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चारित्र
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३. चारित्रमें सम्यक्त्वका स्थान
३. चारिन्न सम्यग्दर्शनपूर्वक होता है चा.पा./मू./८ जं चरइ णाणजुत्तं पढम सम्मत्तचरणचारित्ता। चा.पा./टी/८/३५/१६ द्वयोर्दर्शनाचारचारित्राचारयोर्मध्ये सम्यक्त्वाचारचारित्रं प्रथम भवति । - दर्शनाचार और चारित्राचार इन दोनोंमे सम्यक्त्वाचरण चारित्र पहले होता है। र.सा./७३ पुव्वं सेवइ मिच्छामलसोहणहेउ सम्मभेसज्जं। पच्छा सेवइ कम्मामयणासणचरियसम्मभेसज्ज १७३। भव्य जीवोंको सम्यक्त्वरूपी रसायन द्वारा पहले मिथ्यामलका शोधन करना चाहिए, पुनः चारित्ररूप औषधका सेवन करना चाहिए। इस प्रकार करनेसे कर्मरूपी रोग तत्काल ही नाश हो जाता है। मो मा./मू / तं चैव गुणविसुद्धं जिणसम्मत्तं सुमुबवठाणाय । जं चरइ णाणजुत्तं पढम सम्मत्तचरणचारित्तं जिनकासम्यक्त्वविशुद्धहोय ताहि यथार्थ ज्ञान करि आचरण करै, सो प्रथम सम्यक्त्वाचरण
चारित्र है, सो मोक्षस्थानके अर्थ होय है। स.सि./२/३/१५३/७ सम्यक्त्वस्यादौ वचनं, तत्पूर्वकत्वाच्चारित्रस्य ।
='सम्यक्त्वचारित्रे' इस सूत्रमें सम्यक्त्व पदको आदिमे रखा है, क्योकि चारित्र सम्यक्त्वपूर्वक होता है। (भ आ /वि./११६/२७३/१०)। रा वा /२/३/४/१०/२१ पूर्व सम्यक्त्वपर्यायेणाविर्भाव आत्मनस्ततः क्रमाच्चारित्रपर्याय आविर्भवतीति सम्यक्त्वस्यादौ ग्रहणं क्रियते । = पहले औपशमिक सम्यग्दर्शन प्रगट होता है। तत्पश्चात् क्रमसे आत्मामे औपशमिक चारित्र पर्यायका प्रादुर्भाव होता है, इसीसे सम्यक्त्वका ग्रहण सूत्र के आदिमे किया गया है। प्र.सि.उ./२१ तत्रादौ सम्यक्त्व समुपाश्रयणीयमखिलयत्नेन । तस्मिन्स- त्येव यतो भवति ज्ञानं चारित्रं च ।२१। - इन तीनों (सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र) के पहले समस्त प्रकारसे सम्यग्दर्शन भले प्रकार अंगीकार करना चाहिए, क्योंकि इसके अस्तित्व होते हुए ही सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र होता है। आ.अनु./१२०-१२१ प्राक प्रकाशप्रधानः स्यात् प्रदीप इव संयमी। पश्चात्तापप्रकाशाभ्यां भास्वानिव हि भासताम् ।१२०। भूत्वा दीपोपमो धीमान ज्ञानचारित्रभास्वर । स्वमन्यं भासयत्येष प्रोद्वत्कर्मकज्जलस ११२१। - साधु पहले दीपके समान प्रकाशप्रधान होता है। तत्पश्चात वह सूर्य के समान ताप और प्रकाश दोनोसे शोभायमान होता है ११२०। वह बुद्धिमान साधु (सम्यक्त्व द्वारा) दीपकके समान होकर ज्ञान और चारित्रसे प्रकाशमान होता है, तब वह कर्म रूप काजलको उगलता हुआ स्वके साथ परको प्रकाशित करता है। ४. सम्यक्त्व हो जानेपर पहला ही चारित्र सम्यक् हो जाता है पं.ध./उ./७६८ अर्थोऽयं सति सम्यक्त्वे ज्ञानं चारित्रमत्र यत् । भूतपूर्व भवेत्सम्यक् सूते वाभूतपूर्वकम् ।७६८। - सम्यग्दर्शनके होते ही जो भूतपूर्व ज्ञान व चारित्र था, वह सम्यक् विशेषण सहित हो जाता है। अतः सम्यग्दर्शन अभूतपूर्वके समान ही सम्यग्ज्ञान व सम्यकचारित्र को उत्पन्न करता है, ऐसा कहा जाता है। ५. सम्यक्त्व हो जानेके पश्चात् क्रमशः चारित्र स्वतः
हो जाता है पं. ध./उ./६४० स्वसंवेदनप्रत्यक्षं ज्ञानं स्वानुभवायम् । वैराग्य भेदविज्ञानमित्याद्यस्तीह कि बहु ९४० सम्यग्दर्शनके होनेपर आत्मामें प्रत्यक्ष, स्वानुभव नामका ज्ञान, वैराग्य और भेद विज्ञान इत्यादि
गुण प्रगट हो जाते हैं। शी. पा./पं. जयचन्द/४० सम्यक्त्व होय तो विषयनितें विरक्त होय ही होय। जा बिरक्त न होय तौ संसार मोक्षका स्वरूप कहा जान्या.
