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धर्म
२. धर्ममें सम्यग्दर्शनका स्थान
है। जो धर्म है सो साम्य है और साम्य मोहक्षोभ रहित ( रागद्वेष तथा मन, वचन, कायके योगों रहित) आत्माके परिणाम हैं। (मो.पा./मू./५०) भा.पा./मू./८३ मोहरखोहविहीणो परिणामो अपणो धम्मो। -मोह व क्षोभ रहित अर्थात रागद्वेष व योगों रहित आत्माके परिणाम धर्म है। (स. म./३२/३४२/२२ पर उद्धृत), (प.प्र./मू./२/६८). (त.अनु./१२) न.च.वृ./३५६ समदा तह मज्झत्थं सुद्धोभावो य वीयरायत्तं । तह
चारिस धम्मो सहावाराहणा भणिया। समता, माध्यस्थता, शुद्धभाव, वीतरागता, चारित्र, धर्म, स्वभावकी आराधना ये सम एकार्थवाची शब्द हैं। पं.ध./उ./७५५ अर्थाद्वागादयो हिसा चास्त्यधर्मो वतच्युतिः । अहिंसा । तस्परित्यागो व्रतं धर्मोऽथवा किल । -वस्तुस्वरूपकी अपेक्षा रागादि ही हिंसा, अधर्म व अवत है। और उनका त्याग ही अहिंसा, धर्म व व्रत है।
२. शुद्धात्म परिणति भा.पा./मू./८५ अप्पा अप्पम्मि रओ रायादिसु सहलदोसपरिचत्तो। संसारतरणहेदू धम्मो त्ति जिणेहि णिहिट्ठो। -रागादि समस्तदोषोंसे रहित होकर आत्माका आत्मामें ही रत होना धर्म है। प्र.सा./त.प्र./६१ निरुपरागतत्त्वोपलम्भलक्षणो धर्मोपलम्भो। -निरुप
रागतत्त्वकी उपलब्धि लक्षणवाला धर्म...। प्र.सा./त.प्र./७८ बस्तुस्वभावत्वाद्धर्मः । शुद्धचैतन्यप्रकाशनमित्यर्थः १७...ततोऽयमात्मा धर्मेण परिणतो धर्म एव भवति । -वस्तुका स्वभाव धर्म है। शुद्ध चैतन्यका प्रकाश करना यह इसका अर्थ है।
इसलिए धर्मसे परिणत आत्मा ही धर्म है। पं. का./ता. वृ./८५/१४३/११ रागादिदोषरहितः शुखात्मानुभूतिसहितो निश्चयधर्मों। -रागादि दोषोंसे रहित तथा शुद्धारमाकी अनुभूति सहित निश्चयधर्म होता है। (पं.वि./१/७), (पं.प्र./टो./२/१३४/२५१/ १), (पं.ध./उ./४३२)
६. धर्मके भेद बा.अ./७० उत्तमखममद्दवज्जवसच्चसउच्चं च संजमं चेव। तबतागमकिंचण्हं बम्हा इति दसविहं होदि ७01 - उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य ये दशभेद मुनिधर्मके हैं। (त.सू./४/६), (भ.आ./वि./४६/१५४/१०
पर उधृत) म.आ./५५७ तिबिहो य होदि धम्मो सुदधम्मो अस्थिकायधम्मो य। तदिओ चरित्तधम्मौ सुदधम्मो एत्य पुण तित्थं । -धर्मके तीन भेद है-श्रतधर्म, अस्तिकायधर्म, चारित्रधर्म। इन तीनों मेंसे श्रुतधर्म तीर्थ कहा जाता है। पं.वि./६/४ संपूर्ण देशभेदाभ्यां स च धर्मो द्विधा भवेत्। -सम्पूर्ण
और एक देशके भेदसे वह धर्म दो प्रकार है। अर्थात् मुनि व गृहस्थ धर्म या अनगार व सागार धर्मके भेदसे दो प्रकारका है। (वा.ब./44) (का.अ./म./३०४), (चा.सा./३/१), (पं.ध./उ./७१७) पं.वि./१/७ धर्मो जीवदया गृहस्थशमिनोर्मेदाइ विधा च त्रयं । रत्नाना परमं तथा दशविधोत्कृष्टक्षमादिस्ततः ।...।-दयास्वरूप धर्म, गृहस्थ
और मुनिके भेदसे दो प्रकारका है। वही धर्म सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यग्चारित्ररूप उत्कृष्ट रत्नत्रयके भेदसे तीन प्रकारका है, तथा उत्तम क्षमादिके भेदसे दश प्रकारका है। (द्र.सं./टी./३५/ १४५/३)
२. धर्ममें सम्यग्दर्शनका स्थान
