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क्रम
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क्रम
३. पर्याय व गुणके अर्थमें क्रम अक्रम शब्दका प्रयोग स, सा./आ./२ क्रमाक्रमप्रवृत्त विचित्रभावस्वभावत्वादुत्संगितगुणपर्यायाः । =वह क्रमरूप (पर्याय) अक्रमरूप (गुण) प्रवर्तमान अनेकों भाव जिसका स्वभाव होनेसे जिसने गुण और पर्यायोंको अंगीकार किया हो -ऐसा है।
१. क्रमवत्तित्वका लक्षण पं.ध./पू./१६९.१७५ अयमर्थः प्रागेकं जातं उच्छिद्य जायते चैक. । अथ नष्टे सति तस्मिन्नन्योऽप्युत्पद्यते यथादेशम् ।१६६। क्रमवर्तित्वं नाम व्यतिरेकपुरस्सरं विशिष्टं च । स भवति भवति न सोऽयं भवति तथाथ च तथा न भवतीति ।१७। क्रमशब्दके निरूक्त्यं शका सारांश यह है कि द्रव्यत्वको नहीं छोड करके पहले होनेवाली एक पर्यायको नाश करके और एक अर्थात दूसरी पर्याय उत्पन्न होती है, तथा उसके नाश होनेपर और अन्य पर्याय उत्पन्न होती है। इस क्रममें कभी भी अन्तर नहीं पडता है, इस अपेक्षा पर्यायोंको क्रमवर्ती कहते हैं ।१६६। यह वह है किन्तु वह नहीं है अथवा यह वैसा है किन्तु वैसा नहीं है इस प्रकारके क्रममे व्यतिरेक पुरस्सर विशिष्ट ही क्रमवर्तित्व है ।१७॥
५. देश व कालक्रमके लक्षण स्या, म./५/३३/२० नानादेशकालव्याप्तिदेशक्रम' कालक्रमश्च ।
- अनेक देशों में रहनेवाला देशक्रम और अनेक कालोमें रहनेवाला कालक्रम।
शेष द्रव्योंका ऊर्ध्वप्रचय है, और समयोंका प्रचयकाल द्रव्यका ऊर्ध्वप्रचय है; क्यों कि शेष द्रव्योंकी वृत्ति समयसे अर्थान्तरभूत (अन्य ) है, इसलिए वह ( वृत्ति ) समय विशिष्ट है, और कालकी
तो स्वतः समयभूत है, इसलिए वह समयविशिष्ट नहीं है। प.मु /५/४-५ सदृशपरिणाम स्तिर्यक् खण्डमुण्डादिषु गोत्ववत् ।४। परापरविर्वतव्यापिद्रव्यमूर्खता मृदिव स्थासादिषु ।। -समान परिणामको तिर्यक् सामान्य कहते हैं, जैसे-गोत्व सामान्य क्यों कि खाडी मुंडी आदि गौवों में गोत्व सामान्य समानरी तिसे रहता है। स. भ. त./०७/१० में उद्धृत तथा पूर्व और उत्तर पर्यायों में रहनेवाले द्रव्यको ऊर्ध्वतासामान्य कहते हैं जैसे--मिट्टी । क्योंकि स्थास, कोश, कुसूल आदि जितनी पर्याय है उन सबमें मिट्टो अनुगत रूपसे रहती है। प्र.सा./ता.व./१३/१२०/१३ एककाले नानाव्यक्तिगतोऽन्वयस्तिर्यग्सामान्य
भण्यते । तत्र दृष्टान्तो यथा-नानासिद्धजीवेषु सिद्धोऽयं सिद्धोऽयमित्यनुगताकार. सिद्धजातिप्रत्ययः। नानाकालेष्वेकव्यक्तिगतोऽन्वय ऊर्ध्वतासामान्य भण्यते। तत्र दृष्टान्तो यथा--य एव केवलज्ञानोत्पत्तिक्षणे मुक्तात्मा द्वितीयादिक्षणेष्वपि स एवेति प्रतीति । = एक कालमें नाना व्यक्तिगत अन्वयको तिर्यक सामान्य कहते हैं जैसेनाना सिद्ध जीवोंमें 'यह भी सिद्ध है, यह भी सिद्ध है? ऐसा अनगताकार सिद्ध जाति सामान्यका ज्ञान । नाना कालोमें एक व्यक्तिगत अन्वयको ऊर्ध्वसामान्य कहते हैं। जैसे-केवलज्ञानके उत्पत्तिक्षणमें जो मुक्तात्मा हैं वही द्वितीयादि क्षणोमें भी हैं ऐसी प्रतीति । प्र.सा./ता.वृ./१३१/२००/६ तिर्यकप्रचयाः तिर्यक्सामान्यमिति विस्तार
सामान्यमिति क्रमानेकान्त इति च भण्यते । " ऊर्ध्वप्रचय इत्यूर्वसामान्यमित्यायतसामान्यमिति क्रमानेकान्त इति च भण्यते। -तिर्यक् प्रचयको तिर्यक्सामान्य, विस्तारसामान्य और अक्रमानेकान्त भी कहते हैं ।.. ऊर्ध्वप्रचयको ऊर्ध्वसामान्य, आयतसामान्य वा क्रमानेकान्त भी कहते हैं। प्रमेयकमलमार्तण्ड/पृ २७६ महेन्द्रकुमार काशी-प्रत्येकं परिसमाप्तया