६. सम्यग्दर्शन सहित ही चारित्र होता है चा. पा./मु. ३ णाणस्स पिच्छियस्स य समवण्णा होइ चारित्तं । बो. पा./मू.२० संजमसंजुतस्स य सुज्माणजोयस्स मोक्खमग्गस्स । णाणेण लहदि लक्वं तम्हा णाणं च णायव्यं । ज्ञान और दर्शनके समायोगसे चारित्र होता है।३। संयम करि संयुक्त और ध्यानके योग्य ऐसा जो मोक्षमार्ग ताका लक्ष्य जो अपना निज स्वरूप सो
ज्ञानकरि पाइये है तातै ऐसे लक्षकू जानने... ज्ञानकू जानना ।२०॥ ध. १२/४,२,७,१७७/८१/१० सो संजमो जो सम्माविणाभावीण अण्णो। तत्थ गुणसेडिणिज्जराकज्जणुवलंभादो। तदो संजमगहणादेव सम्मत्तसहायसंजमसिद्धी जादा । संयम वही है, जो सम्यक्त्वका अविनाभावी है, अन्य नहीं। क्योकि. अन्यमें गुणश्रेणी निर्जरारूप कार्य नहीं उपलब्ध होता। इसलिए संयमके ग्रहण करनेसे ही सम्यक्त्व सहित संयमको सिद्धि हो जाती है।
७. सम्यक्त्व रहितका चारित्र चारित्र नहीं है स. सि./६/२१/३३६/७ सम्यक्त्वाभावे. सति तस्यपदेशाभावात्तदुभयमप्यत्रान्तर्भवति । सम्यक्त्वके अभावमें सराग संयम और संयमासंयम नहीं होते, इसलिए उन दोनोंका यही ( सूत्रके 'सम्यक्त्व' शब्दमें ) अन्तर्भाव होता है। रा.वा./4/२१/२/५२८/४ नासतिसम्यक्त्वे सरागसंयम-संयमासंयमव्यपदेश इति ।- सम्यक्त्वके न होनेपर सरागसंयम और संयमासंयम
ये व्यपदेश ही नहीं होता । (पु. सि. उ./३८)। श्लो. वा./संस्कृत/६/२३/७/प्र.५५६ संसारात भीरुताभीक्ष्णं संवेगः। सिद्धयताम् यतः न तु मिथ्यादृशाम् । तेषाम् संसारस्य अप्रसिद्धितः । = बुद्धिमानोंमे ऐसी सम्मति है कि संसारभीरु निरन्तर संविग्न रहता है। परन्तु यह बात मिथ्याष्टियों में नहीं है। उन बुद्धिमानोंमें संसारकी प्रसिद्धि नहीं है। ध. १/१,१,४/१४४/४ संयमनं संयमः । न द्रव्ययमः संयमस्तस्य 'सं'
शब्देनापादित्वात् । - संयमन करनेको संयम कहते हैं, संयमका इस प्रकार लक्षण करनेपर द्रव्य यम अर्थात भाव चारित्र शून्य द्रव्य चारित्र संयम नहीं हो सकता। क्योंकि संयम शब्दमें ग्रहण किये गये 'सं'
शब्दसे उसका निराकरण कर दिया गया है । (ध.१/१,१,१४/१७७/४)। प्र. सा./ता. बृ./२३६/३२६/११ यदि निर्दोषिनिजपरमात्मवोपादेय इति रुचिरूपं सम्यक्त्वं नास्ति तर्हि...पञ्चेन्द्रियविषयाभिलाषषड्जीववधव्यावर्तोऽपि संयतो न भवति ।-निर्दोष निज परमानन्द ही उपादेय है, यदि ऐसा रुचि रूप सम्यक्त्व नहीं है, तब पंचेन्द्रियोंके विषयोंकी अभिलाषाका त्याग रूप इन्द्रिय संयम तथा षट्कायके जीवों के बधका त्यागरूप प्राणि संयम ही नहीं होता।
मार्गणा-[ मार्गणा प्रकरणमें सर्वत्र भाव मार्गणा इष्ट है ] । ८. सम्यक्स्वके बिना चारित्र सम्भव नहीं र.सा./४७ सम्मत्तं विणा सण्णाणं सच्चारित्तं ण होइ णियमेण । -सम्यग्दर्शनके बिना सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र नियम पूर्वक नहीं होते हैं ।४७। (और भी- दे० लिंग/२) ( स. सं/६/२१/३३६/७); (रा. वा./६/२१/२/५२८/४)। ध.१/१,१,१३/१७५/३ तान्यन्तरेणाप्रत्याख्यानस्योत्पत्तिविरोधात् ।
सम्यक्त्वमन्तरेणापि देशयतयो दृश्यन्त इति चेन्न, निर्गतमुक्तिकाक्ष - स्यानिवृत्तविषयपिपासस्याप्रत्याख्यानानुपपत्ते। ध.१/१,१,१३०/३७८/७ मिथ्यादृष्टयोऽपि केचित्संयतो दृश्यन्त इति
चेन्न, सम्यक्त्वमन्तरेण संयमानुपपत्तेः । = १. औपमिक, क्षायिक ब क्षायोपश मिक इन तीनों में से किसी एक सम्यग्दर्शनके बिना अप्रत्याख्यान चारित्रका (संयमासयमका) प्रादुर्भाव नहीं हो सकता। प्रश्नसम्यादर्शनके बिना भी देश संयमी देखनेमें आते हैं ? उत्तर-नहीं,
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