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चारित्र
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५. व्यवहार चारित्रकी गौणता
विपक्ष (अर्थात बन्धका) कार्य करते होनेसे विषकुम्भ ही हैं।-जो अप्रतिक्रमणादिरूप तीसरी भूमि है वह स्वयं शुद्धात्माकी सिद्धिरूप होनेके कारण समस्त अपराधरूपी विषके दोषों को सर्वथा नष्ट करनेवाली होनेसे, साक्षात स्वयं अमृत कुम्भ है ।
२. चारित्र वास्तवमें एक ही प्रकारका है प, प्र,/टी /२/६७ उपेक्षासंयमापहृतसंयमौ वीतरागसरागापरनामानौ
तावपि तेषामेन ( शुद्धोपयोगिनामेव) संभवतः । अथवा सामायिकछेदोपस्थापनपरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसांपराययथाख्यातभेदेन पञ्चधा संयमः सोऽपि लभ्यते तेषामेव । "येन कारणेन पूर्वोक्ता सयमादयो गुणाः शुद्धोपयोगे लभ्यन्ते तेन कारणेन स एव प्रधान उपादेयः।" - उपेक्षा संयम या वीतराग चारित्र और अपहृत संयम या सराग चारित्र ये दोनों भी एक उसी शुद्धोपयोगमें प्राप्त होते हैं। अथवा सामायिकादि पाँच प्रकारके संयम भी उसीमें प्राप्त होते हैं। क्योकि उपरोक्त संयमादि समस्त गुण एक शुद्धोपयोगमें प्राप्त होते है, इसलिए
वही प्रधानरूपसे उपादेय है। प्र. सा./ता. वृ./११/१३/१६ धर्मशब्देनाहिसालक्षणः सागारानागाररूपस्त
थोत्तमक्षमादिलक्षणो रत्नत्रयात्मको वा, तथा मोहक्षोभरहित आत्मपरिणामः शुद्धवस्तुस्वभावश्चेति गृह्यते। स एव धर्मः पर्यायान्तरेण चारित्र भण्यते। -धर्म शब्दसे-अहिंसा लक्षणधर्म, सागार-अनागारधर्म, उत्तमक्षमादिलक्षणधर्म, रत्नत्रयात्मकधर्म, तथा मोह क्षोभ रहित आत्माका परिणाम या शुद्ध वस्तु स्वभाव ग्रहण करना चाहिए। वह ही धर्म पर्यायान्तर शब्द द्वारा चारित्र भी कहा जाता है। ३. निश्चय चारित्रसे ही व्यवहार चारित्र सार्थक है,
अन्यथा वह अचारित्र है प्र. सा./म./७६ चत्ता पावारंभो समुट्ठिदो वा सुहम्मि चरियम्हि । ण
जहादि जदि मोहादी ण लहदि सो अप्पगं सुद्ध' ७१ पापारम्भको छोड़कर शुभ चारित्र में उद्यत होनेपर भी यदि जीव मोहादिको नहीं
छोड़ता है तो वह शुद्धारमाको नहीं प्राप्त होता है। नि. सामू /१४४ जो चरदि संजदो खलु सुहभावो सो हवेइ अण्णवसो।
तम्हा तस्स दु कम्म आवासयलक्रवण ण हवे ११४४६ - जो जीव संयत रहता हुआ वास्तवमें शुभभावमें प्रवर्तता है, वह अन्यवश है। इसलिए उसे आवश्यक स्वरूप कर्म नहीं है ।१४४। (नि. सा./ता. वृ /
१४८) स. सा./मू./१५२ परमट्ठम्हि दु अहिदो जो कुणदि तवं वदं च धारेई । तं सव्वं बालतवं बालवदं विति सव्वण्ह ११५२। =परमार्थ में अस्थित जो जीव तप करता है और व्रत धारण करता है. उसके उन सब तप
और व्रतको सर्वज्ञदेव बालतप और बालवत कहते है। र. सा./७१ उवसमभवभावजुदो णाणी सो भावसंजदो होई। णाणी
कसायवसगो असंजदो होइ स ताव ।७१। - उपशम भावसे धारे गये व्रतादि तो संयम भावको प्राप्त हो जाते हैं, परन्तु कषाय वश किये गये व्रतादि असंयम भावको ही प्राप्त होते हैं। (प. प्र./मू./२/४१) मू. आ./EEL भावविरदो दु विरदो ण दव्य विरदस्स सुगई होई। विस
यबणरमणलोलो धरियन्वो तेण मणहत्थी 881 -जो अन्तरंगमें विरक्त है वही विरक्त है, बाह्य वृत्तिसे विरक्त होनेवालेकी शुभ गति नही होती। इसलिए मनरूपी हाथीको जो कि क्रीड़ावन में लंपट है
रोकना चाहिए । प. प्र/मू./३/६६ वंदिउ जिंदउ पडिकमउ भाव असद्धउ जासु । पर तसु
