________________
क्रम करण
१७३
क्रिया
पं.ध./पू./१३४ तत्र क्रियाप्रदेशो देशपरिस्पन्दलक्षणो वा स्यात ।-प्रदेश
परिस्पन्द हैं लक्षण जिसका ऐसे परिणमन विशेषको क्रिया कहते है। (पं.ध./३/३४)। पं.का/त.प्र./६८ प्रदेशान्तरप्राप्तिहेतुः परिस्पन्दरूपपर्यायः क्रिया ।
प्रदेशान्तर प्राप्तिका हेतु ऐसा जो परिस्पन्दरूप पर्याय वह क्रिया है। पं. का./ता वृ./२७/५७/८ क्षेत्रात् क्षेत्रान्तरगमनरूपपरिस्पन्दवती चलन
वती क्रिया। -एक क्षेत्रसे दूसरे क्षेत्रमें गमनरूप हिलनेवाली अथवा चलनेवाली जो क्रिया है । (द्र.सं./टी./२ अध्यायकी चलिका/पृ.७७)। * परिणतिके अर्थमें क्रिया -दे० कर्म। २. गतिरूप क्रियाके भेद स, सि./५/२२/२६२/८ सा द्विविधा-प्रायोगिकवैससिकभेदात । वह
परिस्पन्दात्मक क्रिया दो प्रकारकी है-प्रायोगिक और वैससिक। (रा. वा./५/७/१७/४४८/१७) (रा.वा./५/२२/१६/४८१/१२)। रा. वा./५/२४/२१/४६० सा दशप्रकारप्रयोगवन्धाभावच्छेदाभिघाता
वगाहनगुरुलघुसंचारसंयोगस्वभावनिमित्तभेदाता-अथवा वह क्रिया, प्रयोग; २ बन्धाभाव; ३ छेद; ४ अभिधात; ५ अवगाहन; ६ गुरु; ७ लघु; ८ संचारः संयोग; १० स्वभाव निमित्त के भेद से दस प्रकारकी है।
क्रिया
देशोत्तरप्राप्ति स. सि./५/७/२७२/१०
द्रव्य परिणति स. सा/आ०/क०५१
जीव मयी
अजीवमयी
क्रमकरण-क्ष.सा/४२२-४२७का सारार्थ-चारित्रमोहक्ष पणा विधानके
अन्तर्गत अनिवृत्तिकरणके काल में जो स्थितिबन्धापसरण व स्थितिसत्त्वापसरण किया जाता है, उसमें एक विशेष प्रकारका क्रम पड़ता है। मोहनीय तोसिय, बीसिय, वेदनीयनाम, गोत्र, इन प्रकृतियों के स्थितिबन्ध व स्थिति सत्त्वमे परस्पर विशेष क्रम लिये अल्पबहूत्व रहता है। प्रत्येक संख्यात हजार स्थिति बन्धोके बीत जानेपर उस अल्पबहुत्वका क्रम भी बदल जाता है। इस प्रकार स्थिति बन्ध व सत्त्व घटते-धटते अन्तमें ।४२२-४२॥ नाम व गोत्रसे वेदनीयका ड्योढा स्थितिबन्धरूप क्रम लिये अस्पबहूत्व होना, सोई क्रमकरण कहिए ।४२६। इसी प्रकार नाम व गोत्रसे वेदनीयका स्थिति सत्त्व साधिक भया तब मोहादिक के क्रम लिये स्थिति सत्त्वका क्रमकरण
भया ।४२७० दे० अपकर्षण/३/२ । क्रमण-मानुषोत्तर पर्वतस्थ कनककूटका स्वामी भवनवासी सुपण-
कुमार देव-दे० भवन/४, लोक/५११०॥ क्रमबद्ध-दे० नियति। क्रमभाव-दे. अविनाभाव । क्रियावान् द्रव्य-दे० द्रव्य/३ । क्रियागमन कम्पन आदि अर्थों में क्रिया शब्दका प्रयोग होता है।
जीव व पुद्गल ये दो ही द्रव्य क्रिया शक्ति सम्पन्न माने गये हैं। संसारी जीवोंमें, और अशुद्ध पुद्गलोंकी क्रिया वैभाविक होती है। और मुक्तजीवों व पुद्गल परमाणुओंकी स्वाभाविक। धार्मिक क्षेत्रमें श्रावक व साधुजन जो कायिक अनुष्ठान करते हैं वे भी हलन-चलन होनेके कारण क्रिया कहलाते है। श्रावककी अनेकों धार्मिक क्रियाएँ आगममें प्रसिद्ध हैं। १. क्रिया सामान्य निर्देश
