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क्रिया
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३. श्रावकको क्रियाओका निर्देश
रा, वा./१/८/२/४१ क्रिया च परिस्पन्दात्मिका जीवपुद्गलेषु अस्ति न इतरेषु । परिस्पन्दात्मक क्रिया जीव और पुद्गल में ही होती है
अन्य द्रव्यों में नहीं। स, सा /आ०/परि०नं.४० कारकानुगतभवत्तारूपभावमयी क्रियाशक्ति ।
-कारकके अनुसार होनेरूप भावमयी चालीसवीं क्रियाशक्ति है। नोट-क्रियाशक्तिके लिए और भी दे० क्रिया/२/१। ६. अन्य सम्बन्धित विषय १. गमनरूप क्रिया का विषय विस्तार--दे० गति । २. क्रिया व पर्याय में अन्तर-दे० पर्याय/२ । ३. षट् द्रव्योंमें क्रियावान् अक्रियावान् विभाग-दे० द्रव्या३ । ४. ज्ञाननय व क्रियानयका समन्वय-दे० चेतना/३/८ । ५. शप्ति व करोति क्रिया सम्बन्धी विषय विस्तार-दे० चेतना/३॥ ६. शुद्ध जीववत् शुद्ध परमाणु निष्क्रिय नहीं-दे० परमाणु/२ ।
३. श्रावकको क्रियाओंका निर्देश
१. श्रावककी २५ क्रियाओंका नाम निर्देश दे० अगला शीर्षक पच्चीस क्रियाओंको कहते है-१ सम्यक्त्व क्रिया; २ मिथ्यात्व क्रिया; ३ प्रयोगक्रिया; ४ समादानक्रिया; ५ ईर्यापथक्रिया; ६ प्रादोषिकी क्रिया, ७ कायिकी क्रिया; ८ अधिकारिणिकी क्रिया; पारितापिकी क्रिया; १० प्राणातिपातिकी क्रिया; ११ दर्शनक्रियाः १२ स्पर्शनक्रिया; १३ प्रात्ययकीक्रिया; १४ समन्तानुपातक्रिया; १५ अनाभोगक्रियाः १६ स्वहस्तक्रिया; १७ निसर्ग क्रिया; १८ विदारणक्रिया; १६ आज्ञाव्यापादिकी क्रिया; २० अनाकांक्षक्रिया; २१ प्रारम्भक्रिया; २२ परिग्रहिकी क्रिया; २३ माया क्रिया; २५ मिथ्यादर्शनक्रिया; २५ अप्रत्याख्यानक्रिया, (रा. वा./ ६/५/७-११/५०६-५१०)।
२. श्रावककी २५ क्रियाओंके लक्षण स.सि./६/५/३२१-३२३/११ पञ्चविंशतिः क्रिया उच्यन्ते-चैत्यगुरुप्रवचन
पूजादिलक्षणा सम्यक्त्ववर्धनीक्रिया सम्यक्त्व क्रिया । अन्यदेवतास्तवनादिरूपामिथ्यात्वहेतुकी प्रवृत्तिमिथ्यात्व क्रिया। गमनागमनादिप्रवर्तनं कायादिभिः प्रयोगक्रिया [वीर्यान्तरायज्ञानावरण योपशमे सति अङ्गोपाङ्गोपष्टम्भादात्मन' कायवाड्मनोयोगनिवृत्तिसमर्थपुदगलग्रहणं वा ( रा.वा./६/२) संयतस्य सतः अविरति प्रत्याभिमुख्य समादानक्रिया । ईर्यापथनिमित्तर्यापथक्रिया । ता एता पञ्चक्रिया । क्रोधावेशात्प्रादोषिकी क्रिया। प्रदुष्टस्य सतोऽभ्युद्येमः कायिकीक्रिया। हिंसोपकरणादानादाधिकरणिकी क्रिया। दुःखोत्पत्तितन्त्रत्वात्पारितापिकी क्रिया । आयुरिन्द्रियबलोच्छ्वासनि श्वासप्राणानां वियोगकरणात्प्राणातिपातिकी क्रिया । ता एताः पञ्चक्रियाः। रागार्दीकृतत्वात्प्रमादिनोरमणीयरूपालोकनाभिप्रायो दर्शन किया। प्रमादवशास्पृष्टव्यसनचेतनानुबन्धः स्पर्शनक्रिया । अपूर्वाधिकरणोत्पादनात्प्रात्यायिकी क्रिया। स्त्रीपुरुषपशुसम्पातिदेशेऽन्तर्मलोत्सर्गकरणं समन्तानुपातक्रिया । अप्रमृष्टादृष्टभूमौ कायादि निक्षेपोऽनाभोगक्रिया। ता एताः पञ्चक्रियाः। या परेण निर्वया क्रियां स्वयं करोति सा स्वहस्तक्रिया। पापादानादिप्रवृत्ति विशेषाभ्यनुज्ञानं निसर्ग क्रिया। पराचरितसावद्यादिप्रकाशनं विदारणक्रिया, यथोक्तागमाज्ञावश्यकादिषु चारित्रमोहोदयात्कर्तुमशक्नुवतोऽन्यथा प्ररूपणादाज्ञाव्यापादिकी क्रिया। शाठ्यालस्याभ्यां प्रवचनोपदिष्टविधिकर्तव्यतानादरोऽनाकाङ्क्षक्रिया। ता एताः पञ्च क्रिया' । छेदनभेदनविशसनादि क्रियापरत्वमन्येन वारम्भे क्रियमाणे प्रहर्ष प्रारम्भ क्रिया। परिग्रहाविनाशार्था पारिग्राहिकी क्रिया। ज्ञानदर्शनादिषु निकृतिर्वश्चनमाया क्रिया। अन्य मिथ्यादर्शनक्रियाकरणकारणाविष्टं प्रशंसादिभि
