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चारित्र
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६. व्यवहार चारित्रकी कथंचित् प्रधानता
पं.ध./उ./७६० रूढेः शुभोपयोगोऽपि ख्यातश्चारित्रसंज्ञया। स्वार्थ- क्रियामकुर्वाणः सार्थनामा न निश्चयात ७६०। यद्यपि लोकरूढिसे शुभोपयोगको चारित्र नामसे कहा जाता है, परन्तु निश्चयसे वह चारित्र स्वार्थ क्रियाको नहीं करनेसे अर्थात आत्मलीनता अर्थका धारी न होनेसे अन्वर्थनामधारी नहीं है।
२. व्यवहार चारित्र वृथा व अपराभ है न.च.वृ./३४५ आलोयणादि किरिया जं विसकभेति सुद्धचरियस्स। भणियमिह समयसारे तं जाण एएण अत्येण ।- आलोचनादि क्रियाओं को समयसार ग्रन्थमें शुद्धचारित्रवान के लिए विषकुम्भ कहा है, ऐसा तू श्रुतज्ञान द्वारा जान (स.सा./आ./३०६); (नि.सा./ता वृ/३१२); (नि. सा./ता. वृ./१०६/ कलश १५९) और भी दे० चारित्र/४/३। यो, सा./अ//७१ रागद्वंषप्रवृत्तस्य प्रत्याख्यानादिकं वृथा। रागद्वेषाप्रवृत्तस्य प्रत्याख्यानादिकं वृथा ।-राग-द्वेष करके जो युक्त है उनके लिए प्रत्याख्यानादिक करना व्यर्थ है। और राग-द्वेष करके जो रहित है उनको भी प्रत्याख्यानादिक करना व्यर्थ है।
३. व्यवहार चारित्र बन्धका कारण है रा. वा./८/ उत्थानिका/५६१/१३ षष्ठसप्तमयो. विविधफलानुग्रहतन्त्रा. सवप्रकरणवशात् सप्रपञ्चात्मनः कर्मबन्धहेतवो व्याख्याता' विविध प्रकारके फलों को प्रदान करनेवाले आस्रव होनेके कारण, जिनका छटे मातवें अध्यायमे विस्तारसे वर्णन किया गया है वे (वतादि भी)
आत्माको कर्मबन्धके हेतु हैं। क. पा./१/१-१/३/८/७ पुण्णबंधहेउत्त' पडिविसे साभावादो। देशव्रत
और सरागसंयममे पुण्यबन्धके कारणोके प्रति कोई विशेषता नही है। त. सा./४/१०१ हिंसानृतचुराब्रह्मसंगसंन्यासलक्षणम् । वतं पुण्यासवोस्थानं भावेनेति प्रपञ्चितम् ॥१०॥ हिंसा, झूठ, चोरी कुशोल, परिग्रहके त्यागको व्रत कहते हैं, ये व्रत पुण्याखवके कारणरूप भाव समझने चाहिए। प्र. सा /त. प्र/५ जीवत्काषायकणतया पुण्यबन्धसप्राप्तिहेतुभूतं सराग
चारित्रम् । = जिसमें कषायकण विद्यमान होनेसे जीवको जो पुण्य बन्धकी प्राप्तिका कारण है ऐसे सराग चारित्रको-(प्र. सा./त. प्र/६) द्र.सं /टी/८/१५६/२ पुण्यं पापं च भवन्ति खलु स्फुटं जीवा. । कथं
भूता. सन्त, . पञ्चवतरक्षा कोपचतुष्कस्य निग्रहं परमम् । दुर्दान्तेन्द्रियविजयं तप.सिद्धिविधौ कुरूद्योगम् ॥२॥ इत्याद्वियकथितलक्षणेन शुभोपयोगपरिणामेन तद्विलक्षणा शुभोपयोगपरिणामेन च युक्ता. परिणता.। - कैसे होते हुए जोव पुण्य-पापको धारण करते हैं। 'पचमहाबतोका पालन करो, क्रोधादि कषायोका निग्रह करो और प्रबल इन्द्रिय शत्रुओंको विजय करो तथा बाह्य व अभ्यन्तर तपको सिद्ध करने में उद्योग करो इस आर्या छन्दमें कहे अनुसार शुभाशुभ
उपयोग रूप परिणामसे युक्त जीव है वे पुण्य-पापको धारण करते है। प. ध /उ./७६२ विरुद्धकार्यकारित्वं नास्त्यसिद्ध विचारणात् । अन्धस्यै
कान्ततो हेतु शुद्धादन्यत्र संभवात् । नियमसे शुद्ध क्रियाको छोडकर शेष क्रियाएँ बन्धकी ही जनक होती हैं, इस हेतुसे विचार करने पर इस शुभोपयोगको विरुद्ध कार्यकारित्व असिद्ध नही है।
५. व्यवहार चारित्र विरुद्ध व अनिष्टफल प्रदायी है प्र. सा./त. प्र./६,११ अनिष्टफलत्वात्सरागचारित्रं हेयम् ॥६॥ यदा तु
