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कोट
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क्रम
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से कार्तिक कृ०५ ( चतुर्मास ) की पंचमीको उपवास करे । जापनमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप्य। कोट-Boundary wall. कोटिशिला-प. पु./४८/श्लोक यह वह शिला है जिसपरसे करोड़ों मुनि सिद्ध पदको प्राप्त हुए हैं। रावणको वही मार सकता है जो इसको उठावेगा ऐसा मुनियोंका वचन था ( १८६) । लक्ष्मणने इसको
उठाकर अपनी शक्तिका परिचय दिया था (२१४ )। कोटेश्वर-कृति-जीवन्धर पाट पदी (कन्नड़) समय-ई. १५०० । पिताका नाम-तम्मण । बहदुरका सेनापति था। जीवन्धर चम्पू/प्र.
१० A.N. up. (ती./४/३११) । कोरिकल-एक क्रियावादी-दे० क्रियावाद । कोप्पण-निजाम हैदराबाद स्टेटके रायचूर जिलेमें वर्तमान कोप्पल नामका ग्राम । वर्तमानमें वहाँ एक दुर्ग तथा चहार दीवारी है जो चालुक्य कालीन कलाकी द्योतक समझी जाती है । (ध./२/प्र./१३) कोश-क्षेत्रका प्रमाण विशेष । अपरनाम गव्युति-दे० गणित/Ik/s कोशल-दे० कोसल। कोष्ठ बुद्धि ऋद्धि-दे ऋद्धि/२! कोष्टा-ष. खं./१३/५,६/४०/२४३ धरणी धारणा ट्ठवणा कोठा पदिट्ठा ।४०= धरणी, धारणा, स्थापना, कोष्ठा और प्रतिष्ठा ये एकार्थ नाम हैं ।४०। और भी-दे० ऋद्धि/२ । कोसल-१.भरत क्षेत्रस्थ मध्य आर्य खण्डका एक देश अपरनाम कौशल व कौशल्य । दे० मनुष्य/४ । २. उत्तरकोसल और दक्षिणकोसलके भेदसे इसके दो भाग थे। अयोध्या, शरावती (श्रावस्ती) लक्ष्मणपुरी (लखनऊ) आदि इसके प्रसिद्ध नगर हैं। यहाँ गोमती, तमसा और सरयू नदियाँ बहती हैं। कुशावतीका समीपवर्ती प्रदेश दक्षिणकोसल था। और अयोध्या, लखनऊ आदिके समीपवर्ती
प्रदेशका नाम उत्तरकोसल था। कोत्कुच्य-स. सि./9/३२/३६६/१४ तदेवोभयं परत्र दुष्टकायकर्म प्रयुक्त कौत्कुच्यम् । परिहार और असभ्यवचन इन दोनों के साथ दूसरेके लिए शारीरिक कुचेष्टाएँ करना कौत्कुच्य है। (रा. वा/७/ ३२/२/५५६)। कौमार सप्तमी व्रत-वत विधान संग्रह/पृ. १२६ । भादो सुदी सप्तमीके दिनां, खजरी मण्डप पूजे जिना। (नवल साहकृत क्रियाकोष)।
वर्षका देश निकाला दिया (१६/१०५) । सहायवनमें पाण्डवोंके आनेपर अर्जुनके शिष्योंने दुर्योधनको बाँध लिया ( १७/१०२-) परन्तु अर्जुनने दयासे उसे छोड़ दिया (१७/१४० )। इससे दुर्योधनका क्रोध अधिक प्रज्वलित हुआ। तब आधे राज्यके लालचसे कनकध्वज नामक व्यक्तिने दुर्योधनकी आज्ञासे पाण्डवों को मारनेकी प्रतिज्ञा की, परन्तु एक देवने उसका प्रयत्न निष्फल कर दिया (१७/१४५-)। तत्पश्चात विराट नगरमें इन्होंने गोकुल लूटा उसमें भी पाण्डवों द्वारा हराये गये (१४/१५२ ) । इस प्रकार अनेकों बार पाण्डवों द्वारा इनको अपमानित होना पड़ा। अन्तमें कृष्ण व जरासन्धके युद्धमें सब पाण्डवोंके द्वारा मारे गये ( २०/२६६)। कौशल्य-दे० कोसल । कौशांबी-वर्तमान देश प्रयागके उत्तर भागकी राजधानी । वर्तमान
नाम कोसम है । ( म. पु /प्र.४६ पं. पन्नालाल )। कौशिक-विजयाको उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे० 'विद्याधर'।