दृढयति यथा साधु करोषोति सा मिथ्यादर्शनक्रिया। संयमघातिकर्मोदयवशाद निवृत्तिरप्रत्याख्यान क्रिया । ता एताः पञ्चक्रिया। समुदिताः पञ्चविशतिक्रियाः। चैत्य, गुरु और शास्त्रकी पूजा आदि रूप सम्यक्त्वको बढानेवाली सम्यक्त्व क्रिया है। मिथ्यात्वके उदयसे जो अन्य देवताके स्तवन आदि रूप क्रिया होती है वह मिथ्यात्व क्रिया है। शरीर आदि द्वारा गमनागमन आदि रूप प्रवृत्ति प्रयोग क्रिया है। [अथवा वीर्यान्तराय ज्ञानावरणका क्षयोपशम होनेपर अंगोपांग नामकर्म के उदयसे काय, वचन और मनोयोगकी रचनामें समर्थ पुद्गलोंका ग्रहण करना प्रयोगक्रिया है। (रा.वा./६/५/७/ ५०६/१८)] संयतका अविरतिके सन्मुख होना समादान क्रिया है। ईर्यापथकी कारणभूत क्रिया ईर्यापथ क्रिया है। ये पाँच क्रिया हैं।
क्रोधके आवेशसे प्रादोषिकी क्रिया होती है । दुष्टभाव युक्त होकर उद्यम करना कायिकी क्रिया है। हिसाके साधनोंको ग्रहण करना
आधिकरणिकी क्रिया है। जो दुःखकी उत्पत्तिका कारण है वह पारितापिको क्रिया है। आयु, इन्द्रिय, बल और श्वासोच्छ्वास रूप प्राणोंका वियोग करनेवाली प्राणातिपातिकी क्रिया है । ये पाँच क्रिया हैं । रागवश प्रमादीका रमणीय रूपके देखनेका अभिप्राय दर्शनक्रिया है। प्रमादवश स्पर्श करने लायक सचेतन पदार्थका अनुबन्ध स्पर्शन क्रिया है। नये अधिकरणोंको उत्पन्न करना प्रात्ययिकी क्रिया है। स्त्री, पुरुष और पशुओंके जाने, आने, उठने और बैठनेके स्थानमें भीतरी मलका त्याग करना समन्तानुपात क्रिया है। प्रमार्जन और अवलोकन नहीं की गयी भूमिपर शरीर आदिका रखना अनाभोगक्रिया है। ये पाँच क्रिया हैं । जो क्रिया दूसरों द्वारा करनेकी हो उसे स्वयं कर लेना स्वहस्त क्रिया है। पापादान आदिरूप प्रवृत्ति विशेषके लिए सम्मति देना निसर्ग क्रिया है। दूसरेने जो सावद्यकार्य किया हो उसे प्रकाशित करना विदारणक्रिया है । चारित्रमोहनीयके उदयसे आवश्यक आदिके विषयमें शास्त्रोक्त आज्ञाको न पाल सकनेके कारण अन्यथा निरूपण करना आज्ञाव्यापादिकी क्रिया है। धूर्तता और आलस्यके कारण शास्त्रमें उपदेशी गयी विधि करनेका अनादर अनाकाक्षक्रिया है। ये पाँच क्रिया हैं। छेदना-भेदना और रचना आदि क्रियाओमे स्वयं तत्पर रहना और दूसरेके करनेपर हर्षित होना प्रारम्भक्रिया है । परिग्रहका नाश न हो इसलिए जो क्रिया की जाती है वह पारिग्राहिकी क्रिया है। ज्ञान, दर्शन आदिके विषयमे छल करना मायाक्रिया है। मिथ्यादर्शनके साधनोंसे युक्त पुरुषको प्रशंसा आदिके द्वारा दृढ करना कि 'तू ठीक करता है' मिथ्यादर्शनक्रिया है। संयमका घात करनेवाले कर्मके उदयसे त्यागरूप परिणामोंका न होना अप्रत्याख्यानक्रिया है। ये पाँच क्रिया हैं। ये सब मिलकर पच्चीस क्रियाएँ होती हैं । (रा. वा /६/५/७/१६)।
३. श्रावककी अन्य क्रियाओंका लक्षण
स सि /७/२६/३६६/६ अन्येनानुक्तमननुष्ठित यत्किचित्परप्रयोगवशादेव तेनोक्तमनुष्ठितमिति वचनानिमित्तं लेखन कूटलेखक्रिया ।-दूसरेने तो कुछ कहा और न कुछ किया तो भी अन्य किसीकी प्रेरणासे उसने ऐसा कहा है और ऐसा किया है इस प्रकार छलसे लिखना कूट लेखक्रिया है। नि. सा./ता. वृ./१५२...निश्चयप्रतिक्रमणादिसत्क्रिया कुर्वन्नास्ते ।
महामुमुक्षु.. निश्चयप्रतिक्रमणादि सक्रियाको करता हुआ स्थित है। (नि. सा/ता वृ./१५५)। यो सा अ/८/२० आराधनाय लोकानां मलिनेनान्तरात्मना । क्रियते या क्रिया बालैर्लोकपक्तिरसौ मता ।२०- अन्तरात्माके मलिन होनेसे
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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