________________
धर्म
१. धर्मके भेद व लक्षण
केवल व्यवहारधर्म मोक्षका नहीं बन्धका कारण है। व्यवहार धर्म पुण्यवन्धका कारण है। परन्तु सम्यक् व्यवहारधर्मसे उत्पन्न पुण्य विशिष्ट
प्रकारका होता है। मिथ्यात्व युक्त ही व्यवहारधर्म संसारका कारण है
सम्यक्त्व सहित नहीं।-दे० मिथ्यादृष्टि/४ । | सम्यक् व्यवहारधर्म निर्जराका तथा परम्परा मोक्षका
कारण है। देव पूजा असख्यातगुणो निर्जराका कारण है।
दे० पूजा/२॥ सम्यक् व्यवहार धर्ममें संवरका अंश अवश्य रहता है।
-दे० संवर/२। १०। परन्तु निश्चय सहित ही व्यवहार मोक्षका कारण है
रहित नहीं। ११/ यद्यपि मुख्यरूपसे पुण्यवन्ध ही होता है, पर परम्परासे
मोक्षका कारण पड़ता है। परम्परा मोक्षका कारण कहनेका तात्पर्य ।
| दशधर्म निर्देश
धर्मका लक्षण उत्तम क्षमादि । दशधर्मों के नाम निर्देश। -दे० धर्म/२/६ । दशधर्मोके साथ 'उत्तम' विशेषणकी सार्थकता।
ये दशधर्म साधुओंके लिए कहे गये हैं। | परन्तु यथासम्भव मुनि व श्रावक दोनोंको होते हैं। इन दशोंको धर्म कहने में हेतु। दशों धर्म विशेष। -दे० वह वह नाम। | गुप्ति, समिति व दशधर्मों में अन्तर । -दे० गुप्ति २। धर्मविच्छेद व पुन: उसकी स्थापना
-दे० करकी।
में नित्य संसरण करने रूप भावसंसारसे प्राणि को उठाकर जो
निर्विकार शुद्ध चैतन्यमें धारण करदे, वह धर्म है। द्र.सं./टो./३/१०१/८ निश्चयेन मंसारे पतन्तमात्मानं धरतीति विशुद्ध
ज्ञान दर्शन लक्षण निज शुद्धात्म, भावनात्मको धर्म , व्यवहारेण तत्साधनार्थ देवेन्द्रनरेन्द्रादिवन्धपदे धरतीत्युत्तमक्षमादि.. दशप्रकारो धर्म'। निश्चयसे संसारमें गिरते हए आत्माको जो धारण करे यानी रक्षा करे सो विशुद्धज्ञानदर्शन लक्षणवाला निजशुद्धात्माकी भावनास्वरूप धर्म है। व्यवहारनयसे उसके साधनके लिए इन्द्र चक्रवर्ती आदिका जो बन्दने योग्य पद है उसमे पहुँचानेवाला उत्तम
क्षमा आदि दश प्रकारका धर्म है। पंध./उ./७१५ धर्मो नोचैः पदादुच्चै. पदे धरति धार्मिकम् । तत्राज
वजवो नोचै पदमुच्चस्तदव्यय. ७१५॥ =जो धर्मात्मा पुरुषोको नीचपदसे उच्चपद में धारण करता है वह धर्म कहलाता है। तथा उनमें संसार नीचपद है और मोक्ष उच्चपद है।
२. धर्मका लक्षण अहिंसा व दया आदि बो.पा./म./२५ धम्मो दयाविशुद्धो । =धर्म दया करके विशुद्ध होता है। (नि सा./ता.वृ/६ में उद्धृत); (पं.वि./१/८), (द.पा./टी.