-पूर्व आर्यखण्डकी एक नदी-दे० मनुष्य/४ । भ-लवण समुद्र में स्थित पर्वत-दे० लोक/VE।
भाभास-लवण समुद्र में स्थित पर्वत--दे० लोक/५/६ । क्रतु-म. पु./६७/१६३ यागो यज्ञः क्रतुः पूजा सपर्येज्याध्वरो मखः मह इत्यापि पर्यायवचनान्यर्चनाविधेः ।१६३। =याग, यज्ञ, ऋतु, पूजा, सपर्या, इज्या, अध्वर, मख, और मह ये सब पूजाविधिके पर्याय वाचक शब्द हैं ।१३। क्रम-वस्तुमें दो प्रकारके धर्म हैं क्रमवर्ती व अक्रमवर्ती। आगे-पीई
होनेके कारण पर्याय क्रमवर्ती धर्म है और युगपत पाये जानेके कारण गुण अक्रमवर्ती या सहवर्ती धर्म है। क्रमवर्तीको ऊर्ध्व प्रचय और अक्रमवर्तीको तिर्यक् प्रचय भी कहते हैं।
१. क्रम सामान्यका लक्षण रा.वा./६/१३/१/५२३/२६ कालभेदेन वृत्तिः क्रम । = काल भेदसे वृत्ति
होना क्रम कहलाता है। स्या.म./१/३३/१६ क्रमो हि पौर्वापर्यम् । = पूर्वक्रम और अपरक्रम। स. भ. त./३३/१ यदा तावदस्तित्वादिधर्माणां कालादिभिर्भेदविवक्षा, तदास्त्यादिरूपैकशब्दस्य नास्तित्वाद्यनेकधर्मबोधने शक्त्यभावारक्रम । --जब अस्तित्व और नास्तित्व आदि धर्मोंकी देश काल आदिके भेदसे कथनकी इच्छा है तब अस्तित्व आदि रूप एक ही शब्दको नास्तित्व आदि रूप अनेक धर्मोके बोधन करने में शक्ति न होनेसे नित्य पूर्वापर भाव वा अनुक्रमसे जो निरूपण है, उसको क्रम
कहते हैं। पं.ध./पू./१६७ अस्त्यत्र यः प्रसिद्धः क्रम इति धातुश्च पाद-विक्षेपे। क्रमति क्रम इति रूपस्तस्य स्वार्थानतिक्रमादेषः । = यहाँ पर पैरोंसे गमन करने रूप अर्थ में प्रसिद्ध जो क्रम यह एक धातु है उस धातुका ही पादविक्षेप रूप अपने अर्थको उल्लंघन करनेसे "जो क्रमण करे सो क्रम" यह रूप सिद्ध होता है।
२. क्रमके भेदोंका निर्देश स.म./१/३३/२० देशक्रम' कालक्रमश्चाभिधीयते न चेकान्तविनाशिनि सास्ति । - सर्वथा अनित्य पदार्थ में देशक्रम और कालक्रम नहीं हो
सकता। पं../पू./१७४ विष्कम्भ क्रम इति वा क्रमः प्रवाहस्य कारणं तस्य ।
-प्रतिसमय होनेवाले द्रव्यके उस उत्पाद व्ययरूप प्रवाहक्रममें जो कारण स्वकालरूप अंशकल्पना है अथवा जो विष्कम्भरूप क्रम है ।...१७४।
कौरव-पा. पु./सर्ग/श्लोक धृतराष्ट्रके दुर्योधनादि १०० पुत्र कौरव
कहलाते थे (८/२१७) भीष्म व द्रोणाचार्यसे शिक्षा प्राप्त कर (८/२०८) राज्य प्राप्त किया। (१०/३४) । अनेकों क्रीड़ाओंमें इनको पाण्डवों द्वारा पराजित होना पड़ा था (१०/४०) । इससे यह पाण्डवोंसे क्रुद्ध हो गये। भरी सभामें एक दिन कहा कि हमें सौको आधा राज्य और इन पाँचको आधा राज्य दिया गया यह हमारे साथ अन्याय हुआ (१२/२५ ) । एक समय कपटसे लाखका गृह बनाकर दिखावटी प्रेमसे पाण्डवोंको रहनेके लिए प्रदान किया ( १२/६०) और अकस्मात मौका देख उसमें आग लगवा दी। (१२/११५) । परन्तु सौभाग्यसे पाण्डव वहाँसे गुप्त रूपमें प्रवासमें रहने लगे ( १२/२३५ ) । और ये भी दिखावटी शोक करके शान्ति पूर्वक रहने लगे ( १२/२२६ ) । द्रौपदीके स्वयंवरमें पाण्डवोंसे मिलाप होनेपर ( १५/१४३ ) आधा राज्य बाँटकर रहने लगे (१६/२) दुर्योधनने ईर्ष्यापूर्वक (१६/१४) युधिष्ठिरको जुएमें हराकर १२
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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