके समस्त अंग सम व ३२ दोषोंसे रहित रहने चाहिए (दे० व्युत्सर्ग १/१०) विषम आसनसे बैठने वालेके अवश्य ही शरीरमे पीड़ा होने लगती है। उसके कारण मनमें पीडा होती है और उससे व्याकुलता उत्पन्न हो जाती है । ७०। आकुलता उत्पन्न होनेपर क्या ध्यान दिया जा सकता है। इसलिए ध्यानके समय सुखासन लगाना ही अच्छा है। कायोत्सर्ग और पर्यक ये दो सुखासन हैं। इनके सिवाय माकोके सम बासन विषम अर्थात् दुःख देनेवाले हैं ।७१। ध्यान करने वालेको इन्हीं दो आसनोंकी प्रधानता रहती है। और उन दोनोमें भी पर्यकासन अधिक सुखकर माना जाता है ।७२ (ध. १३/१४.२६/ ६६/२); (ज्ञा/२८/१२-१३,३१-३२) (का. अ/मू/३५५); (अन. ध/-/८४)
२. समर्थ जनोंके लिए आसनका कोई नियम नहीं: ध. १३/५,४,२६/१४/६६ जच्चिय देहावत्था जया ण झाणावरोहिणी होइ। झाएज्जो तदवत्थो दियो णिसण्णो णिवणणो वा-जैसी भी देहकी अवस्था जिस समय ध्यानमें बाधक नहीं होती उस अवस्थामें रहते हुए खड़ा होकर या बैठकर ( या म.पु.के अनुसार लेट कर भी)
कायोत्सर्ग पूर्वक ध्यान करे। (म.पु/२१/७५); ( ज्ञा /२८/११) भ. आ./मू./२०१०/१८०४ वीरासणमादीयं आसणसमपादमादियं ठाणं । सम्म अधिदिट्ठो अध वसेजमुत्ताणसयणादि ।२०६०।- वीरासन आदि आसनोसे बैठकर अथवा समपाद आदिसे खड़े होकर अर्थात कायोत्सर्ग आसनसे किवा उत्तान शयनादिकसे अर्थात लेटकर भी धर्मध्यान करते हैं ।२०६० म.पु/२१/७३-७४ वज्रकाया महासत्त्वा' सर्वावस्थान्तरस्थिताः । श्रूयन्ते ध्यानयोगेन संप्राप्ता. पदमव्ययम् १७३। बाहुण्यापेक्षया तस्माद अवस्थाद्वयसंगर. । सक्तानी तूपसर्गाद्य तद्वैचित्र्यं न दुष्यति ।७४। - आगममें ऐसा भी सुना जाता है कि जिनका शरीर वज्रमयी है, और जो महाशक्तिशाली है, ऐसे पुरुष सभी आसनों से (आसनके वीरासन, कुक्कुटासन आदि अनेको भेद--दे० आसन ) विराजमान होकर ध्यानके बलसे अविनाशीपदको प्राप्त हुए हैं ७३। इसलिए कायोत्सर्ग और पर्यक ऐसे दो आसनोका निरूपण असमर्थ जीवोंकी अधिकतासे किया गया है। जो उपसर्ग आदिके सहन करने में अतिशय समर्थ हैं, ऐसे मुनियोंके लिए अनेक प्रकारके आसनोंके लगाने में दोष नहीं है ।७४। (ज्ञा/२८१३-१७) अन,ध/८/८३ त्रिविध पद्मपर्यवीरासनस्वभावकम् । आसनं यत्नतः कार्य विदधानेन बन्दनाम् । -वन्दना करनेवालोंको पद्मासन पर्यकासन और वीरासन इन तीन प्रकारके आसनोंमेंसे कोई भी आसन करना चाहिए। ३. योग्य पीठ रा. वा./६/४४/१/६३४/१६ समन्तात् बाह्यान्तःकरणविक्षेपकारणविरहिते भूमितले शुचावनुकूलस्पर्श यथासुखमुपविष्टो। सब तरफसे बाह्य और आभ्यन्तर माधाआसे शून्य, अनुकूल स्पर्शवाली पवित्र भूमिपर मुख पूर्वक बैठना चाहिए । (म.पु./२१/६०) ज्ञ./२८/६ दारुपट्टे शिलापट्टे भूमौ वा सिकतास्थले। समाधिसिद्धये धोरो विदध्यात्सुस्थिरासनम् ।।धीर वीर पुरुष समाधिकी सिद्धिके लिए काष्ठके तख्तेपर, तथा शिलापर अथवा भूमिपर बा बालू रेतके स्थानमें भले प्रकार स्थिर आसन करै । (त. अनु./१२) अन. घ./८/८२ विजन्त्वशब्दमच्छिद्रं मुखस्पर्शमकीलकम् । स्थेयस्तार्णा
द्यधिष्ठेयं पीठं विनयवर्धनम् । = विनयकी बृद्धिके लिए, साधुओंको तृणमय, शिलामय या काष्ठमय ऐसे आसनपर बैठना चाहिए, जिसमें क्षुद्र जीव न हों, जिसमे चरचर शब्द न होता हो, जिसमें छिद्रन हो, जिसका स्पर्श सुखकर हो, जो कील या कांटे रहित हो तथा निश्चल हो, हिलता न हो। ४. योग्य क्षेत्र तथा उसका प्रयोजन १. गिरि गुफा आदि शून्य व निर्जन्तु स्थान : र. क. श्रा/EE एकान्ते सामायिक नियक्षेपे वनेषु वास्तुषु च । चैत्याल
येषु वापि च परिचेत्यं प्रसन्नधिया। क्षुद्र जीवोंके उपद्रव रहित एकान्तमें तथा वनोंमें अथवा घर तथा धर्मशालाओं में और चैत्यालयोंमे या पर्वतकी गुफा आदिमें प्रसन्न चित्तसे सामायिक करना
चाहिए । (का. अ./मू./६५३ ). (चा. सा/११/२) रा.वा./8/४४/१/६३४/१७ पर्वतगुहाकन्दरदरीद्रुमकोटरनदीप्रलिनपितवनजीर्णोद्यानशून्यागारादीनामन्यतमस्मिन्नवकाशे... | -पर्वत, गुहा, वृक्षकी कोटर, नदीका तट, नदीका पुल, श्मशान, जीर्णोद्यान और
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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