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IV द्रव्याथिक व पर्यायाधिक
क. पा. १/१३-१४/३२७६/३१६/५ सहणयस्स कोहोदओ कोहकसाओ, तस्स विसए दव्वाभावादो। ५. शब्दनयकी अपेक्षा क्रोधका उदय ही क्रोध कषाय है; क्यो कि, इस नयके विषयमें द्रव्य नहीं पाया जाता। ६. पलाल दाह सम्भव नहीं रा. वा./१/३३/७/६७/२६ अतः पलालादिदाहाभावः प्रतिविशिष्टकालपरिग्रहात् । अस्य हि नयस्याविभागो वर्तमानसमयो विषयः । अग्निसंबन्धनदीपनज्वलनदहनानि असंख्येयसमयान्तरालानि यतोऽस्य दहनाभावः। किच यस्मिन्समये दाहन तस्मिन्पलालम्. भस्मताभिनिवृत्तेः यस्मिश्च पलालं न तस्मिन् दाह इति । एवं क्रियमाणकृत-भुज्यमानभुक्त-बध्यमानबद्ध-सिध्यत्सिद्धादयो योज्याः । -इस अजुसूत्र नयकी दृष्टि में पलालका दाह नहीं हो सकताक्योंकि इस नयका विषय अविभागी वर्तमान समयमात्र है। अग्नि मुलगाना धौकना और जलाना आदि असंख्य समयकी क्रियाएँ वर्तमान क्षगमें नहीं हो सकतीं। तथा जिस समय दाह है, उस समय पलाल नहीं है, और जिस समय पलाल है उस समय दाह नहीं है, फिर पलाल दाह कैसा । इसी प्रकार क्रियमाण-कृत, भुज्यमान-भुक्त, मध्यमान-बद्ध, सिद्धचत-सिद्ध आदि विषयों में लागू करना चाहिए। (ध.१४,१, ४६/१७१८) ७. पच्यमान ही पक्व है रा.वा./१/३३/७/१७/३ पच्यमानः पक्वः । पक्वस्तु स्यात्पच्यमानः स्यादु
परतपाक इति । असदेतवः विरोधाव । 'पच्यमानः' इति वर्तमानः 'पक्वः' इत्यतीतः तयोरेकस्मिन्नवरोधो विरोधोति; नैष दोषः; पचनस्यादावविभागसमये कश्चिदंशो निवृसो बा, न वा। यदि न निवृत्तः: तद्वितीयादिष्वष्यनिवृत्तः पाकाभावः स्यात् । ततोsभिनिवृत्तः तदपेक्षया 'पच्यमानः पक्व" इतरथा हि समयस्य त्रैविध्यप्रसङ्गः। स एवौदनः पच्यमानः पक्व., स्यात्पच्यमान इत्युच्यते, पक्तुरभिप्रायस्यानिवृत्तेः, पक्तुहि सुविशदमुस्विन्नौदने पक्वाभिप्रायः, स्यादुपरतपाक इति चोच्यते कस्यचित् पक्तुस्तायतैव कृतार्थत्वात् । = इस ऋजुसूत्र नयका विषय पच्यमान पक्व है और 'कथं चिव पकनेवाला' और 'कथंचिव पका हुआ' हुआ।प्रश्न-पत्यमान (पक रहा ) वर्तमानकालको, और पक्व (पक चुका) भूतकालको सूचित करता है, अत' दोनोंका एकमें रहना विरुद्ध है ? उत्तरयह कोई दोष नहीं है। पाचन क्रियाके प्रारम्भ होनेके प्रथम समयमें कुछ अंश पका या नहीं। यदि नहीं तो द्वितीयादि समयोंमें भी इसी प्रकार न पका । इस प्रकार पाकके अभावका प्रसंग आता है। यदि कुछ बंश पक गया है तो उस अंशकी अपेक्षा तो वह पच्यमान भी ओदन पक्व क्यों न कहलायेगा। अन्यथा समयके तीन खण्ड होनेका प्रसंग प्राप्त होगा। (और पुनः उस समय खण्डमें भी उपरोक्त हो शंका समाधान होनेसे अनवस्था आयेगी) वही पका हुआ ओदन कथं चित् 'पच्यमान' ऐसा कहा जाता है; क्योंकि, विशदरूपसे पूर्णतया पके हुए
ओदनमें पाचकका पक्षसे अभिप्राय है। कुछ अंशोंमें पचनक्रियाके फलकी उत्पत्तिके विराम होनकी अपेक्षा वही ओदन 'उपरत पाक' अर्थात् कथं चित् पका हुआ कहा जाता है। इसी प्रकार क्रियमाण-कृत; भुज्यमान-भुक्त; बध्यमान-बद्ध और सिद्धयत-सिद्ध इत्यादि ऋजुसूत्र नयके विषय जानने चाहिए। (ध.१/४,१,४५/१७२/३), (क. पा.श १३-१४/३१८५/२२३/३)
७. मावकी अपेक्षा विषयकी एकत्वता रा. वा./१/३३/१/६/७ स एव एकः कार्यकारणव्यपदेशभागिति पर्यायाथिकः । -वह पर्यायही अकेली कार्य व कारण दोनों नामोंको प्राप्त होती हैं, ऐसा पर्यायार्थिक नय है। क. पा. १/१३-१४/१०/गा. ६०/२२७ जातिरेव हि भावानां निरोधे