१. गणितविषयक क्रिया ध./५/प्र २७ Operation
२. किया सामान्यके भेद व लक्षण रा. वा./५/१२/७/४५५/४ क्रिया द्विविधा-कतृ समवायिनी कर्मसम
वायिनी चेति । तत्र कतृ'समवायिनी आस्ते गच्छतीति । कर्मसमवाथिनी ओदनं पचति, कुशूलं भिनत्तीति। -- क्रिया दो प्रकारको होती है-कतृ समवायिनी क्रिया और कर्मसमवायिनी। आस्ते गच्छति आदि क्रियाओंको कतृ समवायिनी क्रिया कहते हैं। और ओदनको पकाता है, घड़ेको फोड़ता है आदि क्रियाओंको कर्मसमवायिनी क्रिया कहते हैं। २. गतिरूप क्रिया निर्देश
१. क्रिया सामान्यका लक्षण स. सि./२/७/२७२/१० उभ पनिमित्तवशादुत्पद्यमानः पर्यायो द्रव्यस्य
देशान्तरप्राप्तिहेतु क्रिया । अन्तरंग और बहिरंग निमित्तसे उत्पन्न होनेवाली जो पर्याय द्रव्यके एक क्षेत्रसे दूसरे क्षेत्रमें प्राप्त करानेका कारण है वह क्रिया कहलाती है। रा. वा./२/२२/११/४८१/११ द्रव्यस्य द्वितीयनिमित्तधशाव उत्पद्यमाना परिस्पन्दात्मिका क्रियेत्यवसीयते। बाह्य और आभ्यन्तर निमित्तसे द्रव्यमें होनेवाला परिस्पन्दात्मक परिणमन क्रिया है। (रा. वा./५/७/ १/४४६/१) (त.सा./२/४७)। घ. १/१,१,१/१८/३ किरियाणाम परिप्फंदणरूवा-परिस्पन्द अर्थात् हलन चलन रूप अवस्थाको क्रिया कहते हैं। (प्र. सा./त.प्र./१२६)।
ज्ञप्ति क्रिया ज्ञेयार्थ परिणति करोति क्रिया प्र. सा./त प्र./५२ प्र. सा./त. प्र./५२ ३. स्वभाव व विमाव गति क्रियाके लक्षण नि. सा /ता. वृ./१८४ जीवानां स्वभावक्रिया सिद्धिगमनं विभावक्रिया
षट्कायक्रमयुक्तत्वं, पुद्गलानां स्वभाव क्रिया परमाणुगतिः विभाव. क्रिया द्वय णुकादिस्कन्धगति। -जीवोंकी स्वभाव क्रिया सिद्धिगमन है और विभाव क्रिया ( अन्य भवमें जाते समय ) छह दिशामें गमन है; पुद्गलोंकी स्वभावक्रिया परमाणुकी गति है और विभावक्रिया द्वि-अणुकादि स्कन्धोंकी गति है।
४. प्रायोगिक व वैनसिक क्रियाओंके लक्षण स. सि./३/२२/२१२/८ तत्र प्रायोगिकी शकटादोनास, वैससिकी मेघादीनाम् । गाड़ी आदिकी प्रायोगिकी क्रिया है। और मेघ आदिककी वैससिकी। (रा. वा./२/२२/११/४८१/११)।
५. क्रिया व क्रियावती शक्तिका लक्षण प्र. सा /मू०/१२६ उत्पादडिदिभंगा पोग्गलजीवप्पगस्स लोगस्स । परिणामादो जायते संघादादो व भेदादो।१२। पुद्गल जीवात्मक लोकके परिणमनसे और संघात (मिलने ) और भेद (पृथक् होने ) से उत्पाद धौव्य और व्यय होते हैं। स. सि./५/७/२७३/१२ अधिकृतानां धर्माधर्माकाशानां निष्क्रियरवेऽभ्युपगते जीवपुद्गलानां सक्रियत्वमर्थादापन्नम् । = अधिकार प्राप्त धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्यको निष्क्रिय मान लेनेपर जीव और पुद्गल सक्रिय हैं, यह प्रकरणसे अपने आप प्राप्त हो जाता है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org