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चारित्र
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४. निश्चय चारित्रकी प्रधानता
क्योंकि जो जीव मोक्षकी आकांक्षासे रहित हैं, और जिनकी विषयम. पु./२४/१२२ चारित्रं दर्शनज्ञामविकलं नार्थ कृन्मतम् । प्रमातायैव पिपासा दूर नहीं हुई है, उनको अप्रत्याख्यान संयमकी उत्पत्ति नहीं तद्धि स्यात् अन्धस्येव विवल्गितम् ॥१२२। सम्यग्दर्शन और सम्यहो सकती। प्रश्न-कितने ही मिथ्या दृष्टि संयत देखे जाते हैं। ग्ज्ञानसे रहित चारित्र कुछ भी कार्यकारी नहीं होता, किन्तु जिस उत्तर-नहीं; क्योंकि सम्यग्दर्शनके बिना संयमकी उत्पत्ति नहीं हो प्रकार अन्धे पुरुषका दौडना उसके पतनका कारण होता है उसी सकती।
प्रकार वह उसके पतनका कारण होता है अर्थाद नरकादि गतियोमे भ. आ./वि./८/४१/१७ मिथ्यादृष्टिस्त्वनशनादावुद्यतोऽपि न चारि- परिभ्रमणका कारण होता है। त्रमाराधयति ।
न. च. लघु / बुज्झहता 'जिणवयणं पच्छा णिजकजसंजुआ होह । भ. आ./वि./११६/२७३/१० न श्रद्धानं ज्ञानं चान्तरेण संयम' प्रवर्तते। अहबा तंदुलरहियं पलालसंधुणाणं सब । पहिले जिन-वचनोंको
अजानतः श्रद्धानरहितस्य वासंयमपरिहारो न संभाव्यते । १. जानकर पीछे निज कार्यसे अर्थात चारित्रसे संयुक्त होना चाहिए, मिथ्याष्टिको अनशनादि तप करते हुए भी चारित्रकी आराधना अन्यथा सर्व चारित्र तप आदि तन्दुल रहित पलाल कूटनेके समान नहीं होती। २. श्रद्धान और ज्ञानके बिना संयमकी प्रवृत्ति ही नहीं व्यर्थ है। होती, । क्योंकि जिसको ज्ञान नहीं होता, और जो श्रद्धान रहित है, न. च /श्रुत/पृ. ५२ स्वकार्यविरुद्धा क्रिया मिथ्याचारित्रं । निजकार्यसे वह असंयमका त्याग नहीं करता है।
विरुद्व क्रिया मिथ्याचारित्र है। प्र.सा./त. प्र./२३६ इह हि सर्वस्यापि "तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणया दृष्टया स. सा./आ./३०६ अप्रतिक्रमणादिरूपा तृतीया भूमिस्तु.. साक्षात्स्वय
शून्यस्य स्वपरविभागाभावात् कायकषायैः सहैक्यमध्यवसतो... ममृतकुम्भो भवति। तथैव च निरपराधो भवति चेतयिता । तदसर्वतो निवृत्त्यभावात् परमात्मज्ञानाभावाद: ज्ञानरूपात्मतत्त्वैकाग्रय- भावे द्रव्यप्रतिक्रमणादिरप्यपराध एव । जो अप्रतिक्रमणादि रूप प्रवृत्त्यभावाच्च संयम एव न तावत् सिद्धयेत् । - इस लोकमें वास्तवमें अर्थात् प्रतिक्रमण आदिके विकल्पोंसे रहित) तीसरी भूमिका है वह तत्त्वार्थ श्रद्धान लक्षणवालो दृष्टिमे जो शून्य है, उन सभीको संयम स्वयं साक्षात अमृत कुम्भ है। उससे ही आत्मा निरपराध होता है। हो सिद्ध नहीं होता, क्योंकि स्वपर विभागके अभावके कारण काया उसके अभावमें द्रव्य प्रतिक्रमणादि भी अपराध ही है।
और कषायोकी एकताका अध्यवसाय करनेवाले उन जीवोंके सर्वतः पं.वि./१/७० .."दर्शनं यद्विना स्यात् । मतिरपि कुमतिर्नु दुश्चरित्रं 'निवृत्तिका अभाव है, तथापि उनके परमात्मज्ञानके अभावके कारण चरित्र ।७०।-वह सम्यग्दर्शन जयवन्त वर्तो, कि जिसके बिना मती आत्मतत्त्वमें एकाग्रताकी प्रवृत्तिके अभाव में संयम ही सिद्ध नहीं होता। भी कुमति है और चारित्र भी दुश्चरित्र है। ९. सम्यक्त्व शून्य चारित्र मोक्ष व आत्मप्राप्तिका ज्ञा./४/२७ मे उद्धृत-हतं ज्ञानं क्रिया शून्यं हता चाज्ञानिनः क्रिया।
धावन्नप्यन्धको नष्ट. पश्यन्नपि च पंगुकः । = क्रिया रहित तो ज्ञान कारण नहीं है
नष्ट है और अज्ञानीकी क्रिया नष्ट हुई। देखो दौड़ता दौडता तो चा. पा./मू./१० सम्मत्तचरणभट्टा संजमचरणं चरंति जे विणरा।