हेतुरिष्यते । - जन्म ही पदार्थ के विनाशमें हेतु है। ध.६/४,१,४३/१७६/२ यः पलालो न स दह्यते, तत्राग्निसंमन्धजनितातिशयान्तराभावात, भावो वा न स पलालप्राप्तोऽन्यस्वरूपत्वात् । -अग्नि जनित अतिशयान्तरका अभाव होनेसे पलाल नहीं जलता। उस का स्वरूप न होनेसे वह अतिशयान्तर पलालको प्राप्त नहीं है। क. पा./९/११-१४/१२७८/३१५/१ उजुसदेसु बहुअग्गहो णस्थि त्ति एय
सत्तिसहियएयमणभुवगमादो 1-एक क्षणमें एक शक्तिसे युक्त एक ही मन पाया जाता है, इसलिए ऋजुसूत्रनयमें बहुअवग्रह नहीं होता। स्था.म/२८/३१३/१ तदपि च निरंशमभ्युपगन्तव्यम् । अंशव्याप्तेर्यक्तिरिक्तत्वात । एकस्य अनेकस्वभावतामन्तरेण अनेकस्यावयवव्यापनायोगात् । अनेकस्वभावता एवास्तु इति चेत् । न, विरोधव्यात्रातत्वात् । तथाहि-यदि एकस्वभावः कथमनेकः अनेकश्चेरकथमेकः । अनेकानेकयोः परस्परपरिहारेणावस्थानात । तस्मात् स्वरूपनिमग्नाः परमाणव एव परस्परापसर्णद्वारेण न स्थूलता धारयत पारमार्थिकमिति। वस्तुका स्वरूप निर श मानना चाहिए, क्योंकि वस्तुको अंश सहित मानना युक्तिसे सिद्ध नहीं होता। प्रश्नएक वस्तुके अनेकस्वभाव माने बिना वह अनेक अवयवों में नहीं रह सकती, इसलिए वस्तुमें अनेकस्वभाव मानना चाहिए। उत्तरयह ठीक नहीं है; क्योंकि, ऐसा माननेमें विरोध आता है। कारण कि एक और अनेकमें परस्पर विरोध होनेसे एक स्वभाववाली वस्तुमें अनेक स्वभाब और अनेक स्वभाववाली वस्तुमें एकस्वभाव नहीं बन सकते। अतएव अपने स्वरूप में स्थित परमाणु ही परस्परके संयोगसे कथं चित समूह रूप होकर सम्पूर्ण कार्यों में प्रवृत्त होते हैं। इसलिए अजु-सूत्र नयको अपेक्षा स्थूल रूपको न धारण करनेवाले स्वरूपमें स्थित परमाणु ही यथार्थ में सब कहे जा सकते हैं। ८. किसी भी प्रकारका सम्बन्ध सम्भव नहीं
१. विशेष्य विशेषण भाव सम्भव नहीं क.पा.१/१३-१४/६१६३/२२६/६ नास्य विशेषणविशेष्यभावोऽपि । तद्यथा-न तावद्भिन्नयो, अव्यवस्थापत्तेः । नाभिन्नयोः एकस्मिस्तद्विरोधात् । - इस (ऋजुसुत्र) नयकी दृष्टिसे विशेष्य विशेषण भाव भी नहीं बनता। वह ऐसे कि-दो भिन्न पदार्थोंमें तो वह बन नहीं सकता; क्योंकि, ऐसा माननेसे अव्यवस्थाकी आपत्ति आती है। और अभिन्न दो पदार्थों में अर्थात् गुण गुणीमें भी यह बन नहीं सकता क्योकि जो एक है उसमें इस प्रकारका द्वैत करनेसे विरोध आता है । (क. पा.१/१३-१४/६२००/२४०/६), (ध. ६/४,१,४५/१७४/७, तथा पृ.१७६/६)।
२. संयोग व समवाय सम्बन्ध सम्भव नहीं क.पा./२/१३-१४/७१६३/२२६/७ न भिन्नाभिन्नयोरस्य नयस्य संयोगः समवायो वास्ति; सर्वथै कत्वमापन्नयोः परित्यक्तस्वरूपयोस्तद्विरोधाद । नैकत्वमापन्नयोस्तौ; अव्यवस्थापत्तेः । ततः सजातीयविजातीयविनिर्मुक्ताः केवला' परमाणव एव सन्तीति भ्रान्तः स्तम्भादिस्कन्धप्रत्ययः। -इस (ऋजुसूत्र ) नयकी दृष्टिसे सर्वथा अभिन्न दो पदार्थों में संयोग व समवाय सम्बन्ध नहीं बन सकता; क्योंकि, जो सर्वथा एकत्वको प्राप्त हो गये हैं और जिन्होंने अपने स्वरूपको छोड दिया है ऐसे दो पदार्थों में संबंध माननेमें विरोध आता है। इसी प्रकार सर्वथा भिन्न दो पदार्थों में भी संयोग या समवाय सम्बन्ध मानने में भी विरोध आता है, तथा अव्यवस्थाको आपत्ति भी आती है अर्थात किसीका भी किसीके साथ सम्बन्ध हो जायेगा । इसलिए सजातीय और विजातीय दोनों प्रकारकी उपाधियोंसे रहित शुद्ध परमाणु ही सत् है। अतः जो स्तम्भादिरूप स्कन्धोंका प्रत्यय होता है, वह अजुसूत्रनयकी दृष्टिमें भ्रान्त है। (और भी दे० पोछे शीर्षक नं०४/२), (स्या.म./२८/३१३/५) ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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