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कृतिकर्म
३. कृति कर्म व ध्यान योग्य क्षेत्रादि
शून्यागार आदि किसी स्थानमें भी ध्यान करता है। (ध.१३/५,४, २६/६६/१), (म.पू./२१/५७), (चा सा /१७१/३), (त अनु./80) ज्ञा./२८/१-७ सिद्धक्षेत्रे महातीर्थ पुराणपुरुषाश्रिते। कल्याणकलिते पुण्ये ध्यानसिद्धि प्रजायते ।१सागरान्ते बनान्ते वा शैलशृङ्गान्तरेऽथवा । पुलिने पद्मवण्डान्ते प्राकारे शालसंकटे ।२। सरितां संगमे द्वीपे प्रशस्ते तरुकोटरे। जीर्णोद्याने श्मशाने वा गुहागर्भे विजन्तुके ।३. सिद्धकूटे जिनागारे कृत्रिमेऽकृत्रिमेऽपि वा । महर्दिकमहाधीरयोगिसंसिद्धवाञ्छिते ४ = सिद्धक्षेत्र, पुराण पुरुषों द्वारा सेवित, महा तीर्थक्षेत्र, कल्याणकस्थान ।। सागरके किनारे पर वन, पर्वतका शिखर, नदीके किनारे, कमल वन, प्राकार (कोट ), शालवृक्षोंका समूह. नदियोंका संगम, जलके मध्य स्थित द्वीप, वृक्षके कोटर, पुराने वन, श्मशान, पर्वतको गुफा, जोवरहित स्थान, सिद्धकूट, कृत्रिम व अकृत्रिम चैत्यालय,-ऐसे स्थानों मे ही सिद्धिकी इच्छा करनेवाले मुनि ध्यानको सिद्धि करते हैं । (अन.ध /८/८१) (दे० वसतिका/४) २. निर्बाध व अनुकूल भ.आ./मू./२०८६/१८०३ सुचिए समे विचित्त देसे णिज्जतुए अणुणाए १२०८१। पवित्र, सम, निर्जन्तुक तथा देवता आदिसे जिसके लिए अनुमति ले ली गयी है, ऐसे स्थानपर मुनि ध्यान करते है। (ज्ञा /२७/३२) ध./१३/५,४,२६/१६-१७/६६ तो जत्य समाहाणं होज मणोवयण
कायजोगाणं । भूदोवधायरहिओ सो देसो उझायमाणस्स ।१६। णिच्चं वियजुवइपसूणवंसयकुसीलवजियं जइणो। ट्ठाण बियणं भणिय विसेसदो ज्माणकालम्मि ।१७ =मन, वचन व कायका जहाँ समाधान हो और जो प्राणियोके उपधातसे रहित हो वही देश ध्यान करनेवालोंके लिए उचित है ।१६। जो स्थान श्वापद, स्त्री, पशु, नपुंसक ओर कुशील जनोसे रहित हो और जो निजन हो, यति जनोंको विशेष रूपसे ध्यानके समय ऐसा ही स्थान उचित है । १७॥ (दे० वसतिका/३ व ४) रा. वा/६/४४/१/६३४/१८ व्यालमृगपशुपक्षिमनुष्याणामगोचरे तत्रत्यैरागन्तुभिश्च जन्तुभिः परिवजिते नात्युष्णे नातिशीते नातिवाते वर्षातापवर्जिते समन्तात बाह्यान्त करणविक्षेपकारणविरहिते भूमितले । - व्याघ, सिह, मृग, पशु, पक्षी, मनुष्य आदिके अगोचर, निर्जन्तु, न अति उष्ण और न अति शीत, न अधिक वायुवाला, वर्षा-आतप आदिसे रहित, तात्पर्य यह कि सब तरफसे बाह्य और आभ्यन्तर बाधाओसे शुन्य ऐसे भूमितलपर स्थित होकर ध्यान करे। (म.पु./ २१/५८-५६,७७); (चा.सा./१५१/४); (ज्ञा /२७/३३), (त अनु./१०-११); (अन.ध./८/८१) ३. पापी जनोंसे संसक्त स्थानका निषेध ज्ञा./२७/२३-३० म्लेच्छाधमजन र्जुष्ट' दुष्टभूपालपालितम् । पाषण्डिमण्डलाकान्तं महामिथ्यात्ववासितम ।२३। कौलिकापालिकावासं रुदक्षुद्रादिमन्दिरम् । उद्भ्रान्तभूतवेतालं चण्डिकाभवनाजिरम् ।२४। पण्यस्त्रोकृतसंकेत मन्दचारित्रमन्दिरम् । क्रूरकर्माभिचाराट्य' कु. शास्त्राभ्यासवञ्चितम् ।२५। क्षेत्रजातिकुलोत्पन्नशक्तिस्वीकारदर्पितम् । मिलितानेकदुःशीलकल्पिताचिन्त्यसाहसम् ।२६। द्यूतकारसुरापानविटवन्दिवजान्वितम् । पापिसत्त्वसमाक्रान्तं नास्तिकासारसेवितमा२७॥ क्रव्याद कामुकाकोणं व्याधविध्वस्तश्वापदम् । शिल्पिकारुकविक्षिप्लमग्निजीवजनाश्चितम् ।२८) प्रतिपक्षशिर शुले प्रत्यनीकावलम्बितम् । आत्रेयीखण्डितव्यङ्गसंसृतं च परित्यजेत् ।२६। विद्रवन्ति जनाः पापाः सचरन्त्य भिसारिका' । क्षोभयन्तोगिताकार यत्र नार्योपशङ्किता' ।३०। ध्यान करनेवाले मुनि ऐसे स्थानों को छोड़े-म्लेच्छ व अधम जनोंसे सेवित, दुष्ट राजासे रक्षित, पाखण्डियोंसे आक्रान्त, महामिथ्यात्वसे वासित ।२३। कुलदेवता या कापालिक (रुद्र) आदि का वास व मन्दिर जहाँ कि भूत वेताल आदि नाचते हो अथवा
