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कृष्टि
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इसके अन्तिम समयमें केवल अन्तर्मुहूर्त अधिक चार वर्ष प्रमाण रह गया। और अवशेष कर्मोकी स्थिति संख्यात हजार वर्ष मात्र है । मोहनीयका स्थिति सत्त्व पहिले संख्यात हजार वर्ष मात्र था जो अब घट र अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष मात्र रहा। शेष तीन घातियाका संख्यात हजार वर्ष और अधातियाका असंख्यात हजार वर्ष मात्र रहा ।
१२. संक्रमण
क्ष. सा. / ५१२ / भाषा - नवक समय प्रबद्ध तथा उच्छिष्टावली मात्र निषेकको छोड़कर अन्य सर्व निषेक कृष्टिकरण कालके अन्त समय विषै ही कृष्टि रूप परिणमै हैं ।
क्ष. सा० / ५१२ / भाषा -- अन्त समय पर्यन्त कृष्टियोके दृश्यमान द्रव्यकी हानि क्रम युक्त एक गोपुच्छा और स्पर्धकनिकी भिज्ञचय हानि कम युक्त दूसरी गोखा है परन्तु कृष्टिकाली समाप्तता के अनन्तर सर्व ही द्रव्य कृष्टि रूप परिणमै एक गोपुच्छा हो है ।
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१३. घातकृष्टि
क्ष. सा / ५२३ / भाषा -- जिन कृष्टिनिका नाश किया तिनका नाम घात कृष्टि है ।
१४. कृष्टि वेदनका लक्षण व काल क्ष.सा./११०-१११/भाषा-कृष्टिकरण काल पर्यन्त क्षपक, पूर्व, अपूर्व स्पर्धकनिके ही उदयको भोगता है परन्तु इन नवीन यंत्र की हुई कृष्टिनिको नहीं भोगता अर्थात् कृष्टिकरण काल पर्यन्त कृष्टियों का उदय नहीं आता । कृष्टिकरण कालके समाप्त हो जानेके अनन्तर कृष्टि वेदन काल आता है, तिस छाल निषै तिष्ठति कृष्टिनिको प्रथम स्थिति निषेकम प्राप्त कर भोग है तिस भोगवे ही का नाम कृष्टि वेदन है । इसका काल भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है । क्ष.सा./११३ / भाषा-कुष्टिकरणकी अपेक्षा वेदनमें उल्टा कम है वहाँ पहले लोभकी और फिर माया, मान व क्रोधकी कृष्टि की गयी थी । परन्तु यहाँ पहले क्रोधकी, फिर मानकी, फिर मायाकी, और फिर लोभकी कृष्टिका वेदन होनेका क्रम है। (ल. सा / ५१३) कृष्टिकरण मे तीन संग्रह कृष्टियों यहाँ जो अन्तिम कृष्टि थी वह यहाँ प्रथम कृष्टि है और वहाँ जो प्रथम कृष्टि थी वह यहाँ अन्तिम कृष्टि है, क्योंकि पहले अधिक अनुभाग बुक कृष्टिका उदय होता है पीछे हीन हीन का ।
१५. क्रोधकी प्रथम कृष्टि वेदन
४.सा./११४-३१५/भाषा अब तक अश्मक रूप अनुभागका काण्डक घात करता था. अब समय प्रतिसमय अनन्तगुणा घटता अनुभाग होकर अपवर्तना करें है। नवीन कृष्टियोका जो बन्ध होता है वह मी पहिले अनन्तगुणा बात अनुभाग युक्त होता है।
क्ष. सा / ५१५ / भाषा - क्रोधकी कृष्टिके उदय काल में मानादिकी कृष्टिका उदय नहीं होय है । क्ष.सा./५१८/भाषा--प्रतिसमय बन्द व उदय विषै अनुभागका पटना हो
है।
सा/२२-२२६/भाषा-अन्य कृष्टियों संक्रमण करके कृष्टियोंका अनुसमयापवर्तना घात करता है । क्ष.सा./५२७-५२८/भाषा कृष्टिकरणवत् मध्यखण्डादिक द्रव्य देनेकरि पुन सर्व कृष्टियोंको एक गोपुच्छाकार करता है ।
क्ष. सा. / ५२६-५३५ / भाषा-संक्रमण द्रव्य तथा नवीन बन्धे द्रव्यमें यहाँ श्री कुष्टिकरण नवीन संग्रह व अन्तरकृष्टि अथवा पूर्व व अपूर्व कृष्टियोंकी रचना करता है। तहाँ इन नवीन कृष्टियोमें कुछ तो
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कृष्टि