संजमु अस्थि णवि जं मणसुद्धि ण तास ।६६-निःशंक वन्दना करो, निन्दा करो. प्रतिक्रमणादि करो लेकिन जिसके जबतक अशुद्ध परिणाम है, उसके नियमसे संयम नहीं हो सकता।६६।
स.सा./आ./२७७ शुद्ध आत्मैव चारित्रस्याश्रयः षड्जीवनिकायसद
भावेऽसदभावे वा तत्सदभावेनैव चारित्रस्य सद्भावात् । स. सा./आ./२७३ निश्चयचारित्रोऽज्ञानी मिथ्यावृष्टिरेव निश्चयचारित्रहेतुभूतज्ञानश्रद्धानशुन्यत्वात् । = शुद्ध आरमा ही चारित्रका आश्रय है, क्योंकि छह जीव निकायके सदभावमें या असहभावमें उसके सद्भावसे ही चारित्रका सदभाव होता है ।२७७१ -निश्चय चारित्रका अज्ञानी मिथ्यादृष्टि ही है, क्योंकि वह निश्चय चारित्रके ज्ञान श्रद्धानसे शून्य है। स.सा/आ/३०६ अप्रतिक्रमणादितृतीयभूमिस्तु" साक्षात्स्वयममृतकुम्भो भवतीति व्यवहारेण द्रव्यप्रतिक्रमणादेरपि अमृतकुम्भत्वं साधयति । तदभावे द्रव्यप्रतिक्रमणादिरप्यपराध एव। -अप्रतिक्रमणादिरूप जो तीसरी भूमि है, वही स्वयं साक्षात् अमृतकुम्भ होती हुई, द्रध्यप्रतिक्रमणादिको अमृत कुम्भपना सिद्ध करती है। अर्थात विकल्पात्मक दशामें क्येि गये द्रव्यप्रतिकमणादि भी भी अमृतकुम्भरूप हो सकते है जब कि अन्तरंगमें तीसरी भूमिका अंश या झुकाव विद्यमान हो। उसके अभाबमें द्रव्य प्रतिक्रमणादि भी अप
राध है। प्र. सा./त प्र./२४१ ज्ञानात्मन्यात्मन्यचलितवृत्तेर्य क्लि सर्वत' साम्यं तत्सिद्धागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयोगपद्यात्मज्ञानयोगपद्यस्य संयतस्य लक्षणमालक्षणीयम् । - ज्ञानात्मक आत्मामें जिसकी परिणति अचलित हुई है, उस पुरुषको वास्तबमें जो सर्वतः साम्य है, सो संयतका लक्षण समझना चाहिए, कि जिस संयतके आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान संयतत्वकी युगपतताके साथ आत्म ज्ञानकी युगपतता सिद्ध हुई है। ज्ञा./२२/१४ मनःशुद्धयैव शुद्धिः स्याह हिना नात्र संशयः। वृथा तद्वयतिरेकेण कायस्यैव कदर्थनम् ।१४। -निःसन्देह मनकी शुद्धिसे ही जीवोंके शुद्धता होती है, मनकी शुद्धिके बिना केवल कायको क्षीण करना वृथा है। दे, चारित्र/३/८ (मिथ्यादृष्टि संयत नहीं हो सकता )।
४. निश्चय चारित्र वास्तव में उपादेय है ति.प./६/२३ णाणम्मि भावना खलु कादव्वा दसणे चरित्ते य । ते पुण
आदा तिणि वि तम्हा कुण भावणं आदो ।२३॥ --ज्ञान, दर्शन और चारित्रमे भावना करना चाहिए, चूकि वे तीनों आत्मस्वरूप हैं, इसलिए आत्मामें भावना करो। प. सा./त. प्र/६ मुमुक्षुणेष्टफलत्वाद्वीतरागचारित्रमुपादेयम् । = मुमुच
जनौंको इष्ट फल रूप होनके कारण वीतरागचारित्र उपादेय है। {प्र. सा/त. प्र./१,११)(नि. सा./ता. वृ./१०५)। पं. ध./उ./७६१ नासौ वरं वरं यः स नापकारोपकारकृत। यह ( शुभोपयोग अन्धका कारण होनेसे) उत्तम नहीं है, क्योंकि जो उपकार व अपकार करनेवाला नहीं है, ऐसा साम्य या शुद्धोपयोग ही उत्तम है।
५. व्यवहार चारित्रकी गौणता १. व्यवहार चारित्र वास्तव में चारित्र नहीं
प्र सात प्र/२०२ अहो मोक्षमार्गप्रवृत्तिकारण पञ्चमहानतोपेतकायवाड्मनोगुप्तीर्याभाषणादाननिक्षेपणप्रतिष्ठापनलक्षणचारित्राचार, न शुद्धस्यात्मनस्त्वमसीति निश्चयेन जानामि । = अहो । मोक्षमार्ग में प्रवृत्तिके कारणभूत पंच महावत सहित मनवचनकाय-गुप्ति और ईर्यादि समिति रूप चारित्राचार । मैं यह निश्चयसे जानता हूँ कि तू शुद्धात्माका नही है ?
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
भा० २-३७
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