१. सम्यग्दर्शन ही धर्मका मूल है द.पा /मू./२ दंसणमूलो धम्मो उबइठो जिणवरेहि सिस्साणं । सर्वज्ञ
देवने अपने शिष्यों को 'दर्शन' धर्मका मूल है ऐसा उपदेश दिया है। (पं.ध./उ./७१६)
२. धर्म सम्यक्त्व पूर्वक ही होता है बा. अ./६८ एयारसदसभेयं धम्म सम्मत्तपुष्वयं भणियं । सागारणगारामं उत्तमसुहसंपजुत्तेहि।६८ - श्रावकों व मुनियोंका जो धर्म है वह सम्यक्त्व पूर्वक होता है । (पं.ध./उ./७१७ ) ।
३. सम्यक्त्वयुक्त धर्म ही मोक्षका कारण है रहित नहीं बा. अणु./५७ जण्णाणवसं किरिया मोक्खणिमित्तं परंपरया। जो क्रिया ज्ञानपूर्वक होती है वही परम्परा मोक्षका कारण होती है। र. सा./१० दाणं पूजा सील उपवासं बहुविहपि खिवणं पि । सम्मजुदं मोक्खसुहं सम्मविणा दीहसंसार १०॥ दान, पूजा, ब्रह्मचर्य, उपवास, अनेक प्रकारके व्रत और मुनिलिंग धारण आदि सर्व एक सम्यग्दर्शन होनेपर मोक्षमार्गके कारणभूत है और सम्यग्दर्शनके बिना
संसारको बढानेवाले हैं। यो. सा./यो /१८ गिहि-बावार परिट्ठिया हेयाहेउ मुणं ति। अणुदिणुझायहि देउ जिणु लहु णिव्वाणु लहति ।-जो गृहस्थीके धन्धेमें रहते हुए भी हेयाहेयको समझते हैं और जिनभगवान्का निरन्तर ध्यान करते हैं, वे शीघ्र ही निर्वाणको पाते हैं। भावसंग्रह/४०४,६१० सम्यग्दृष्टेः पुण्यं न भवति संसारकारण नियमात् । मोक्षस्य भवति हेतुः यदि च निदान स न करोति ४०४॥ आवश्यकानि कर्म वैयावृत्त्यं च दानपूजादि । यत्करोति सम्यग्दृष्टिस्तत्सर्व निर्जरानिमित्तम् ।६१० - सम्यग्दृष्टिका पुण्य नियमसे संसारका कारण नहीं होता है । और यदि व निदान न करे तो मोक्षका कारण होता है ।४०४। षडावश्यक क्रिया, वैयावृत्त्य, दान, पूजा आदि जो कुछ भी धार्मिक क्रिया सम्यग्दृष्टि करता है वह सम उसके लिए निर्जराके निमित्त हैं।६१०। स सा./ता, वृ./१४५ की उत्थानिका/२०८/११ वीतरागसम्यक्त्वं विना वतदानादिकं पुण्यअन्धकारणमेव न च मुक्तिकारणं । सम्यक्त्वसहित पुनः परंपरया मुक्तिकारणं च भवति। - वीतरागसम्यक्त्वके बिना व्रत दानादिक पुण्यबन्धके कारण हैं. मुक्तिके नहीं। परन्तु सम्यक्त्व सहित वे ही पुण्य बन्धके साथ-साथ परम्परासे मोक्षके कारण भी है। (प्र. सा./ता. वृ./२५५/३४८/२०) (नि. सा./ता. वृ./१८/क, ३२) (प्र.सा./ता. वृ./२५५/३४७/२)। (प.प्र./टी./६/६३/४) (प.प्र./ टो./१६१/२१७/१)। ४. सम्यक्त्वरहित क्रियाएँ वास्तविक व धर्मरूप नहीं हैं यो. सा./यो./४७-४८ धम्मु ण पढियई होइ धम्मु ण पोत्थापिच्छिया। धम्मु ण मढिय-पएसि धम्मु ण मत्था लुचियइँ ४७ राय-रोस वे परिहरिवि जो अप्पाणि बसेइ । सो धम्मु बि जिण उत्तिमउ जो पंचम-गइ णेइ ४८-- पढ लेनेसे धर्म नहीं होता, पुस्तक और पीछीसे भी धर्म महीं होता, किसी मठमें रहनेसे भी धर्म नहीं है, तथा केशलोंच करनेसे भी धर्म नहीं कहा जाता है। जो राग और द्वेष दोनोंको छोड़कर निजात्मामें वास करना है, उसे ही जिनेन्द्रदेवने धर्म कहा है। वह धर्म पंचम गतिको ले जाता है। ध.६/४,१.१/६/३ ण च सम्मत्तेण विरहियाणं णाणझाणाणमसंखेजुगुणसेऽणिकम्मणिज्जराए अणिमित्ताणं णाणज्झाणवधएसो परमत्थियो
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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