पक्तिषु वृत्ति अगोचरत्वाच्च अनेक सदृशपरिणामात्मकमेवेति तिर्यक् सामान्यमुक्तम् । = अनेक व्यक्तियों में, प्रत्येकमें समाप्त होनेवाली वृत्तिको देखनेसे जो सदृश परिणामात्मकपना प्राप्त होता है, वह तिर्यक्सामान्य है।
७. क्रमवर्ती व अक्रमवर्तीका समन्वय
६. अर्ध्व व तिर्यग प्रचयका लक्षण यु. अ./माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला बम्बई पृ०१० तत्र ऊर्ध्वतासामान्य क्रमभाविषु पर्यायेष्वेकत्वान्वयप्रत्ययग्राह्यं द्रव्यम् । तिर्यक्सामान्य नानाद्रव्येषु पर्यायेषु च सादृश्यप्रत्ययग्राह्य सदृशपरिणामरूपम् । -क्रमभावी पर्यायों में एकत्वरूप अन्वयके प्रत्यय ( ज्ञान ) द्वारा ग्राह्य जो द्रव्य सामान्य है वही ऊर्ध्वता सामान्य है। और अनेक द्रव्यों में अथवा अनेक पर्यायों में जो सादृश्यताका बोध करानेवाला सदृश परिणाम होता है वह तिर्यक् सामान्य है। प्र'सा./त.प्र./१४१ प्रदेशप्रचयो हि तिर्यक्प्रचयः समय विशिष्टवृत्तिप्रचयस्तूर्ध्व प्रचयः। तत्राकाशस्यावस्थितानन्तप्रदेशत्वाद्धर्माधर्मयोरवस्थितासंख्येयप्रदेशत्वाज्जीवस्यानवास्थतासंख्येयप्रदेशत्वात पुद्गगलस्य द्रव्येणानेकप्रदेशत्वशक्तियुक्तै कप्रदेशत्वात्पर्यायेण द्विबहुप्रदेशत्वाच्चास्ति तिर्थक्प्रचय' ! न पुनः कालस्य शक्त्या व्यक्त्या चैकप्रदेशत्वात् । ऊध्र्वप्रचयस्तु त्रिकोटिस्पशित्वेन सांशत्वाइद्रव्यवृत्तेः सर्वद्रव्याणामनिवारित एव । अयं तु विशेषसमयविशिष्टवृत्तिप्रचयः शेषद्रव्याणामूध्वंप्रचयः समयप्रचयः एव कालस्योर्वप्रचय' । शेषद्रव्याणां वृत्तेहि समयादर्थान्तरभूतत्वादस्ति समय विशिष्टत्वम् । कालवृत्तेस्तु स्वतः समयभूतत्वात्तन्नास्ति। प्रदेशोंका समूह तिर्यक् प्रचय और समय विशिष्ट वृत्तियोंका समूह ऊर्ध्वप्रचय है। वहाँ आकाश अवस्थित (स्थिर ) अनन्तप्रदेश वाला है। धर्म तथा अधर्म अवस्थित असंख्य प्रदेश वाले हैं। जीव अनवस्थित असंख्य प्रदेशी है और पुद्गल द्रव्यतः अनेक प्रदेशित्वकी शक्तिसे युक्त एक प्रदेशवाला है, तथा पर्यायतः दो अथवा बहुत प्रदेशवाला है, इसलिए उनके तिर्यक्प्रचय है; परन्तु कालके (तिर्यक्प्रचय ) नहीं है, क्योंकि वह शक्ति तथा व्यक्तिकी अपेक्षासे एक प्रदेशवाला है। ऊर्ध्वप्रचय तो सब द्रव्यों के अनिवार्य ही है, क्योंकि द्रव्यकी वृत्ति तीन कोटियों (भूत, वर्तमान, भविष्यत् ऐसे तीन कालों) को स्पर्श करती है, इसलिए अंशोसे युक्त है। परन्तु इतना अन्तर है कि समय विशिष्ट वृत्तियोंका प्रचय ( कालको छोड़कर)
पं.ध./पू./४१७ न विरुद्ध क्रमवति च सदिति तथानादितोऽपि परि
णामि । अक्रमवर्ति सदित्य पि न विरुद्ध सदैकरूपत्वात् ।।१७। -सद क्रमवर्ती है यह भी विरुद्ध नहीं है क्योंकि वह अनादिकालसे क्रमसे परिणमनशील है और सत अक्रमवर्ती है यह भी विरुद्ध नहीं है क्यों कि परिणमन करता हुआ भी सत एकरूप है- सदृश है। ८. अन्य सम्बन्धित विषय १. सहभाव व अविनाभाव
-दे० अविनाभाव। २. उपक्रम, देयक्रम, अनुलोमक्रम, प्रतिलोमक्रम
-दे० वह वह नाम। ३. वस्तुमें दो प्रकारके धर्म होते हैं-सहभावी व क्रमभावी
-दे० गुण/३/२। ४. पर्याय वस्तुके क्रमभावी धर्म हैं
-दे० पर्याय/२॥ ५, गुण वस्तुके सहभावी या अक्रमभावी धर्म हैं -दे० गुण/३ । ६. सत् वही जो मालाके दानों वत् क्रमवर्ती परिणमन करता रहे
-दे० परिणाम/१ क।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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