पहली दृष्टियोंके नीचे बनती है और कुछ पहले वाली पंक्तियों के अन्तरासों में बनती है। क्ष.सा./५३६-३१८/भाषा- पूर्व अपूर्व कृष्टि का अपकर्षण द्वारा
घात करता है ।
क्ष. सा. / ५३१-५४० भाषा - क्रोध कृष्टिवेदन के पहले समय में ही स्थितिबन्धापसरण व स्थितिसत्त्वासरण द्वारा पूर्वके स्थितिबन्ध व स्थितिसत्यको घटाता है। तहाँ संचलन चतुष्कका स्थितिबन्ध ४ वर्ष घटकर ३ मास १० दिन रहता है। शेष घातीका स्थितिबन्ध संख्यात हजार वर्ष घटकर अन्त ते घात दशवर्षमात्र रहता है और अघाती कर्मोका स्थितिबन्ध पहिलेसे संख्यातगुणा घटता संख्यात हजार वर्ष प्रमाण रहा। स्थितिसत्त्व भी घातिया का संख्यात हजार और अघातियाका असंख्यात हजार वर्ष मात्र रहा।
सा/२४१-५४३/भाषा-क्रोधकृष्टि वेदनके द्वितीयादि समय में भी पूर्व कृष्टिपात व नवीन कृष्टिकरण तथा स्थितिनन्दापसरण आदि जानने।
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इ.सा./२४०-२४४/ भाषाकोधकी द्वितीयादि कृष्टियोंके वेदनाका भी विधान पूर्ववत् ही जानना ।
१६. मान, माया व लोभका कृष्टिवेदन
.सा./५२५-३६२/भाषा मान व मायाकी ६ कृष्टियोंका बेदन भ क्रोधवत् जानना ।
क्ष. सा. / ५६३-५६४ / भाषा -- क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टिके वेदन कालमें उसकी द्वितीय व तृतीय संग्रहकृष्टिसे द्रव्यका अपकर्ष र सोभकी सूक्ष्म कृष्टि करे है।
इस समय केवल संज्वलन लोभका स्थितिबंध हो है । उसका स्थितिबन्ध व स्थितिसत्त्व यहाँ आकर केवल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण शेष रह जाता है। तीन घातियानिका स्थितिबन्ध पृथक्त्व दिन और स्थिति सत्व संख्यात हजार वर्ष मात्र रहता है। अघातिया प्रकृतियोका स्थितिबन्ध पृथक्व वर्ष और स्थितित्व यथायोग्य असंख्यात वर्ष मात्र है। क्ष.सा./५०१-४८९ / भाषा-लोभकी द्वितीय संग्रह कृष्टिकी प्रथम स्थिति विषै समय अधिक आवली अवशेष रहे अनिवृत्तिकरणका अन्त समय हो है। तहाँ लोभका जघन्य स्थिति बन्ध व सत्त्व अन्तर्मुहूर्त मात्र है। यहाँ मोह बन्धकी व्युच्छित्ति भई तीन घातियाका स्थितिबन्ध एक दिनसे कुछ कम रहा। और सत्व यथायोग्य संख्यात हजार वर्ष रहा। तीन अघातियाका ( आयुके बिना ) स्थिति सत्त्व थायोग्य असंख्यात वर्ष मात्र रहा।
क्षसा / २८२ / भाषा अनिवृत्तिकरणका अन्त समय के अनन्तर सूक्ष्म कुहि को वेदता हुआ सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थानको प्राप्त होता है।
१७. सूक्ष्म कृष्टि
क्ष सा. / ४१० की उत्थानिका ( लक्षण ) - सज्वलन कषायानके स्पर्धकोंकी जो बादर कृष्टियें; उनमे से प्रत्येक कृष्टि रूप स्थूलखंडका अनन्त गुणा घटता अनुभाग करि सूक्ष्म सूक्ष्म खण्ड करिये जो सूक्ष्म कृष्टिकरण है । स.सा./२६२-२६६ भाषा अनिवृत्तिकरण के सोमकी प्रथम संग्रह कृष्टिके वेदन कालमें उसकी द्वितीय व तृतीय संग्रहकृष्टिसे द्रव्यको अपकर्षण करि लोभको नवीन सूक्ष्मकृष्टि करे है. जिसका अवस्थान सोमकी तृतीय बादर संग्रह कृष्टिके नीचे है। सो इसका अनुभाग उस बादर कृष्टि से अनन्तगुणा घटता है । और जघन्यसे उत्कृष्ट पर्यन्त अनन्तगुणा अनुभाग लिये है ।
अ. खा / ६६६-३०१ /भाषा उहाँ ही द्वितीयादि समयभिये अपूर्व सूक्ष्म कृष्टियों की रचना करता है। प्रति समय सूक्ष्मकृष्टिको दिया गया द्रव्य
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