अन्धा (ज्ञान रहित क्रिया ) नष्ट हो गया और देखता देखता पंगुल अण्णाणणाणमूढा-तह वि ण पावंति णिव्वाणं ।१०= जो पुरुष (क्रिया रहित ज्ञान) नष्ट हो गया। सम्यक्त्व चरण चारित्र (स्वरूपाचरण चारित्र) करि भ्रष्ट हैं, अर
अन. ध./४/३/२७७ ज्ञानमज्ञानमेव यद्विना सद्दर्शनं यथा। चारित्रमयसंयम आचरण करें हैं तोऊ ते अज्ञानकरि मूढ दृष्टि भए सन्ते निर्वा
चारित्रं सम्यग्ज्ञानं विना तथा २ = जिस प्रकार सम्यग्दर्शनके णकू नहीं पावें हैं।
बिना चारित्र भी अचारित्र ही माना जाता है। १. प्र./मू./२/८२ बुज्झइ सत्थई तउ चरई पर परमत्थु ण वेइ । ताव ण मुंचइ जाम णवि इहु परमत्थु मुणेइ ।। = शास्त्रों को जानता है, ४.निश्चय चारित्रकी प्रधानता तपस्या करता है, लेकिन परमात्माको नहीं जानता, और जबतक पूर्व प्रकारसे उसको नहीं जानता तबतक नहीं छूटता।
१. शुम-अशुमसे अतीत तीसरी भूमिका ही वास्तविक यो. सा./अ./२/५० अजीवतत्त्वं न विदन्ति सम्यक् यो जीवत्वाद्विधिना- चारित्र है विभक्तं । चारित्रवतोऽपि न ते लभन्ते विविक्तमानमपास्तदोषम् ।
स.सा./आ /३०६ यस्तावदज्ञानिजनसाधारणोऽप्रतिक्रमणादि स शुद्धात्मजो विधि पूर्वक जीव तत्त्वसे सम्यक् प्रकार विभक्त (भिन्न किये
सिद्धाभावस्वभावत्वेन स्वमेवापराधत्वाद्विषकुम्भ एव; कि तस्य गये ) अजीव तत्त्वको नहीं जानते वे चारित्रवन्त होते हुए भी निर्दोष
विचारेण । यस्तु द्रव्यरूप. प्रक्रमणादिः स सर्वापराधदोषापकर्षणपरमात्मतत्त्वको नहीं प्राप्त होते।
समर्थत्वेनामृतकुम्भोऽपि प्रतिक्रमणाप्रतिक्रमणादिविलक्षणाप्रतिक्रमपं. वि./७/२६/ भाषाकार-मोक्षके अभिप्रायसे धारे गये व्रत ही सार्थक हैं।
णादिरूपां तार्तीयिकी भूमिमपश्यतः स्व कार्याकारित्वाद्विषकुम्भ एव दे. मिथ्यादृष्टि/४ (सांगोपांग चारित्रका पालन करते हुए भी मिथ्या
स्यात् । अप्रतिक्रमणादिरूपा तृतीया भूमिस्तु स्वयं शुद्धात्मसिद्धिरूपदृष्टि मुक्त नहीं होता)।
स्वेन सर्वापराध विषदोषाणां सर्वकषत्वात साक्षात्स्वयममृतकुम्भो १०. सम्यक्त्व रहित चारित्र मिथ्या है अपराध है भवतीति ।-प्रथम तो अज्ञानी जनसाधारणके प्रतिक्रमणादि ( असंयइत्यादि
मादि ) है वे तो शुद्धात्माकी सिद्धिके अभावरूप स्वभाववाले है।
इसलिए स्वयमेव अपराध रूप होनेसे विषकुन्भ ही है। उनका स. सा./मू./२७३ बदसमिदिगुत्तीओ सीलतवं जिनवरेहिं पण्णत्तं ।
विचार यहाँ करनेसे प्रयोजन हो क्या -और जो द्रव्य प्रतिकुव्बंतो वि अभवो अण्णाणी मिच्छादिट्ठी दु ।२७३- जिनेन्द्र देवके
क्रमणादि हैं वे सब अपराधरूपी विषके दोषको (क्रमशः) कम द्वारा कथित व्रत, समिति, गुप्ति, शील और तप करता हुआ भी
करनेमे समर्थ होनेसे यद्यपि व्यवहार आचारशास्त्रके अनुसार अमृत अभव्य जीव अज्ञानी और मिथ्यादृष्टि है। (भ. आ./मू./७७१/१२९) ।
कुम्भ है तथापि प्रतिक्रमण अप्रतिक्रमणादिसे विलक्षण ( अर्थात् प्रतिमो पा./मू./१०० जदि पढदि बहुसुदाणि जदि कहिदि बहुविहं य
क्रमणादिके विकल्पोसे दूर और लौकिक असंयमके भी अभाव स्वरूप चारित्तं । तं बालसुदचरणं हवेइ अप्पस्स क्विरीदं । जो आत्म
पूर्ण ज्ञाता द्रष्टा भावस्वरूप निर्विकल्प समाधि दशारूप) जो तीसरी स्वभावसे विपरीत बाह्य बहुत शास्त्रोंको पढेगा और बहुत प्रकारके
साम्य भूमिका है, उसे न देखनेवाले पुरुषको वे द्रव्य प्रतिक्रमणादि चारित्रको आचरेगा तो वह सब भालश्रुत व बालचारित्र होगा।
( अपराध काटनेरूप ) अपना कार्य करनेको असमर्थ होनेसे और
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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