२/२/२०) स.सि./९/७/४१६/२ अयं जिनोपदिष्टो धर्मोऽहिसालक्षण सत्याधिष्ठितो विनयमूल' । क्षमावलो ब्रह्मचर्यगुप्तः उपशमप्रधानो नियतिलक्षणो निष्परिग्रहतावलम्बन । -जिनेन्द्रदेवने जो यह अहिसा लक्षण धर्म कहा है-सत्य उसका आधार है, विनय उसकी जड है, क्षमा उसका बल है, ब्रह्मचर्य से रक्षित है, उपशम उसकी प्रधानता है, नियति उसका लक्षण है, निष्परिग्रहता उसका अवलम्बन है। रा.वा./६/१३/१/५२४/६ अहिंसादिलक्षणो धर्मः। -धर्म अहिसा आदि
लक्षण वाला है। (द्र सं./टी./३/१४५/३) का.अ./मू./४७८ जीवाणं रक्वणं धम्मो। - जीवोको रक्षा करनेको धर्म कहते हैं । (द.पा./टी./४/८/५)
३. धर्मका लक्षण रत्नत्रय र.क.श्रा./३ सदृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः। -गणध्सादि
आचार्य सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यग्चारित्रको धर्म कहते है। (का.अ./मू./४७८); (त.अनु./५१) (द्र सं./टी /१४५/३)
१. व्यवहार धमके लक्षण प्र.सा./ता.व./८/६/१८ पञ्चपरमेष्ठयादिभक्तिपरिणामरूपो व्यवहारधर्मस्तावदुच्यते।पंचपरमेष्ठी आदिकी भक्तिपरिणामरूप व्यवहार धर्म
होता है। प.प्र/टो./२/३/११६/१६ धर्मशब्देनात्र पुण्यं कथ्यते। =धर्मशब्दसे यहाँ
(धर्म पुरुषार्थ के प्रकरणमें) पुण्य कहा गया है। प.प्र /टी./२/१११-४/२३१/१४ गृहस्थानामाहारदानादिकमेव परमो धर्मस्तेनैव सम्यक्त्वपूर्वेण परंपरया मोक्ष लभन्ते । - आहार दान आदिक ही गृहस्थोंका परम धर्म है। सम्यक्त्व पूर्वक किये गये उसी धर्मसे परम्परा मोक्षकी प्राप्ति हो जाती है। प. प्र./टी /२/१३४/२५१/२ व्यवहारधर्मे च पुन' षडावश्यकादिलक्षणे गृहस्थापेक्षया दानपूजादिलक्षणे वा शुभोपयोगस्वरूपे रति कुरु । - साधुओंकी अपेक्षा षडावश्यक लक्षणवाले तथा गृहस्थोंकी अपेक्षा दान पूजादि लक्षणवाले शुभोपयोग स्वरूप व्यवहारधर्म में रति करो। ५. निश्चयधर्मका लक्षण १. साम्यता व मोहक्षोभ विहीन परिणाम प्र.सा./मू./७ चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो त्ति णिहिट्ठो । मोहक्खोह विहीणो परिणामो अप्पणो हि समो। चारित्र ही धर्म
१. धर्मके भेद व लक्षण
१. संसारसे रक्षा करे व स्वभाव में धारण करे सो धर्म र.क.पा./२ देशयामि समीचीनं धर्म कर्मनिवर्हणम्। संसारदुःखतः
सत्त्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे ।२। जो प्राणियोंको संसारके दुरवसे उठाकर उत्तम सुख (वीतराग सुख ) में धारण करे उसे धर्म कहते हैं। वह धर्म कर्मों का विनाशक तथा समीचीन है। (म.पु./२/३७) (ज्ञा./२-१०/१५) स.सि./६/२/४०६/११ इष्टस्थाने धत्ते इति धर्म:। -जो इष्ट स्थान (स्वर्ग मोक्ष) में धारण करता है उसे धर्म कहते हैं। (रा.वा./8/२/
३/५६१/३२) । प.प्र./मू./२/६८ भाउ विसुद्धणु अप्पणउ धम्म भणेविणु लेहु । चउगइ
दुक्रवह जो धरइ जीउ पड़तउ एहू ।। -निजी शुद्धभावका नाम ही धर्म है। वह संसारमे पड़े हुए जीवोंको चतुर्गतिके दुःखोंसे रक्षा करता है । (म पु./४७/३०२); (चा,सा./३/१) । प्र.सा./ता वृ./9/8/8 मिथ्यात्वरागादिसंसरणरूपेण भावसंसारे प्राणिन- मुद्धृत्य निर्विकारशुद्धचैतन्ये धरतीति धर्मः। == मिथ्यात्व व रागादि-
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org