चण्डिकादेवीके भवनका आँगन ।२४। व्यभिचारिणी स्त्रियों के द्वारा संकेतित स्थान, कुचारित्रियों का स्थान, क्रूरकर्म करने वालोसे सचारित, कुशास्त्रोका अभ्यास या पाठ आदि जहाँ होता हो ।२५। जमींदारी अथवा जाति व कुलके गर्व से गर्वित पुरुष जिस स्थानमें प्रवेश करनेसे मना करे, जिसमे अनेक दुशील व्यक्तियोने कोई साहसिक कार्य किया हो ।२६। जुआरी, मद्यपायी, व्यभिचारी, बन्दीजन आदिके समूहसे युक्त स्थान पापी जीवों से आक्रान्त, नास्तिकों द्वारा सेवित ।२७। राक्षसों व कामी पुरुषों से व्याप्त, शिकारियोंने जहाँ जीव वध किया हो, शिल्पी, मोचो आदिकोंसे छोडा गया स्थान, अग्निजीवी (लुहार, ठठेरे आदि ) से युक्त स्थान ।२८। शत्रुको सेनाका पडाव, रजस्वला, भ्रष्टाचार', नपंसक व अंगहीनोंका आवास ।२६। जहाँ पापी जन उपद्रव करे, अभिसारिकाएं जहाँ विचरती हों, स्त्रियाँ नि.शंकित होकर जहाँ कटाक्ष आदि करती हो ।३०। (वसतिका/३) ४. समर्थजनोंके लिए क्षेत्रका कोई नियम नहीं ध.१३/५,४/२६/१८/६७ थिरकयजोगाणं पुण मुणोण माणेसु णिच्चलमणाणं। गामम्मि जणाइण्णे सुण्णे रणे य ण विसेसो।।८। = परन्तु जिन्होंने अपने योगोंको स्थिर कर लिया है और जिनका मन ध्यानमें निश्चल है, ऐसे मुनियों के लिए मनुष्योसे व्याप्त ग्राममे और अन्य जंगल में कोई अन्तर नहीं है। (म पु /२१/८०), (ज्ञा /२८/२२) ५. क्षेत्र सम्बन्धी नियमका कारण व प्रयोजन म.पु./२९/७८-७६ बसतोऽस्य जनाकीर्णे विषयानभिपश्यत । बाहुल्यादिन्द्रियार्थानां जातु व्यग्रीभवेन्मन: ७८१ ततो विविक्तशायित्वं बने वासश्च योगिनाम् । इति साधारणो मार्गो जिनस्थविरकल्पयो ।।
जो मुनि मनुष्योसे भरे हुए शहर आदिमे निवास करते हैं और निरन्तर विषयोको देखा करते है, ऐसे मुनियों का चित्त इन्द्रियोके विषयोकी अधिकता होनेसे कदाचित व्याकुल हो सकता है ।७८॥ इसलिए मुनियों को एकान्त स्थानमे ही शयन करना चाहिए और वनमे ही रहना चाहिए यह जिनकल्पी और स्थविरकल्पी दोनों प्रकारके मुनियोंका साधारण मार्ग है ।७१। (ज्ञा./२७/२२)
५. योगदिशा ज्ञा./२०/२३-२४ पूर्व दिशाभिमुग्नः साक्षादुत्तराभिमुखोऽपि वा। प्रसन्नवदनो ध्याता ध्यानकाले प्रशस्यते ।२३। -ध्यानी मुनि जो ध्यानके समय प्रसन्न मुख साक्षात पूर्व दिशामे मुख करके अथवा उत्तर दिशामें मुख करके ध्यान करे सो प्रशसनीय कहते है ।२१। (परन्तु समर्थ
जनोके लिए दिशाका कोई नियम नहीं।२४।। नोट--(दोनों दिशाओंके नियमका कारण-दे० दिशा)
६. योग्य माव आत्माधीनता ध.१३/१,४,२८/८८/१० किरियाकम्मे की रिमाणे अपायत्तं अपरवसत्तं
आदाहीणं णाम। पराहीणभावेण किरियाकम्म किण्ण कोरदे। ण, तहा किरियाकम्म कुणमाणस्स कम्मरवयाभावादो जिणिदादि अच्चासणदुवारेण कम्मबंधसंभवादो च। -क्रियाकर्म करते समय आत्माधीन होना अर्थात् परवश न होना आत्माधीनता है। प्रश्न-- पराधीन भावसे क्रियाकर्म क्यो नहीं किया जाता • उत्तर-नहीं, क्योंकि उस प्रकार क्रियाकर्म करनेवालेके कर्मों का क्षय नहीं होगा और जिनेन्द्रदेवकी आसादना होनेसे कर्माका बन्ध होगा। अन.ध./८/६६ कालुष्यं येन जात तं क्षमयित्वैव सर्वत.। सगाच चिन्ता व्यावर्य क्रिया कार्या फलार्थिना ।६६ -मोक्षके इच्छुक साधुओंको सम्पूर्ण परिग्रहो की तरफसे चिन्ताको हटाकर और जिसके साथ किसी तरहका कभी कोई कालुष्य उत्पन्न हो गया हो, उसके क्षमा कराकर ही आवश्यक क्रिया करनी चाहिए।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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