धर्मपरिणतस्वभावोऽपि शुभोपयोगपरिणत्या संगच्छते तदा सप्तत्यनीकशक्तितया स्वकार्यकरणासमर्थः कथंचिद्विरुद्धकार्यकारिचारित्रः शिरिखतप्तघृतोपशक्तिपुरुषो दाहदुःखमिव स्वर्गसुखबन्धमवाप्नोति ॥११॥ = अनिष्ट फलप्रदायी होनेसे सराग चारित्र हेय है ॥६॥ जो वह धर्म परिणत स्वभाव वाला होनेपर भी शुभोपयोग परिणतिके साथ युक्त होता है, तब जो विरोधी शक्ति सहित होनेसे स्वकार्य करने में असमर्थ है, और कथं चिद विरुद्ध कार्य ( अर्थात् बन्धको) करनेवाला है ऐसे चारित्रसे युक्त होनेसे, जैसे अग्निसे गर्म किया धी किसी मनुष्यपर डाल दिया जाये तो वह उसकी जलनसे दुखी होता है, उसी प्रकार वह स्वर्ग सुखके बन्धको प्राप्त होता है। (पं. का./त. प्र./१६४ ); (नि. सा./ता. वृ./१४७)।
६. व्यवहार चारित्र कथंचित् हेय है भा. पा./मू /१० भंजसु इंदियसेणं भंजसु मणमक्कडं पयत्तण । मा जणरंजणकरण बाहिखवयबेस तं कुणम् ॥१०॥ इन्द्रियोंकी सेनाको भजनकर, मनरूपी बन्दरको वशकर, लोकरजक बाह्य वेष मत धारण कर। स श./मू./८३ अपुण्यमवते. पुण्यं वतै मोक्षस्तयोर्व्यय । अवतानीव मोक्षार्थी व्रतान्यपि ततस्त्यजेत् ॥८३॥ हिसादि पॉच अवतोसे पाँच पापका और अहिसादि पाँच व्रतोसे पुण्यका बन्ध होता है। पुण्य और पाप दोनों कर्मोंका विनाश मोक्ष है, इसलिए मोक्षके इच्छुक भव्य पुरुषको चाहिए कि अवतोंकी तरह व्रतोको भी छोड दे।(दे० चारित्र/४/१); (ज्ञा./३२/८७); (द्र. सं./टो/५७/२२६/५) न.च.बृ./३८१ णिच्छयदो खलु मोक्खो बन्धो ववहारचारिणो जम्हा । तम्हा णिव्वुदिकायो बबहारो चयदु तिव्हेिण ॥३८१॥ = निश्चय चारित्रसे मोक्ष होता है और व्यवहार चारित्रसे बन्ध । इसलिए मोक्षके इच्छुकको मन, वचन, कायसे व्यवहार छोड़ना चाहिए। प्र. सा /त. प्र./६ अनिष्टफलत्वात्सरागचारित्रं हेयम् । अनिष्ट फल
वाला होनेसे सराग चारित्र हेय है। नि. सा./ता, वृ/१४७/क. २५५ यद्येवं चरणं निजात्मनियत ससारदुखापह, मुक्तिप्रीललनासमुद्भत्रसुखस्योच्चैरिदं कारणम् । बुद्धत्थं समयस्य सारमनपं जानाति यः सर्वदा, सोऽयं त्यक्तक्रियो मुनिपति. पापाटकोपावक. ॥२५५॥ = जिनात्मनियत चारित्रको, संसारदुख नाशक और मुक्ति श्रीरूपी सुन्दरीसे उत्पन्न अतिशय सुखका कारण जानकर, सदैव समयसारको ही निष्पाप माननेवाला, बाह्य क्रियाको छोडनेवाला मुनिपति पापरूपी अटवौको जलानेवाला होता
है ।२५॥
४. व्यवहार चारित्र निजरा व मोक्षका कारण नहीं पं. ध /3/७६३ नोहय प्रज्ञापराधत्व निर्जराहेतुर शतः । अस्ति नाबन्धहेतुर्वा शुभो नाप्यशुभावहात्। बुद्धिको मन्दतासे यह भो आशका नहीं करनी चाहिए कि शुभोपयोग एक देशसे निर्जराका कारण हो सकता है, कारण कि निश्च यनयसे शुभोपयाग भी संसारका कारण होनेसे निर्जरादिकका हेतु नहीं हो सकता है।
६. व्यवहार चारित्रको कचित् प्रधानता
१. व्यवहार चारित्र निश्चयका साधन है न. च. बृ./३२६ णिच्छय सज्झसरूवं सराय तस्सेव साहणं चरणं । निश्चय चारित्र साध्य स्वरूप है और सराग चारित्र उसका साधन है। (द्र सं./टी./४५-४६ की उत्थानिका १६४, १९७) २. व्यवहार चारित्र निश्चयका या मोक्षका परम्परा
कारण है द्र, स./टी./४५/१६४ को उत्थानिका-वीतरागचारित्र्यस्य पारम्पर्येण साधकं सरागचारित्रं प्रतिपादयति । वीतराग चारित्रका परम्परा साधक सराग चारित्र है। उसका प्रतिपादन करते है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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